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अध्यात्म का मार्केट

शिव शर्मा

प्रकाशक : भारतीय पुस्तक परिषद प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7544
आईएसबीएन :81-904297-7-9

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एक दुकान पर संजीवनी बूटी बिक रही है, धूप और गर्मी से जो भी बेहाल होकर गिरता है, उसे यहां संजीवनी सुंघा दी जाती है...

Adhyatm Ka Market - A Hindi Book - by Shiv Varma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देश के शीर्ष व्यंग्यकारों में एक डॉ. शिव शर्मा के व्यंग्य पिछले चार दशक से देश की प्रमुख पत्रिकाओं व पत्रों में प्रकाशित और प्रशंसित होते रहे हैं। विषय-चयन और प्रस्तुति के खिलंदड़ अंदाज के कारण शिव शर्मा की अपनी लग ही पहचान है।
वह जन-जन के बीच से विषय-संधान करते हैं और सरल-सहज से लगने वाली स्थितियों के बीच भी व्यंग्य का ऐसा आविष्कार करते हैं कि पढ़ने वाला न सिर्फ हँसता रह जाता है, बल्कि सोचने पर मजबूर भी होता है।

कहीं वह अध्यात्म के मार्केट की पोल खोलते हैं तो कहीं पूछते हैं कि कौन बनेगा करोड़पति समाजवादी ? स्वातंत्र्योत्तर भारत में मूल्य परिवर्तन पर तो उनकी नजर है, तो साथ ही वह मानते हैं कि लक्ष्मी बिन सब सून रहता है।
वह भारतीय परंपरा से भी विषय उठाते हैं और वर्तमान से भी, लेकिन बदलते समय के तेवर खूब पकड़ते हैं। उनके व्यंग्य हँसाते भी हैं, गुदगुदाते भी हैं और कचोटते भी हैं।
उनकी भाषा और विषय की खोज अनोखी है। आप पढ़ना शुरू करेंगे तो फिर पढ़ते ही चले जाएंगे।

अध्यात्म का मार्केट

अध्यात्मक का शेयर मार्केट में इन दिनों पुनः सेंसेक्स उछाल पर है। मंडी में बहुत फील-गुड चल रहा है। मल्टीनेशनल अध्यात्म-कंपनियों के शेयरों के भाव सबसे अधिक चल रहे हैं। इनके पंडालों में एयरकंडीशनर लगे हुए हैं। प्रवचनों के साथ कोला मुफ्त सप्लाई किया जाता है। साध्वियां एवं साधु पॉप-मुद्रा में रासलीला भी करते हैं। परंपरागत चिलम के साथ गुटका एवं भांग की गटक गोली का आनंद ही कुछ अलग मिलता है। भोजन भी पसंद का मिल जाता है। ढाई लाख स्क्वायर फीट में बने इस वातानुकूलित आध्यात्मिक नगर में विदेशी भी आए हुए हैं। इनके लिए छः हजार रुपये प्रतिदिन की स्विस काटेज की व्यवस्था है। इसमें सारी सुविधाएं हैं–आडियोविजुअल से लेकर वह सब कुछ मिलता है, जो किसी पांच-सितारा होटल में ही मिलना संभव है।

कुछ देशी किस्म की शॉप भी हैं। वहां भी अध्यात्म की शॉइनिंग हो रही है। यद्यपि यहां वह ठाठ-बाट नहीं है जो स्विस काटेज वाले पंडालों में है, लेकिन यहां स्वदेशी स्टाइल में ही देशी आध्यात्मिक माल खूब बिक रहा है। रामाणयकालीन कंद-मूल भी बिक रहे हैं। एक बाबा ने पिछले 50 वर्षों से कुछ खाया-पीया नहीं है। वैसे ही कंद-मूल खाकर खिलखिला रहे हैं—इन्हें खाने के बाद भूख ही नहीं लगती। यह बात दीगर है कि वे अलस्सुबह ही चाय-जलेबी-पोहे का डटकर नाश्ता कर लेते हैं और फिर दिन-भर अपने कंद-मूल-फल बेचते रहते हैं।

एक दुकान पर संजीवनी बूटी बिक रही है; धूप और गर्मी से जो भी बेहाल होकर गिरता है, उसे यहां संजीवनी सुंघा दी जाती है और वह बिना ग्लूकोज की बोतल चढ़ाए ही दौड़ने लगता है। हनुमानजी इसी संजीवनी बूटी के पूरे पहाड़ को उठाकर मूर्च्छित लक्ष्मण को जीवित करने के लिए आकाश-मार्ग से उड़े थे। सुषेण वैद्य ने यही संजीवनी लक्ष्मण को सुंघाई थी।

एक बाबा रामेश्वरम् से दो-दो किलो वजनी पत्थर लाए हैं। ये पत्थर पानी के टब में तैर रहे हैं, पब्लिक देखकर प्रसन्न है–इन्हीं पत्थरों से तो रामेश्वरम का पुल भगवान राम ने बनवाया था ! अन्यथा इस धरती पर रामराज्य नहीं रावणराज्य ही बना रहता।

एक महात्मा 25 वर्षों से एक टांग पर खड़े होकर तप कर रहे हैं। वे न सोते हैं, न खाते हैं, न पीते हैं। इसके बावजूद उनके मुख पर हेमामालिनी के गालों-सी ताजगी है। यह ‘भारत-उदय’ नारे जैसा लगता है। लोग भले ही लाल झंडेवालों की तरह आरोप लगाएं कि यह शाइनिंग रात को चुपचाप निगली जाने वाली रबड़ी की है, जो अभी तक आम आदमी तक नहीं पहुंची है। अभी यह समाज के एक वर्ग-विशेष तक ही पहुंची है।

‘180 वर्षीय’ एक बाबा सीधे हिमालय से चलकर यहां आए हैं। उन्होंने परकाया-प्रवेश कर लिया है। वैसे इनका यह दूसरा जन्म है, उनको देखने-भर के लिए लंबी कतारें लगी हुई हैं। झुर्रियोंवाले लोग भी अब परकाया-प्रवेश की विधि चाह रहे हैं। इस काया में तो अब कुछ दम बचा नहीं है, कोई जवान काया मिले तो कम से कम 21वीं सदी का कुछ आनंद तो उठा लें।
सबसे अधिक चर्चित एवं ‘विक्रित’ हो रहा है–अमरफल। राजा भर्तृहरि ने भूलवश यह फल स्वयं न खाकर अपनी रानी को दे दिया था। वह घूम-फिरकर रानी की बेवफाई से पुनः भर्तृहरि के पास ही लौट आया था। राजा संन्यासी हो गया था। लोग इस फल के लिए मरे जा रहे हैं। किसी भी मूल्य पर इसे पाकर चिर युवा बने रहना चाहते हैं। रानी को देने की भी भूल नहीं करेंगे। इस फल के लिए भी लंबी कतारें लगी हैं।

अभी अध्यात्म का सेंसेक्स काफी उछल रहा है।
पिछले दिनों ही एक शंकराचार्यजी के फंस जाने से हमारे आध्यात्मिक मार्केट में सेंसेक्स काफी लुढ़क गया था। वैश्वीकरण का लाभ आम आदमी को तो अभी तक नहीं मिला है, किंतु धर्म-अध्यात्म का मार्केट खूब फला-फूला है। अमेरिका में कई केंद्र खुल गए हैं। हमारे बाबाओं ने वहां आश्रम के नाम पर पांचसितारा होटल बनवा लिए हैं, जहां वे धन-दौलत से ऊबे हुए अमेरिकियों को योग के माध्यम से चूना लगा रहे हैं। सेक्स और टूटे हुए परिवारों के कारण अध्यात्म की दवा असर भी खूब कर रही है। इधर आतंकवाद ने जीना हरमा कर दिया है। ये कथित संत और बाबा ‘हीलिंग टच’ से रोगियों का इलाज कर ‘ऐश’ कर रहे हैं।

हमारे सभी धर्मों के साधु-संतों, फकीरों, महामंडलेश्वरों, नागाओं, प्रवचनकारों को जोड़ लिया जाए तो लगभग 3 करोड़ हो जाते हैं। कुछेक तो वहीं से अपना गैंग चला रहे हैं, किंतु शेष अभी यहां अनाज खुटा रहे हैं या अपराध कर रहे हैं। अयोध्या से लेकर गुजरात के अक्षरधाम तक क्या हो रहा है, सबको ज्ञात है ही। इन्हें विदेशों में भेजकर अध्यात्म/धर्म के नाम पर अच्छी विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है।

पिछले कुंभपर्व पर ही यहां साधुओं के गुटों में संघर्ष हुआ था, एक प्रवचनकार के पांचसितारा पंडाल पर, जहां कोका कोला से लेकर कोकीन तक मिलती थी, नागा साधुओं ने हमला कर दिया था। नागा बाबाओं के फटेहाल तंबुओं में भक्तों ने जाना ही बंद कर दिया था। जब ऐश करने के लिए भगवान और भौतिक सुख दोनों एक साथ मिल जाएं तो भक्त भी इन भुक्खड़ बाबाओं की धूनी पर क्यों अपने तन-मन जलाने जाएं ? एक प्रवचनकार ने अपने को कृष्ण का अवतार घोषित करदिया था। वास्तविक साधुओं ने इसीलिए उसके पांचसितारा आश्रम पर हमला कर दिया था। चूँकि पुलिस एवं मंत्रीगण सभी इस प्रवचनकार के चेले बन गए थे, अतः वे तो बच गए, किंतु कीमती टेंट हाउस वाले को काफी नुकसान उठाना पड़ा था।
प्रवचनकार बाबा ने अपने स्मगलिंग के धंधे को बढ़ाने के लिए भक्तों का सहारा ले रखा था। उनका मूल धंधा तो चरस एवं स्मैक का स्मगलिंग करना ही था। अपने धन के बल पर उन्होंने अपने लाखों भक्त बना लिए थे, जिन्हें आश्रम में सब कुछ उपलब्ध था–रासलीला के साथ-साथ वहां धन एवं अध्यात्म की गंगा एक साथ बह रही थी। नाश हो इन नागा साधुओं का, जिन्होंने उनका स्वर्ग-सा आश्रम उजाड़ डाला था। स्वयं नागा बाबा तो नंगे थे ही।

शंकराचार्यजी के संकट में फंस जाने के कारण हमारे अध्यात्म के मार्केट के सेंसेक्स को काफी झटका लगा था, अतः हमें भी मार्केट को बढ़ाने के लिए कुछ कहना ही चाहिए। पोप के वेटिकन सिटी की तरह धर्माचार्यों को कानून के तमाम बंधनों से मुक्त कर देना चाहिए—वे चाहे जिसकी हत्या, बलात्कार करें या डाका डालें।
प्रश्न यह है कि दो दर्जन तो शंकराचार्य ही हैं और ऊपर से हजारों मठ और मठाधीश ! पहले हमें बहुमत से एक धर्माचार्य चुनना पड़ेगा।

हमारे देश में अब भी धर्म/अध्यात्म को समझने वाले ही बहुत कम हैं। निर्धन एवं भुखमरे लोग बाबाओं के प्रवचनों को ही धर्म मान लेते हैं और वे जैसा आदेश देते हैं, उसे ही ईश-वाणी मान लेते हैं। इतने सारे साधुओं एवं उनके विवादों में हम उलझ गए हैं, अतः वैश्वीकरण के तहत हमें इन बाबाओं के विदेशों में निर्यात कर देना चाहिए। हमारे अध्यात्म के मार्केट में अभी काफी दम शेष है।

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