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फूलों का कुर्ता

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7870
आईएसबीएन :978-81-8031-439

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‘फूलों का कुर्ता’ कहानी संग्रह...

Phoolon Ka Kurta - A Hindi Book - by Yashpal

यशपाल के लेखकीय सरोकारी का उत्स सामाजिक परिवर्तन की उनकी आकांक्षा, वैचारिक प्रतिबद्धता और परिष्कृत न्याय-बुद्धि है। यह आधारभूत प्रस्थान बिन्दु उनके उपन्यासों में जितनी स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए हैं, उनकी कहानियों में वह ज्यादा तरल रूप में, ज्यादा गहराई के साथ कथानक की शिल्प और शैली में न्यस्त होकर आते हैं। उनकी कहानियों का रचनाकाल चालीस वर्षों में फैला हुआ है। प्रेमचन्द के जीवनकाल में ही वे कथा-यात्रा आरम्भ कर चुके थे, वह अलग बात है कि उनकी कहानियों का प्रकाशन किंचित् विलम्ब से आरम्भ हुआ। कहानीकार के रूप में उनकी विशिष्टता यह है कि उन्होंने प्रेमचन्द के प्रभाव से मुक्त और अछूते रहते हुए अपनी कहानी-कला का विकास किया। उनकी कहानियों में संस्कारगत जड़ता और नए विचारों का द्वन्द्व जितनी प्रखरता के साथ उभरकर आता है उसने भविष्य के कथाकारों के लिए एक नई लीक बनाई जो आज तक चली आती है। वैचारिक निष्ठा, निषेधों और वर्जनाओं से मुक्त न्याय तथा तर्क की कसौटियों पर खरा जीवन–ये कुछ ऐसे मूल्य है जिनके लिए हिन्दी कहानी यशपाल की ऋणी है।
‘फूलों का कुर्ता’ कहानी संग्रह में उनकी ये कहानियाँ शामिल है : आतिथ्य, भवानी माता की जय, शिव-पार्वती, खुदा की मदद, प्रतिष्ठा का बोझ, डरपोक कश्मीरी, धर्मरक्षा और जिम्मेदारी।

अनुक्रम


  • आतिथ्य
  • भवानी माता की जय
  • शिव-पार्वती
  • खुदा की मदद
  • प्रतिष्ठा का बोझ
  • डरपोक कश्मीरी
  • धर्मरक्षा और जिम्मेदारी

  • आतिथ्य


    रामशरण को भारत सरकार के अर्थ-विभाग में क्लर्की करते तीन वर्ष बीत चुके थे। इतनी बड़ी सरकार की व्यवस्था में जगह और उसका आश्रय पाकर रामशरण ने अनेक ऐसी सुविधाएँ पाई थीं जो जनसाधारण के लिए स्वप्न-मात्र थीं। प्रतिवर्ष मैदानों को तड़पा देने वाली गर्मी से भागकर छः मास तक शिमला शैल पर निवास और छः मास तक देहली के शाही शहर की रौनक।

    रामशरण का जन्म हुआ था मेरठ जिले के एक गाँव में, जहां भूमि ऋतु-ऋतु में अपने उदर पर हलके फले का प्रहार सहकर, तटस्थ उदारता से बीज ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत रहती है। हरी-भरी फसलों के आवरणों से उस भूमि की नग्नता कुछ ही दिन ढक पाती है कि किसान फसल को काट कर अपने खलिहानों में समेट लेते हैं। जमीन बेचारी बेरौनक और काट कर अपने खलिहानों में समेट लेते हैं। जमीन बेचारी बेरौनक और उदास हो जाती है और अपने को ढक पाने की आशा में फिर हल का फाल सहने के लिए तैयार हो जाती है। उन उपजाऊ प्रदेशों का रूप मनुष्य के उपयोग से घिस-घिस कर प्रौढ़ा गृहस्थिन की भाँति हो गया है जिसे काम-काज और उलझन के बोध से दब कर कभी सिंगार करने या मुस्कराने का अवसर नहीं मिलता। उसकी ओर निगाह जाने से किसी रसिक युवक का मन गुदगुदा नहीं उठता।

    रामशरण अपने घर से कनस्तर में लाया घी खाता था और दफ्तर में सरकार के आय-व्यय का हिसाब, करोड़ों की संख्या तक करके अपने मस्तिष्क को थका देता था। अवकाश के समय वह आस-पास की पहाड़ियों पर उन्मुक्त वायु में सीना फुला, गहरे साँस लेकर, मीलों दूर तक निगाहें दौड़ा कर प्रकृति का आनन्द लेता रहता। अप्रैल और मई के महीनों में शिमले की घाटियाँ फलों के रंग लेकर, खिलखिलाकर होली खेलती जान पड़तीं। वर्षा के महीनों में आकाश पर निरंतर गहरापन बना रहता, बादल आकाश से बरस-बरस कर संतुष्ट न होते। वे उमड़-उमड़ कर घरों के भीतर चले आते। धरती धूप की मुस्कराहट के लिए प्रतीक्षा में आकुल हो जाती पर बादल नवोढ़ा रूपगर्विता माननी की भाँति मान किये रहते। उनके मान का अंत प्रेमी के व्याकुल हो जाने पर नहीं होता।...और फिर जब प्रकृति चौमासे के मान की घटाघोप उदासी को छोड़ का पागलपन छा जाता। रामशरण का मन पुलक कर व्याकुल हो उठता। सोचता–इस चामत्कारिक देश में दृष्टि के परे जाने क्या-क्या है।

    रामशरण ने उन पहाड़ी देशों में दूर-दूर घूम आये अनेक साहसी व्यक्तियों से पूछ-पूछ कर बहुत-सी अद्भुत कथाएँ, वृत्तान्त और वहाँ की प्राकृतिक छटा, नारी रूप और विचित्र आचार-व्यवहार की बातें सुनी थीं। सुना था, उस देश के उदार और भोले निवासी भटक कर अपने गाँव में आ गये अतिथि के सत्कार का अवसर पाने के लिये आपस में झगड़ बैठते हैं। वहाँ चम्पा के रंग की गृह-बधुएँ अतिथि की थकावट मिटाने के लिये उसके शरीर को अपने हाथों दबाती हैं; अपने सामर्थ्य भर अतिथि के लिये कोई सुविधा दुर्लभ नहीं रहने देतीं। वह देश देखने के लिये रामशरण का मन किलक उठता था।
    उस बरस जब अक्तूबर में सरकारी दफ्तर शिमला से देहली जा रहा था, रामशरण ने तीन मास की छुट्टी ले ली। उसका विचार था, दूर-दूर तक पहाड़ों में घूमेगा और जाड़ों में शिमले को बरफ की रजाई ओढ़ कर सोते हुए देखेगा।
    रामशरण एक झोले में मामूली सा सामान, एक कम्बल और बल्लम लगी लाठी लेकर शिमले में चल पड़ा। वह ‘मशोब्रा’, ‘ठियोग’, ‘नारकाण्डा’, और ‘बागी’ होता हुआ चलता चला जा रहा था कि ऐसी जगह पहुँचे जो आधुनिक सभ्यता के प्रपंचपूर्ण प्रभाव से मुक्त और स्वाभाविक रूप से सरल हो। वह ‘रामपूर बुशैर’ से आगे निकल गया।

    रामशरण थक जाने के कारण सड़क पर गिरते एक छोटे से पहाड़ी झरने के समीप बैठ गया था। झोले में से निकाल उसने कुछ सूखा मेवा खाया और पानी पीकर विश्राम करने लगा। उसकी पीठ के पीछे पहाड़ी चट्टान थी। ऊँचे वृक्षों से छनकर आती चितली धूप सुखद जान पड़ रही थी। सम्मुख घाटी गाँवों की ओर लगी हुई थी। ‘बीथू’ की फसल एक कर पत्ते पीले पड़ गये थे और अनाज की सुर्ख बालें धूप में दहक रही सुखाने के लिये फैला दिये गये थे। इससे छतें केसरिया चादरों से ढकी जान पड़ रही थीं। रामशरण की आँखों के सामने तो यह था परन्तु उसकी कल्पना कुछ और ही देख रही थी।

    सड़क के पिछले मोह पर नीचे के खेत से मनुष्य के गले का शब्द सुन कर उसने घूमकर देखा था तो दिखाई दिया कि दो पहाड़ने उसकी ओर निगाह किये आपस में हँस रही थीं। उसने सोचा–कितनी सरलता है इन लोगों में...अच्छा होता यदि वह दो बातें उनसे कर लेता। अब की चूक गया, फिर ऐसा अवसर आने पर सही...।

    झरने के समीप ही एक पगडण्डी पहाड़ी से उतर सड़क पार कर रही थी। कदमों की आहट मिली। पगडण्डी से चलकर रंगीन टोपी पहने एक बूढ़ा उसके समीप आ गया। बूढ़ा हाथ की लाठी एक ओर रखकर जमीन पर बैठ गया। उसने मुट्ठी होंठों पर रखकर ‘बाबू’ से एक सिगरेट माँग ली। रामशरण सिगरेट-तम्बाकू के प्रति पहाड़ियों की उत्सुकता से परिचित था। चलते समय कई डिबिया सिगरेट उसने झोले में रख ली थीं। एक सिगरेट निकाल कर उसने बूढ़े को भेंट कर दी और सामने तलहटी में तथा आस-पास के गाँवों के नाम पूछने लगा।

    रामशरण ने पहाड़ी पर चढ़ती पहडण्डी की ओर संकेत करके पूछा–‘‘यह रास्ता कहाँ जाता है ?’’
    ‘‘लँगोड़ी को।’’ बूढ़े ने तम्बाकू के धुएँ से खाँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘आगे तिल्ला है फिर शोरा। ऐसे ही गाँव-गाँव चीनी तक चला जाता है। उसके आगे छोटा तिब्बत है। हम लोग इन्हीं रास्तों से आते-जाते हैं। सड़क तो बहुत घूमकर जाती है। इन पगडण्डियों से दो दिन की मंजिल एक दिन में हो जाती है।’’

    ‘‘रास्ते में घने जंगल होंगे।’’ रामशरण ने पूछा, ‘‘आदमी राह भूल जाय तो ?’’
    ‘‘जंगल भी है, ग्राम भी है। सब बसा हुआ इलाका है।’’
    ‘‘जंगल में क्या जानवर मिलता है ?’’
    ‘‘घुरड़ है, रीछ है, कभी बाघ भी होता है, चीता बहुत है।’’
    ‘‘जानवर आदमी को नहीं मारता ?’’

    ‘‘आदमी को कम छेड़ता है, जानवर पर पड़ता है।’’
    बूढ़ा सिगरेट समाप्त कर राम-राम कह अपनी राह चल दिया और रामशरण पगडण्डी पर चढ़ने लगा। मन में सोचता जा रहा था–अपने को राह भूलने का भय क्या ? जहाँ पहुँच गये, वहीं अपने को जाना है; कोई नयी जगह हो। कुछ दूर चढ़ वह उस टीले की चोटी पर पहुँच गया। अनेक टीलों की पीठों पर बैठे उस टीले की चोटी पर खड़े होकर, वह अपने आपको साधारण पृथ्वी से बहुत ऊँचे अनुभव कर रहा था। उसने पीठ पीछे घूमकर देखा–सूर्य पश्चिम की ओर पहाड़ों की ऊँची दीवार की चोटी छू रहा था। संध्या आ जाने से उसे भय नहीं लगा। सामने तोष और खर्शू के पेड़ों से छाया एक ओर छोटा सा टीला था औंर उसके पार ऊँचे पहाड़ की ढलवान पर छोटा सा गाँव सूर्य की पीली पड़ती किरणों में चमक रहा था। रामशरण रात उसी ग्राम में एक अनजान अतिथि के रूप में बिताना चाहता था। कितनी ही कल्पनाओं से उसका मस्तिष्क भरा हुआ था।

    रामशरण जंगल से छाये टीले पर चढ़ रहा था तो सूर्य की किरणें लोप हो गयीं और चढ़ाई अधिक आड़ी होने लगी। उसके सीने की धड़कन के प्रत्येक श्वास के साथ अँधेरा गहरा होता जा रहा था। झाड़ियों और वृक्षों के रंग-बिरंगे पत्ते और आकार सब काजल के खिलौने बनते जा रहे थे। घने पेड़ों के नीचे घनी घास में पगडण्डी कभी की छिप जा चुकी थी। प्रकाश की आशा में आँखें ऊपर की ओर उठाने से सिर पर केवल काले पत्तों का घना छाजन दिखाई देता था। रामशरण केवल दिशा के अनुमान से चल रहा था। अनुमान से टीले की चोटी बहुत दूर पीछे छूट चुकी थी।

    रामशरण सामर्थ्य भर तेजी से चलने लगा। उसके शरीर के रोम किसी भी आहट से बार-बार सिहर उठते थे–यदि इस समय कोई भालू या चीता आ जाय ! उसने साहस बनाये रखने के लिये निश्चय किया–जानवर के मुँह खोलकर झपटने पर वह जानवर के मुँह में बल्लम डाल कर धँसा देगा। खर्शू के कँटीले पत्ते बार-बार उसके गालों और हाथों को खरोंच देते थे। चढ़ाई पर उसके आगे बढ़ने वाले कदम के लिये जमीन मौजूद रहती थी परन्तु उतराई शुरू हो जाने पर आगे बढ़ना और भी कठिन हो गया। वह बार-बार गिरते-गिरते बचता। गिर पड़ता तो जाने कहाँ पहुँच जाता ? अगला कदम बालिस्त भर नीचे पड़ेगा या गज भर या पचास हाथ, कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उसके पाँव लड़खड़ाने लगे और चोटी से एड़ी तक पसीना बहने लगा।

    रामशरण ने बहुत आड़े समय के लिये संभाल कर रखी हुई झोले में से टार्च निकाल ली और बल्लम के सहारे एक-एक कदम उतरने लगा। घने अँधेरे में ऐसी अजानी जगह आ मरने की अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। पल-पल पर रीछ और चीते का ख्याल आ रहा था। ऐसे समय यदि जानवर आ जाय तो कैसे टार्च सम्भाले और कैसे बल्लम थामकर उसका सामना करे ? सुना था, जंगली जानवर आदमी की आवाज से घबराते हैं। सोचा, जोर-जोर से गाने लगे परन्तु मुख से शब्द न निकल पाता था। वह सोचने लगा–पहाड़ जैसी बुरी जगह और नहीं। देश देखना था तो कलकत्ता, बम्बई जाता।

    रामशरण को टार्च की गोल-गोल रोशनी में एक पगडण्डी उसका रास्ता काटती हुई दिखाई दी। पछताया, अब तक वह यों ही भटक रहा था। वह उतराई की ओर चल पड़ा। एक घण्टे के करीब तेज चाल से चलने के बाद वह घने वन से बाहर हो गया। वन के बाहर अँधेरा उतना गहरा न था। आकाश में छाये उजले बादलों से कुछ प्रकाश भी आ रहा था। घड़ी देखी, साढ़े सात ही बजे थे। कुछ ही दूर आगे रोशनी के धब्बे जैसे दिखाई दिये। समझा गाँव आ गया। वह धीमे-धीमे उसी ओर चलने लगा।

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