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तर्क का तूफान

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7881
आईएसबीएन :9788180312445

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‘तर्क का तूफान’ यशपाल की सोलह कहानियों का संग्रह है...

Tark Ka Toofan - A Hindi Book - by Yashpal

यशपाल के लेखकीय सरोकरों का उत्स सामाजिक परिवर्तन की उनकी आकांक्षा, वैचारिक प्रतिबद्धता और परिष्कृत न्याय-बुद्धि है यह आधारभूत प्रस्थान बिन्दु उनके उपन्यासों में जितनी स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए है, उनकी कहानियों में वह ज्यादा तरल रूप में, ज्यादा गहराई के साथ कथानक की शिल्प और शैली में न्यस्त होकर आते हैं। उनकी कहानियों का रचनाकाल चालीस वर्षों में फैला हुआ है। प्रेमचन्द के जीवनकाल में ही वे कथा-यात्रा आरम्भ कर चुके थे, यह अलग बात है कि उनकी कहानियों का प्रकाशन किचित् विलम्ब से आरम्भ हुआ। कहानीकार के रूप में उनकी विशिष्टता यह है कि उन्होंने प्रेमचन्द्र के प्रभाव से मुक्त और अछूते रहते हुए अपनी कहानी-कला का विकास किया। उनकी कहानियों में संस्कारगत जड़ता और नए विचारों का द्वन्द्व जितनी प्रखरता के साथ उभरकर आता है, उसने भविष्य के कथाकारों के लिए एक नई लीक बनाई, जो आज तक चली आती है। वैचारिक निष्ठा, निषेधों और वर्जनाओं से मुक्त न्याय तथा तर्क की कसौटियों पर खरा जीवन–ये कुछ ऐसे मूल्य हैं जिनके लिए हिन्दी कहानी यशपाल की ऋणी है।

‘तर्क का तूफान’ कहानी संग्रह में उनकी ये कहानियों शमिल हैं : निर्वासिता, अपनी करनी, तर्क का तूफान, मेरी जीत, जनसेवक, उतरा नशा, डायन, सोमा का साहस, होली नहीं खेलता, कानून, जादू के चावल, औरत, भाषा, परदा, राजा और तर्क का फल।

अनुक्रम


  • निर्वासिता
  • अपनी करनी
  • तर्क का तूफान
  • मेरी जीत
  • जनसेवक
  • उतरा नशा
  • डायन
  • सोमा का साहस
  • होली नहीं खेलता
  • कानून
  • जादू के चावल
  • औरत
  • भाषा
  • परदा
  • राजा
  • तर्क का फल

  • निर्वासिता


    जिस ममता भरी आँखों से सन्तान का रूप माँ-बाप देखते हैं, शेष संसार वैसे नहीं देख पाता। माँ-बाप देखते हैं, हृदय की आँख से अपने हृदय के टुकड़े को। संसार देखता है, तटस्थ दृष्टि से, मूल्य आँकने के विचार से; जैसे पदार्थ की उपयोगिता या आकर्षक से उसकी क़द्र की जाती है।

    इन्दु का नाम माँ-बाप ने उसे अपने हृदय-आकाश का चाँद समझ कर ‘इन्दु’ रक्खा था। दूसरे लोगों के लिए वह चाँद न बन सकी। उसके यौवन के शुक्ल पक्ष में भी कोई हृदय-चकोर उसकी चाह में पर फड़फड़ाने के लिए व्याकुल न हुआ। पुरुष में रूप न भी हो तो ऐसी बात नहीं, पुरुष में और बहुत कुछ हो सकता है परन्तु स्त्री में रूप न हुआ तो फिर होगा क्या ? बात जैसी कड़वी है नित्य जीवन में उतनी ही सत्य भी है।

    इन्दु सक्सेना की उपमा थी कुरूप के लिये। चेहरे का रंग साँवले से काफ़ी अधिक गहरा, होंठ...यदि केवल होंठों की ही देखा जाता तो पुष्ट और धनुषाकार थे। कोई चित्रकार अभ्यास के लिए उनके रेखाचित्र बनाने का यत्न कर सकता था परन्तु छोटी ठोढ़ी और अनुपात से बहुत छोटी नाक ने अपने स्थान से पीछे हट कर होंठों को अकेला छोड़ दिया था। होंठ बहुत आगे बढ़ कर यों श्रीहीन हो गये जैसे सुन्दर गीत से लय और ताल पीछे रह जाने पर वह विश्री हो जाता है। बचपन में निकली शीतला माता उसके चेहरे पर अपने स्नेह के गहरे चिह्न छोड़ गयी थीं। इन्दु की आँखें बड़ी-बड़ी थीं और उनके सफेद कोयों में सदा गहरे लाल डोरे बने रहते थे। इस रूप को ऊँचा उठाकर दिखाने में प्रकृति को क्या गौरव अनुभव होता ? इन्दु का कद भी नीचा ही रह गया था।

    इन्दु के माता-पिता आधुनिक विचारों के महत्त्वाकांक्षी थे। माता-पिता ने एक बेटी को जीवन में पूरा अवसर देने के लिए मैट्रिक के बाद कालेज में भरती करा दिया था। इन्दु के पास कालेज में आदर पा सकने का एक ही उपाय था, कठोर परिश्रम। उज्ज्वलता और प्रतिभा ने इन्दु के चेहरे पर स्थान न पाकर उसके मस्तिष्क में शरण ले ली थी, उसका मस्तिष्क गम्भीर परिश्रम के योग्य था। कालेज में पढ़ने वाली लाज से कुम्हलाती लड़कियाँ, लड़कों की बोली-ठोली से बिंधती थीं, तो इन्दु के लिए दूसरे ही ताने थे। एक दिन किसी मनचले ने दीवार पर पेन्सिल से लिख-दिया–मिस इन्दु से प्रार्थना–हमारी आँखों पर रहम कीजिये, बुरका ओढ़ कर आया कीजिये। दूसरी लड़कियों पर चोट करने के लिए दीवारों पर लिखे फ़िकरे इन्दु की दृष्टि से गुज़रते थे तो उसके लिए लिखा गया फ़िकरा उसे कैसे न दिखाई देता। इन्दु के इस अपमान और उपेक्षा का प्रतिशोध उस समय होता, जब वह परीक्षा में अपनी श्रेणी में प्रथम आती। योग्यता और पौरुष का अभिमान करने वाले नवयुवक कई कदम पीछे रह जाते।

    माता-पिता ने बेटी के लिए गृहस्थ का संसार बसाने के सभी सम्भव यत्न किये। उन्हें सफलता न हुई। कारण अनेक थे, लड़की का परदे में छिप कर न रहना, माता-पिता की सम्मानित और सम्पन्न वर ढूँढ़ने की जिद्द। धन-दहेज़ के ज़ोर पर धनी कुल पाया जा सकता है, नर शरीर भी, परन्तु प्रतिभा नहीं। प्रतिभावान लड़की के लिए एक मालिक ख़रीद कर बेटी को जीवन भर के लिए नर-पशु के पाँव तले डाल देना माँ-बाप को स्वीकार न था। वर ढूँढ़ने के प्रयास में निराश होकर उन्होंने लड़की को लड़का समझ लिया और उसे पढ़ाते जाने का क्रम जारी रखा। इन्दु ने प्रथम रह कर एम० ए० पास किया; एम० ए० की परीक्षा के लिए उसने जो निबन्ध लिखा, वह पुस्तकाकार छपा। दूर-दूर तक लोगों ने उसकी प्रशंसा की। बम्बई से स्त्रियों के एक कालेज ने उसे अध्यापक के पद के लिए निमन्त्रण दिया। इन्दु इलाहाबाद छोड़ बम्बई चली गयी। पति-मालिक की दासी और उपयोगी वस्तु बन कर नहीं, आत्म-निर्भर सम्मानित नागरिक बन कर।

    क्वार बीत रहा था। मसूरी की मौसमी आबादी छँट चुकी थी जैसे क्षीण शरीर, पीतवर्ण प्रसूता स्नान कर, नये वस्त्र पहन धूप में बैठ अपने केश को सुखाती है। वैसा ही रूप-रंग मसूरी का हो रहा था। क्वार के प्रभात की नीरवता में उजली-उजली और सूनी-सूनी मसूरी में अब वे लोग रह गये थे जिनके लिए मसूरी क्रीड़ा स्थली नहीं, अपना घर है या जिन्हें ज़ाड़े में मसूरी अरोचक जान पड़ने पर भी डॉक्टर की आज्ञा से मसूरी में ही रहना पड़ता है।

    इन्दु को मसूरी का शौक कभी नहीं था। वह डॉक्टर के परामर्श से क्वार के अन्त में भी मसूरी में ही थी। जब तक सम्भव हो सके जाड़े में भी उसे वहाँ रहना था। दिलाराम होटल के कमरे प्रायः सूने पड़े थे। दर्शकों की उत्साह-वर्द्धक दृष्टि के अभाव में फुलवाड़ी भी श्रीहीन पड़ी थी। टहनियों पर फूलों के स्थान में बीजों की फलियाँ आ गयी थीं; जैसे जीवन का रूप ले ले।

    गहरे पाले में नहायी वनस्पति और घास पर पहले पहर की चढ़ती धूप में ओस की भारी-भारी बूँदें चमक रही थीं। इन्दु होटल के पूर्वी पंखे की ओट में, कैन्वस की आराम कुर्सी पर अधलेटी, धोये हुए बाल सुखा रही थी। माथे पर रखा हुआ बायाँ हाथ आँखों को धूप से बचाये था। उसकी दृष्टि उँगलियों के बीच से होटल से नीचे उतरती ढलवानों पर लगी हुई थी। ढलवान छोटी-मोटी पहाड़ियों की रीढ़ों में बँटती-बँटती दूर तक फैली हुई थी। नीचे घाटी की गोद में देहरादूर नगर सिमटा-सा लगता था। नगर पर अब भी कोहरे की चादर थी। वनस्पति में ढँकी पहाड़ी ढलवानों पर कोहरा आकारहीन बादल की भाँति छा रहा था। जहाँ-तहाँ जल के पोखर और टीन की छतें काँच से मढ़े आँगन की भाँति चमक रही थीं। रंग-बिरंगी पहाड़ी चिड़ियाँ, सूखी घास और क्यारियों में मनुष्य की आँख को दिखाई न पड़ने वाली अपनी खुराक झपट लेने के लिए पैंतरे से फुदक रही थीं। सूर्य की गर्मी पाकर तितलियाँ अपने निर्बल परों को धीमे-धीमे हिलाती हुईं हवा में तैरने लगी थीं। धूप से आड़ के लिए माथे पर रखे हाथ की उँगलियों के अन्तर से इन्दु को यही सब दिखाई दे रहा था।

    इन्दु की कुर्सी के समीप बायीं ओर होटल का पहाड़ी माली कारनेशन की क्यारी में सफाई कर रहा था। होटल में बिताये चार मास के निष्क्रिय और मौन जीवन में, जब इन्दु डॉक्टर की आज्ञा से अपनी पुस्तकों और कागज-कलम से बिछुड़ी हुई थी, होटल की फुलवाड़ी में कारनेशन की यह क्यारी ही उसके लिए दिल-बहलाव का सहारा थी। इन्दु वर्षा न होने पर नियमित भ्रमण के लिए ‘कैमलबैक-रोड’ या ‘माल-रोड’ पर जाती थी। वह सड़क पर होटल के मुख्य दरवाजे से न जाकर कारनेश की क्यारी की ओर घूम कर जाती थी। पलती-पतली टहनियों पर झूलते कारनेशन के गहरे लाल, गुलाबी, ऊदे और सफेद फूल, उनकी लौंग की सी प्यारी गन्ध; उसके उदास मन को गुदगुदा देते। भारी वर्षा की चोट से फूलों की पंखुड़ियाँ ढीली पड़ जाने पर उनकी उदासी भी इन्दु के मन को छू लेती। इन्दु की दृष्टि पुस्तकों को आत्मसात करते-करते निर्बल पड़ गयी थी। वह मोटे-मोटे शीशों के चश्मे की सहायता से कारनेशन के फूलों को कुछ देर देख कर ही सड़क की ओर जाती।

    जनवरी के जाड़े में कारनेशन की क्यारी भी बेरंग और बेरौनक हो चुकी थी। माली सधे हुए हाथों से लम्बी खुर्पी के तिर्छे सीधे इशारों के आस-पास की सूखी घास और पत्ते समेट, खाद बन जाने के लिए क्यारी में दबाता जा रहा था। कारनेशन की छोटी और निर्बल टहनियों और उन पर सूख गये फूलों को माली की कठोर उँगलियाँ चूर-चूर कर खाद बना देने के लिए मसल देतीं। माली स्वस्थ, सबल टहनियों को झुकाकर, भूमि में दबा कर फुनगियों को ऊपर छोड़ रहा था।

    इन्दु का बूढ़े माली से परिचय था। उसने सुन्दंर फूलों की टहनियाँ कई बार इन्दु को नजर की थीं। इन्दु उन टहनियों को काँच के गिलास में रख कर धन्यवाद के रूप में कुछ आने माली को दे देती थी।
    इन्दु ने माथे पर रखे हाथ की आड़ से माली की ओर देख कर पूछ लिया, ‘‘माली, इन पेड़ों को तोड़ क्यों डाल रहे हो ? क्यारी में पानी दो, फूल निकल आयेंगें।’’

    बूढ़ा माली अपनी आयु के अधिकार से इन्दु के भोलेपन पर मुस्करा दिया और उसने खुरपी धरती पर रख दी। उसने तनिक विश्राम के लिए हाथों की मिट्टी झाड़ ली और उत्तर दिया, ‘‘बीबी जी, अब इन पौधों में फूल थोड़े ही खिल सकते हैं, यह तो बुढ़ा गये, बेकार हो गये जैसे हम है। इन टहनियों को दबा देते हैं। इनसे नये कल्ले फूटेंगे। मौसम में आप आयेंगी तो इनके बच्चों पर रूप-रंग, रौनक और बहार देखेंगी। मालिक दुनिया ऐसे ही चलती है। कोई पेड़-पौधा, पशु और इन्सान सदा एक-सा थोड़े बना रहता है।’’ माली ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘पुराने से नया पैदा होता है, ऐसे ही दुनिया चलती है। ’’

    मसूरी में बिताया चार मास तक निष्क्रिय विश्राम का जीवन इन्दु के लिए यंत्रणा हो रहा था। अस्वादु और अरोचक औषधि की भाँति वह अप्रिय, भार स्वरूप विश्राम को झेल रही थी। उसने नौ वर्ष तक कालेज की नौकरी में विश्राम और मनोरंजन की बात कभी नहीं सोची। लड़कियों पर इतिहास के गम्भीर पाठ की बौछार करने के अतिरिक्त, जिसकी उनके जीवन में कोई उपयोगिता न थी, वह पुस्तकालय में बैठ नोट ले-लेकर एक के पश्चात् एक निबन्ध लिखती गईं।

    इन्दु का परिचय ईसा के तीन शताब्दी से पूर्व दो शताब्दी बाद तक के भारतीय इतिहास से, अपनी कपड़ों की आलमारी से भी अधिक था। उसकी अमुक साड़ी धोबी के यहाँ है या आलमारी में, यह उसे याद न रहता। धोबी साड़ी का रंग या किनारा बिगाड़ देता तो उसे कुछ चिन्ता न होती परन्तु कोई इतिहास लेखक सीमान्त की सिन्धु और बुन्देलखंड़ की सिन्धु को एक बताने की धृष्टता करता तो इन्दु शिलालेखों, पुराने सिक्कों और पुरातन वंशावलियों के प्रमाणों से भरे निबन्ध लिखे बिना न रह सकती।

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