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दीवारों के साये में

अमृता प्रीतम

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7394
आईएसबीएन :9788170287131

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लेखिका ने इन कहानियों में समाज की और मन की दीवारों से आरंभ करके कारागार की दीवारों तक इन सभी में बंद स्त्री-पुरुषों का मार्मिक चित्रण किया है।...

Diwaron Ke Saye Mein - A Hindi Book by Amrita Pritam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अमृता प्रीतम की इस कृति में संसार में नारी की स्थिति, पीड़ा, विडम्बना और विसंगतियों को मुखर किया गया है। इसमें वास्तविक नारी चरित्रों पर लिखी अनेक कहानियां भी हैं। जिनमें लेखिका ने समाज की और मन की दीवारों से आरंभ करके कारागार की दीवारों तक इन सभी में बंद स्त्री-पुरुषों का मार्मिक चित्रण किया है।

‘तिरिया जन्म झन देव’ या काहे को दीनो यह मनुआ रामजी, काहे दीनी यह काया

—इस रचना का मर्म बिन्दु है।

शतरूपा


शिव है का आधार तत्व है और शक्ति होने का आधार तत्व; वह संकल्पहीन हो जायं तो एकरूप होते हैं। संकल्पशील हो जाएं तो दो रूप होते हैं। इसलिए वे दोनों तत्व हर रचना में होते हैं, इनसानी काया में भी। कुदरत की ओर से उनकी एक सी अहमियत होती है। इसीलिए पूरे ब्रह्मांड की बारह राशियों में से छह पुरुष राशियां होती हैं और छह स्त्री राशियां।

शतरूपा धरती की पहली स्त्री थी, ठीक उसी तरह, जिस तरह मनु पहला पुरुष था। ब्रह्मा ने आधे शरीर से मनु को जन्म दिया और अपने आधे शरीर से शतरूपा को। मनु इनसानी नस्ल का पिता था, और शतरूपा इनसानी नस्ल की मां।

रजनीश जी के लफ़्जों में—‘सारी तहज़ीब स्त्री के आधार पर बनी। घर न होता, तो नगर न होते। नगर न होते तो तहज़ीब नहीं बन सकती थी। दोनों अलग अलग कोण पर होते हैं, इसीलिए एक दूसरे के लिए बराबर कशिश बनी रहती है। लेकिन दोनों के सहज मन अलग अलग होते हैं। इसलिए प्रेम, मर्द के लिए बंधन हो जाता है, औरत के लिए मुक्ति।

अंतर मन की यात्रा दोनों करते हैं, लेकिन रास्ते अलग अलग होते हैं। मर्द हठ-योग तक जा सकता है और औरत प्रेम की गहराई में उतर सकती है। साधना एक विधि होती है, लेकिन प्रेम की कोई विधि नहीं होती। इसीलिए मठ और मज़हब मर्द बनाता है, औरत कभी कोई मज़हब नहीं चलाती।

लोगों के मन में सवाल उठा था कि बुद्ध और महावीर जैसे आत्मिक पुरुषों ने अपनी-अपनी साधाना विधि में औरत को लेने से इनकार क्यों किया ? इस प्रश्न की गहराई में उतर कर रजनीश ने कहा—‘बुद्ध का संन्यास पुरुष का संन्यास है, घर छोड़ कर जंगल जाने को वाला संन्यास, जो स्त्री के सहज मन के विपरीत है। वह स्त्री के सहज मन को जानते थे कि उसका होना जंगल में भी घर बना देगा। इसी तरह महावीर जानते थे कि स्त्री बहुत बड़ी घटना हैं। उसने प्रेम की राह से मुक्त होना है, साधना की राह से नहीं। उसका होना ध्यान साधना का रास्ता बदल देगा। वह तो महावीर की मूर्ति को भी प्रेम करने लगेगी, उसकी आरती करेगी, हाथों में फूल लेकर नृत्य करने लगेगी। उसके मन का कमल प्रेम में खिलता है। ध्यान साधना में नहीं।

वेदना


मर्द ने अपनी पहचान मैं लफ़्ज़ में पानी होती है, औरत ने मेरी लफ़्ज़ में...
‘मैं’ शब्द में ‘स्वयं’ का दीदार होता है, और ‘मेरा’ शब्द ‘प्यार’ के धागों में लिपटा हुआ होता है...

लेकिन अंतर मन की यात्रा रुक जाए तो मैं लफ़्ज़ महज अहंकार हो जाता है और मेरा लफ़्ज़ उदासीनता। उस समय स्त्री वस्तु हो जाती है, और पुरुष वस्तु का मालिक।
मालिक होना उदासीनता नहीं जानता, लेकिन मलकियत उसकी वेदना जानती है।

रजनीश जी के लफ़्ज़ों में ‘‘वेदना का अनुवाद दुनिया की किसी भाषा में नहीं हो सकता। इसका एक अर्थ ‘पीड़ा’ होता है, पर दूसरा अर्थ ‘ज्ञान’ होता है। यह मूल धातु ‘वेद’ से बना है, जिस से विद्वान बनता है—ज्ञान को जानने वाला। वेदना का अर्थ हो जाता है —जो दुख के ज्ञान को जानता है।’’ सो इस वेदना के पहलू से कुछ उन गीतों को देखना होगा, जो धरती की और मन की मिट्टी से पनपते हैं।

लोकगीत बहुत व्यापक दुख से जन्म लेता है, वह उस हकीकत की ज़मीन पर पैर रखता है, जो बहुत व्यापक रूप में एक हकीकत बन चुकी होती है।
इसी तरह कहावतें भी ऐसे संस्कारों से बनती हैं, जि पर्त दर पर्त बहुत कुछ अपने में लपेट कर रखती हैं। जैसे कभी बंगाल में कहावत थी—‘‘जो औरत पढ़ना लिखना सीखती है, वह दूसरे जन्म में वेश्या होकर जन्म लेती है।’’*

हमारे देश की अलग-अलग भाषाओं के होठों पर ऐसी कितनी कहावतें और गीत सुलगते हैं। आम स्त्री की हालत का अनुमान कुछ उन्हीं से लगाना होगा...

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* ‘‘पुराण पुरुष योगिराज श्री शामाचरण लाहिड़ी,’’ पृ. 12

तिरिया जन्म झन देव


आदिवासी औरतें तोते को ऐसा कासद मानती हैं जो ईश्वर के पास उनकी फरियाद लेकर जा सकता है। इसीलिए वह कार्तिक के महीने में धनतेरस के दिन सुआ नृत्य करती हैं—तोता नाच।

नृत्य के समय औरतें की गिनती 12 होती है, जिसमें लगता है कि वे उन बारह राशियों का प्रतीक हो जाती हैं—जिनसे पूरा ब्रह्माण्ड देखा जा सकता है। वक्त का कोई टुकड़ा 12 राशियों से बाहर नहीं रहता इसलिए उनकी फरियाद पूरे काल में से गुजरती है।

इस नाच के साथ कोई साज़ नहीं होता, सिर्फ तालियों की लय होती है। नाच से पहले भी सिर्फ तालियां होती हैं, एक लय में, जैसे साज़ सुर किए जा रहे हों और समय बंध जाता है।
फिर वह आहिस्ता-आहिस्ता अपने बदन को हिलाती हैं, हर ओर, जैसे पिंजरे में पड़ा हुआ तोता पिंजरे की सलाखों से सिर पटकता है।

तालियों के अलावा, नाच के समय उनके हाथों-पैरों और कलाइयों में पड़े हुए ज़ेवर ताल देते हैं।
12 औरतों में से जो सबसे छोटी उम्र की होती है, मासूमियत का प्रतीक, उसके सिर पर बांस की बनी डलियां होती हैं, जिसमें मिट्टी का, बरे रंग का तोता रखा जाता है—संदेशवाहक का प्रतीक।

उस समय सब औरतें अपनी कमर के गिर्द कपड़े के छह बल देती हैं। आज इस 6 अंक का उनके पास कोई जवाब नहीं, पर लगता है—जब यह रस्म शुरू हुई थी, सोच समझ कर शुरू हुई थी। अनुमान होता है कि ब्रह्माण्ड की जो बारह राशियां होती हैं, उनमें से 6 पुरुष राशियां होती हैं और 6 स्त्री राशियां। और कमर के गिर्द जो कपड़े के छह बल दिए जाते हैं, उनका संकेत 6 स्त्री राशियों की ओर है। और यह केवल स्त्री की व्यथा है।

इस तरह वे गाती नाचती गांव के हर द्वार पर जाती हैं। गीत की पंक्ति होती है—तिराय जन्म झन देव। यानी हमें फिर स्त्री का जन्म न देना ! यह बात तोता जाकर कहेगा ईश्वर से...

औरत का जन्म पाकर, घरों के जिन दुखों में से गुजरना होता है—उसका कुछ संकेत दूसरी पंक्तियों में मिलता है—‘‘ससुर के संग चलूं तो बोझा उठाना पड़ता है। सास के संग चलूं तो कितने ही उलहने और कितनी ही शिकायतें सुननी पड़ती हैं। अकेली चलूं तो लोग बातें करते हैं—और वे तोते के माध्यम से फरियाद करती हैं—ईश्वर ! मुझे फिर से नारी का जन्म मत देना !

सर्प के फन की छाया में


एक तेलुगु गीत सुनते हुए कान तड़पने लगते हैं—जिसमें बेटी का दर्द फरियाद नहीं बनता। बेटी के...होंठ सिसक जाते हैं, पर मां की नज़र की गहराई बेटी की तकदीर जानती है। यह तकदीर उसने खुद भी बदन पर झेली थी, इसलिए उसका तपता बदन तड़पने की बात नहीं करता, बेटी को हौसला होता है, सब कुछ झेल ग़ुज़रने की हिम्मत देता है। मां कहती है—हर एक मेंढकी को सर्प की छाया में जीना होता है...

छोटे से ताल में खेलती हुई मेंढकी, सर्प के फन की छाया में घर बसाती है। परम्परा के होंठ इस गीत को गाते हैं, और कुछ नहीं कहते। जानते हैं—कि घर से बाहर कड़ी धूप है, इस लिए बेटी के सिर के लिए छिया खरीदनी है, भले ही वह सर्प के फन की छाया हो ! बेटी के सिर की छाया, बेटी के लिए नेकनामी है, इज़्ज़त आबरू है, भले ही डंक का खतरा हमेशा सिर पर तना रहता है...

हंडिया में भेड़ का गोश्त पकता है—
लेकिन बहू की थाली में तो पत्थर ही होगा...


काश्मीर की ललारिफ़ा योगिनी थी; उनके कहे हुए कई ‘वारक’ साधना के बीज मंत्र बन गए। लेकिन उसकी जिन्दगी के कितने ही बरस थे, ससुराल के घर की जिन्दगी के, जो बहुत बड़ी यातना थे। वह दूर से पानी भर कर लाती कुछ देर हो जाती, तो घर में कदम रखते ही सास की गालियां बरस जातीं। उसे खाने के लिए जो भात की थाली दी जाती उसमें एक पत्थर रख कर भात परस दिया जाता कि थाली भरी हुई लगे...

कहते हैं—एक बार घर में दावत थी, बड़ी सी हंडिया में भेड़ का गोश्त पकाया जा रहा था, कि हमसाइयों ने आहिस्ता से उसके कान में कहा—आज तो तुम्हें भी अच्छा खाना मिलेगा। और कहते हैं—उस वक़्त ललारिफ़ा ने कहा—हंडिया में भेड़ का गोश्त भले ही पकता रहे, लेकिन बहू की थाली में तो वही पत्थर होगा।

छोरी तो करम जली


नेपाल का गीत है, लोरी जैसा, जो बेटी के जन्म के बाद उसे गोद में लेते हुए एक विलाप-सा हो जाता है। मां को बेटी के नन्हें-नन्हें हाथों में, सारी जिन्दगी के लिए पकड़ा हुआ झाडू दिखाई देता है। और गीत उसके होठों पर बिलखता है—छोरी तो करमजली—हाथ में झाड़ू और पोचा...

मां की नज़र दूर तक आने वाले बरसों को देखती है, बेटी के हाथों में पकड़ा हुआ झाड़ू दिखाई देता है...और जब ये सब कुछ झेलने लगती है, झाड़ू की हत्थी को कस कर बांधती हुई, बिखरती हुई हर तील को संभालती है, तो बिलख सी उठती है—फूल खिल गया तोरी का, री मइया किसी को जन्म न देना छोरी का...

सात जन्म का शाप


मणिपुर में आर्थिक पहलू से औरत की हसियत अच्छी है। अनाज-कपड़े की मंडी उसके हाथ में है, जिसे ‘इमा मंडी’ कहते हैं। ‘इ’ का अर्थ है मेरी, और ‘मा’ का अर्थ है मां। यानी मेरी माँ की मंडी, व्यापार की मंडी। इसलिए रोटी रोज़गार औरत के हाथ में होता है।

और मणिपुर में इतिहास में अपनी धरती की आज़ादी का दिन भी औरत के संघर्ष से जुड़ा हुआ है, जो हर बरस मनाया जाता है। इस दिन को नुणी लाल कहा जाता है। नुणी का अर्थ है—औरत, और लाल का अर्थ है—जंग। यानी औरत की जंग। यह इतिहास अंग्रेजों के राज के समय बना था, जब कुछ अंग्रेज अफसरों ने मणिपुर की कुछ सुन्दरियों को अपनी रखेलें बना लिया। मणिपुर की सारी औरत ज़ात गुस्से में खौल गई कि बियाहे हुए अफसर, बियाही हुई औरतों पर भी हाथ डालने लगे थे। अनाज की मंडी औरतों के हाथ में थी, इसलिए उन्होंने आलू चावल जैसी वस्तुओं को देश से बाहर ले जाने के रास्ते बंद कर दिए। यह एक लम्बा संघर्ष था—लेकिन औरतों ने अपनी स्वतंत्रता जीत ली। इसलिए औरतों के नाम पर आज भी वह स्वतंत्रता दिवस सरकारी छुट्टियों में शामिल है।

मणिपुर की तहज़ीब, बाहर की आमद को नहीं झेलती। इस हद तक कि दूसरे प्रांतों के लोग, पंजाबी और बंगाली बरसों से बसे हुए हैं; अपने घर बना कर रहते हैं, उन्हें भी मणिपुर की सभ्यता ‘मयंग’ कहती है। मयंग का अर्थ है—बाहर का आदमी, दूसरी जगह का जो अपना नहीं।

लेकिन कई पहलुओं से वहां की शक्तिशाली औरत भी, महज़ शारीरिक बल पर जीने वाले मर्द समाज से अपने अस्तित्व का अधिकार नहीं ले पाई। इस निराशा ने कई लोक गीतों को जन्म दिया है, जो तड़प कर कहते हैं—सात जन्मों का शाप था—जो मैंने स्त्री का जन्म लिया...

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