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इक आग का दरिया है

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8308
आईएसबीएन :9788126313617

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आधुनिक परिवेश में दिन-दिन उपजते अन्तर्विरोधों के अँधेरे के बीच उम्मीद की लौ जगाती एक मार्मिक कथा...

Ek Aag Ka Dariya Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित कथाकार गिरिराज किशोर के नवीनतम उपन्यास ‘इक आग का दरिया है’ में आधुनिक जीवन के अन्तर्विरोधों के बीच टूटता-बनता मां और बेटी, पिता और पति, पत्नी व सन्तान के सम्बन्धों से बननेवाला एक ऐसा त्रिकोण है जो अटूट भी है और भुरभुरा भी।....नशा पुरूष की व्यावसायिक शोभा हो सकता है तो स्त्री और उसकी इकलौती बेटी तथा पिता के बीच न मिल सकने वाले दो किनारों की वह भूमिका भी अदा करने का कारण बनता है। और तब स्वतन्त्रता के फ़ितूर और प्यार के बन्धन के बीच रस्साकशी शुरू हो जाती है। खारा सागर, जिसमें निवेश (उपन्यास के पात्र) का जहाज महीनों तैरता था, वहाँ उसे दो बूंद जल की अनिवार्यता महसूस होने लगती है जो उस त्रिकोण को नई ज़िन्दगी बख़्श सके। शायद उस आग के दरिया से निकलने और उसमें उठती उत्ताल तरंगों के घर में घुसकर उमा के गर्भस्थ बच्चे को बहा ले जाने की कल्पित आशंका से प्यार का दो बूँद जल ही बचा सकता है। ‘अंहकार के मुक़ाबले संकल्प’ ही खेवैया बनता है। और इसी के साथ अनदेखे ‘शिवदा’ की आवाज़ अन्दर गूंजती है जो बार-बार कहती है-‘अपना कटोरा अपने आप बनों...जो बचा है उसे सँभालों।’ उस आवाज़ को उमा रात-दिन अपने अन्दर महसूस करती है। आधुनिकता के इस शोर में उसे यह आवाज़ कैसे सुनाई पड़ी यह सवाल आपकी तरह उसे भी परेशान कर सकता है।

आधुनिक परिवेश में दिन-दिन उपजते अन्तर्विरोधों के अँधेरे के बीच उम्मीद की लौ जगाती एक मार्मिक कथा है गिरिराज किशोर का यह कृति ‘इक आग का दरिया है’-इक अत्यन्त रोचक उपन्यास।

 

कुछ शब्द अपने

मैं इस कथा में न पहला-सा गिरमिटिया का खोजी परिव्राजक हूँ और न ‘परिशिष्ट’ उपन्यास की आत्मवेदना को एक-दूसरे गमले में रोपकर अपना साक्षात्कार करना चाहता हूँ। मैं ‘जुगलबन्दी’ के बाबा के पुनर्जन्म का आकांक्षी भी नहीं। मैं लोककथा-गायकों की तटस्थता और तत्कालीनता उधार लेकर जगबीती और आपबीती की तरह कुछ कहना चहता हूँ। एक नौसिखिये की तरह कथागोई की इस चटसार में एक बार फिर आया हूँ। कई बार आया, निराश ही लौटा। इस बार भी फेल हो जाऊँ तो मेरी दिलजोई के लिए ही सही, यही कहना-गिरते हैं शहसवार मैदान-ए-जंग में...भले ही न उठ पाऊँ। गिरने पर अपने बाबा की तरह अपने आप से मैं यही कहता हूँ। मेरी आवाज़ में अनजाने उनकी आवाज़ आ मिलती है। वे अमीर थे, मैं गरीब हूँ। पर आवाज़ का क्या करूँ, आवाज़ आवाज़ होती है। अगर पार निकल जाऊँ तो खा़मोश रहना है। मैं वह चुहिया नहीं बनना चाहता जो हाथी के पाँव तले से दोस्त के द्वारा निकाले जाने पर बोली थी... कि तुमने मुझे क्यों निकाला, मैं तो कचकच पीठ दबवाऊँ थी।

माफ़ करना, यह लोककथाओं की अलौकिकता भरा आख्यान नहीं, रोजमर्रा का दुःख-सुख है, रोना-हँसना है। अलौकिकता बर्दाश्त हो जाती है पर दुःख-सुख ज़िन्दगी की सच्चाई होते हुए भी सहे नहीं जाते इसलिए गौरी-महेश मनाता हूँ। आपको...यानी आप ही हो मेरे गौरी-महेश....। दर्द महसूस हो तो तड़पना नहीं, हँसी छूटे तो हंसना नहीं। हँसोगे तो पात्र समझेंगे उन पर हँस रहे हो। तड़पोगे तो लगेगा वे ही दुःख का कारण बन गये। यह भी हो सकता है, कथानक की भ्रूण-हत्या हो जाए। फिर न कहने वाला बचेगा और न सुनने वाला। यही मनाओ, दोनों बने रहें। आप पहले। बूढ़ा हो रहा हूँ। कभी भी जा सकता हूँ। जब तक हूँ, बोलता रहूँगा। कहते हैं, बूढ़ों के गले में कुत्तों की हड्डी लगी होती है। दिल का ऑपरेशन हो चुका, गला ओरिजिनल है। अच्छा, बाकी कल।

 

इक आग का दरिया है

 

वह कल आज ही है मैं भी वायदे के अनुसार हाज़िर हूँ। तो सुनों !
बहुत दिन की बात है, ज़्यादा दिन भी नहीं हुए। इसलिए जहाँ तक होगा, ‘था’ का प्रयोग नहीं करूँगा। बदशकुनी अच्छी नहीं होगी। यही समझिए कि वे सब थे और आज भी हैं। पात्र कभी नहीं मरते। वह थी आज भी है। हाँ, जब तक लड़कियाँ अविवाहित रहती हैं, बेटी रहती हैं। विवाह होते ही स्त्री हो जाती हैं। वह बेटी थी। बेटी माँ-बाप की, ख़ासतौर से पिता की कमज़ोरी होती है। जब चाहे रूला दे, जब चाहे हँसा दे। मुझे नहीं मालूम कितनी बार उसने उन्हें रूलाया, कितनी बार हँसाया। उसके पिता भावुक नहीं थे। वैसे थे भी। बच्चों के मामले में पत्थर भी बहते हैं। समुद्र तक में भावुकता ज्वार बनकर उठती है, लहरों की तरह बिखर जाती है। यह तो याद नहीं, तब वह किस क्लास में थी। थी छोटी क्लास में ही। लेकिन उसके अन्दर एडवेंचर था। करो और देखो। ग़नीमत है उसने बम नहीं चलाया नहीं तो पता नहीं क्या-क्या टूटता, क्या-क्या बिखरता। लेकिन जिस घटना का ज़िक्र कर रहा हूं वह भी एक धमाका ही था। लड़कियों की ज़िन्दगी में लकीर की फ़कीर से हटकर हर कुछ धमाके में ही शुमार होता है। सब कुछ हिला, पर न कुछ गिरा और न टूटा। देर तक दिलों-सा काँपता रहा। काँपते रहना डराता है। गिरना ज़्यादा भयभीत नहीं करता। काँपा, गिरा और छुट्टी !

आज भी सोचकर दिल काँप जाता है। मेरा नहीं, सबका। मैं तो बाहरी ठहरा। दरअसल, यह भाव ही मिडिलची है। आशंका घटना नहीं होती, पर कँपाने के लिए वह काफ़ी होती है। सबसे पहले उसके पिता के पास फ़ोन आया था। पिता उन दिनों ऊँची कुर्सी पर बैठते थे। शायद ऊँची कुर्सी ज़्यादा कांपती है। नीचे खाई ऊपर आकाश। छोरहीनता भी डराती है। उस घटना के बाद तो कई बार भूकम्प आये, कई बार लगा-अब गिरा, अब टूटा। इतने झटकों के बाद भी कुछ एक कंगूरों के अलावा सब कुछ यथावत् रहा। कंगूरे इमारत की शोभा होते हैं। लेकिन सिर पर की छत में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। खैर, यह तफ़सील मेरे किस्से और क़िस्सागोई को बाधित कर रही है। हाँ, तो राजकुमारी का फ़ोन आया। लेकिन जब राजा होते थे तब फ़ोन नहीं होते थे। चूँकि यह कथा अभी की है इसलिए फ़ोन आया। ‘‘पापा, हमारे कुछ दोस्तों को आपकी सिक्योरिटी ने रोक लिया....आप कह दीजिए...।’’क्या कह दीजिए इसका कोई ज़िक्र नहीं था। आवाज़ की आर्द्रता भर थी। बाप का दिल, बेटी की आवाज़ की नमी और ऊँची कुर्सी की धमक। पिता ने फ़ोन स्वयं उठाया और तेज़ आवाज़ में कहा, ‘‘क्यों सिक्योरिटी अफ़सर साहब, मेरी बेटी ने बताया, आपने उसके दोस्तों को रोका हुआ है ?’’

‘‘जी, आपकी बेटी !’’ उसने आश्चर्य से दोहराया। फिर कहा, ‘‘मैं उन्हें छोड़ दे रहा हूँ, शाम को आकर मिलूँगा।’’
‘‘क्यों कोई खा़स बात है ?’’
‘‘जी नहीं, ऐसी कोई खा़स बात नहीं। बिटिया से बतियाऊँगा।’’
‘‘आपबीती या जगबीती ?’’
‘‘हम सब पर बीती।’’ माफ़ी माँगकर उसने रिसीवर रख दिया। पहले अफ़सर के सामने न कुछ रखने की हिम्मत होती थी न उठाने की। अब माफ़ीनामा बड़ा भारी कवच है। भला-बुरा सब माफ़ी के कवच तले सुरक्षित हो जाता है। पापा एक क्षण के लिए ऊँची कुर्सी पर बैठे होने के बावजूद काँप गये। हो न हो कुछ ऊँच-नीच हुई है। लोग बिस्तर पर करवटे बदलते हैं। इस काम के लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्सी छोटी पड़ जाती है। कुर्सी पर करवट बदलते-बदलते भी उनकी बेचैनी बढ़ती गयी। उन्होंने करवट बदलते-बदलते कई बार घर फ़ोन से पूछा,

‘‘उमा आयी या नहीं आयी ?’’ बेटी का नाम उमा था। जितनी बार बेटी का नाम उच्चारा, उतनी बार रक्तचाप बढ़ता महसूस हुआ। पिता ने अपने आपको बहलाया। यह रक्तचाप नहीं बदहज़मी है। तभी एक मातहत ने प्रवेश किया। उसने साहब को हिलते-डुलते देखकर पूछा, ‘‘सर, तबीयत तो ठीक है ?’’
‘‘लगता है बदहज़मी है।’’
‘‘लगता है खाने के साथ कोई गरिष्ठ चीज़ पेट में चली गयी। कुर्सी पर बैठे-बैठे हम लोगों की आदतों की तरह हाज़मा भी खराब हो जाता है। आप तो बड़े लोग हैं, हम छोटे लोगों की आदत तो और भी खराब है। खाना तो खाना, बात तक हज़म नहीं होती। बातें शायद गरिष्ठ होती हों,।’’ उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह आदमी क्या लमतरानी हाँक रहा है। हमसे बराबरी करना चाहता है लेकिन कुछ बोले नहीं। तभी फ़ोन की घंटी बजी। घर से आया था कि बिटिया आ गयी। उन्हें एकाएक लगने लगा कि उनके अन्दर बेटी के बारे में जानने की उत्सुकता ज़मीन से फूटते सोते की तरह झाग उठा रही है। उन्होंने सामने वाले मातहत से पूछा, ‘‘कोई खास बात है ?’’

‘‘कोई ख़ास नहीं।’’ लेकिन तुरन्त ही बग़ल में दबी फा़इल खोलने लगा। उसके मुँह से दबा हुआ उफ़् निकला। दरअसल उन्होंने लख लिया था। अगर मुग़लों का ज़माना होता तो तखलिया लब्ज़ ही मन्त्र का काम करता। अब कहने का मतलब होता आधा घंटा तख़लिया का मतलब समझाओं। बेहतर यही समझा, घर की राह पकड़ो। उन्होंने सॉरी की मुद्रा बनायी और उठ गये। घर कैम्पस में ही था।
उमा अपने कमरे में चली गयी थी। माँ-बेटी के बीच तनाव के चिह्न नज़र आ रहे थे। उमा की मां खामोश थीं। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘आखिर ?’’
‘‘अपनी बेटी से ही पूछो।’’ तमककर बोलीं, ‘‘कह रही थी, ऐसा कुछ नहीं। सिक्योरटी वालों ने अपनी जान बचाने के लिए पता नहीं पापा से क्या-क्या कहा है।’’
‘‘हूँ !’’

वे ऊपर जाने लगे तो उमा की ममी ने रोक दिया, ‘‘अभी रहने दो, परेशान और थकी हुई है।’’ वे शशोपंज में पड़ गये। उनकी परेशानी अन्दर-ही-अन्दर बढ़ रही थी। पहले वे सोफ़े पर बैठे रूख़ बदलते रहे, फिर उठकर टहलने लगे। पता नहीं शाम को आकर सिक्योरिटी अफ़सर क्या बात करेगा ? कौन लोग थे जिनके बारे में रानी ने फ़ोन किया था ? दरअसल, उमा का घर का नाम रानी था। पर अब रानी का इस्तेमाल कम करते थे। इतनी देर वह क्यों उनके साथ थी ? जब उनसे रहा नहीं गया तो वह ज़ीना चढ़ने लगे मन में अनेक आशंकाएँ आ-जा रही थीं। यहाँ तक कि जी़ना चढ़ते हुए टाँगों में हल्की-सी थरथराहट महसूस हो रही थी। ऊपर पहुँच कर पापा दो-तीन मिनट असमंजस की स्थिति में खड़े रहे। ऐसा तभी होता है जब बॉस अचानक बुला लेता है। एक मिनट को सोचना पड़ता है कि आख़िर क्यों बुलाया। बॉस एक अविश्वसनीय प्राणी है। हालाँकि उसके पिता स्वयं बड़े बॉस थे। पता नहीं यह बात वे अपने बारे में भी सोचते थे या नहीं। अपने आप चाहे इन्सान कितना भी बड़ा बॉस क्यों न हो, उसका अपना बॉस उसके लिए आतंक का छोटा-मोटा पर्याय तो होता ही है। बेटी के साथ ऐसा कुछ नहीं था पर बहुत-सी अनबूझी आशंकाओं ने कुछ-कुछ वैसी स्थिति बना दी थी। उन्होंने थरथराते हाथों से कमरे का दरवाजा खटखटाया। एक, दो, तीन...बार नॉक करने के बाद दरवाज़ा खुला। उमा के चेहरे पर भी घबराहट थी।

उसके मुँह से स्वतः निकल गया, ‘‘पापा आप !’’ इतना मुर्झाया चेहरा उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। वे बोले, ‘‘लगता है तुम परेशान हो ?’’
वह चुप रही।
‘‘ठीक है तुम आराम करो, मैं तो तुम्हें देखने चला आया था। दरअसल, जब तुमने फोन किया था तो तुम्हारी आवाज़ घबराई हुई थी।’’ वे कुछ देर रुके बिना धीरे-धीरे ज़ीने से उतर गये। वह चुपचाप उनका उतरना सुनती रही। उनका उतरना उसे परेशान कर रहा था जैसे वह उसकी मर्जी़ के ख़िलाफ़ हो रहा हो। वह उन्हें रोकना चाह रही हो पर रोक न पा रही हो। और कोई मौका होता तो वह उनका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले जाती। चलिए पापा, मेरे साथ बैठिए। लेकिन उसे यही लगा कि उसके हाथ-पैर-स्वतः बँध गये हैं। वास्तव में सिक्योरिटी अफ़सर ने उसके सामने ही उसके पापा से स्वयं शाम को आने के लिए कहा था। वह झुझलाते हुए बड़बड़ायी, ‘‘आता है तो आए। क्या कर लेगा ?’’
नीचे आने पर माँ ने पूछा ‘‘क्या कहा ?’’

‘‘तुम्हारी बात ठीक थी, वह थकी हुई है। इसलिए मैंने ही कुछ नहीं पूछा। सोचा आराम कर रही है तो करने देना चाहिए।’’ वे कुछ देर टहलते रहे। फिर दफ़्तर चले गये।
माँ की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उसने क्यों कहा कि सिक्योरिटी अफ़सर ने झूठ बोला ? उसके पापा आये, ऊपर उसके कमरे में गये और बिना बात किये चले गये। वह जानती थी अगर वह स्वयं बेटी से बात करेगी तो क्या मिलेगा, एक अटूट चुप्पी। ऐसे में वह चुप हो जाती है। वैसे खूब बोलती है। वह बोलकर अपने को हल्का करने में विश्वास करती थी। कई बार रो भी लेती थी। हालाँकि वे हमेशा यह कहती थीं कि रोना महिलाओं को कमजो़र करता है।

उस दिन शाम को सिक्योरिटी अफ़सर स्वयं कहकर भी नहीं आया। घर में सबको अपनी तरह उसके आने का इन्तजार था। उमा टहलते-टहलते रुक जाती थी। उसे लगता था सिक्योरिटी अफ़सर के क़दमों की आहट सुन रही है। पिता अपनी स्टडी में थे। इसी बीच उन्होंने अपने स्टेनो को दो-तीन डिक्टेशन दे दिये थे। वे चाहते थे सिक्योरिटी अफ़सर के आने तक स्टेनो बना रहे। हो सकता हो उसकी ज़रूरत पड़े। और कुछ नहीं तो वह उन्हें उनकी स्टडी में तो ले ही आएगा। माँ रसोई में बर्तनों को इधर-उधर उलटते-पलटते हुए उनका इन्तजार कर रही थी। कान उधर ही लगे थे। क़रीब नौ बजे उन्होंने अपने स्टेनो से कहा, ‘‘पूछो, सिक्योरिटी अफ़सर आ रहे हैं या नहीं। नहीं आना हो तो सब अपने-अपने काम में लगें।’’ शायद वे समझ रहे थे, सब उसी के इन्तज़ार में हैं।

हालाँकि सिक्योरिटी अफ़सर का आना सामान्य रूप से कोई खा़स मायने नहीं रखता था। कई बार आता था तो व्यस्तता का बहाना उन्हें उससे मिलने की तवालत से बचा लेता था। इस बार उमा वाली घटना ने उसे विशिष्ट अतिथि का दर्जा दे दिया था। फ़ोन करने पर पता चला कि सबसे बड़े साहब ने उसे कहीं भेजा हुआ है। इस बात पर वे तिलमिला गये। कहकर नहीं जा सकता था। लाट साहब समझता है। स्टेनो क्या जवाब देता वह इतना ही कह सकता था कि अगले दिन सबसे पहले अपने साहब की नारज़गी की बात उस तक पहुँचा दे। लेकिन उन्होंने उसका यह दरवाज़ा भी यह कहकर बन्द कर दिया था कि वह उसे कुछ नहीं बताएगा कि वहाँ क्या बात हुई।

इस बात से उमा को राहत मिलती थी। उसका तनाव भरा शरीर ढीला पड़ गया था। कमर सीधी हो गई थी। लेकिन माता-पिता की रस्सी और तन गई थी। अगले दिन तक इन्तज़ार करना उनकी मज़बूरी हो गई थी। उमा के माता-पिता अपनी तरह सोचने के लिए मज़बूर थे। सोचने का दायरा वसी होता जा रहा था। ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है जिसकी वजह से सिक्योरिटी अफ़सर ने टेलीफ़ोन पर न बता कर खुद आने को कहा है हो सकता है टाल रहा हो। रात को वे लोग बिना बतियाये भी अपने आप से बात करते सोये।
सवेरे उमा स्कूल जाने की तैयारी में थी। ममी ने पिता की तरफ़ सवालिया नज़र से देखा। क्या करना है। ? उन्होंने गर्दन हिला दी। ममी ने उमा से कहा, ‘‘मैं समझती हूँ आज स्कूल की छुट्टी कर दो।’’
‘‘आज तो ज़रूरी क्लास है ।’’

‘‘कोई बात नहीं सिक्योरिटी अफ़सर से पापा की बात हो जाए तो चली जाना। हम नहीं चाहते कि वह बिला वजह इधर-उधर बकता घूमे।’’ उसने पापा की ओर मदद के लिए देखा लेकिन पापा पहली बार माँ के पाले में खड़े थे। वह बोली, ‘‘लेकिन पापा...’’
वे निरपेक्षता के साथ बोले, ‘‘लेकिन पापा क्या...बात समझने की कोशिश करो। जब तक बात साफ नहीं होगी कि वे लोग कौन थे, तुम्हारे साथ क्यों आये और उन्हें क्यों रोका गया, तुम वहाँ कैसे पहुँची, तब तक तुम घर पर ही रहोगी। यह कैम्पस है। दस तरह की बातें फैलें, यह मैं नहीं चाहता।’’ पापा ने जिस सख्ती से कहा था उमा ने ख़ामोश रहना उचित समझा। हालाँकि वह कुछ कहना चाहती थी। पिता बोले, ‘‘तुम्हारी बात भी सुनी जाएगी, पहले मैं एस. ओ. का पक्ष जान लूँ।’’ सिक्योरिटी अफ़सर को सब एस.ओ. ही कहते थे। वह हिम्मत करके बोली, ‘‘पापा, यह ज़रूरी नहीं कि वह आपके सामने सही बात ही बोले। आपके डर से वह गलत भी बोल सकता है।’’
‘‘वह तो तुम भी कर सकती हो। डर तो दोनों तरफ़ है। उसका मैं बॉस हूँ और तुम्हारा पिता।’’ बात वहीं खत्म हो गयी। पापा दफ़्तर चले गये। उमा के चेहरे पर परेशानी थी। उसकी समझ में और तो कुछ नहीं आया, माँ से चिपट गयी, ‘‘पापा मुझ पर यक़ीन क्यों नहीं करते ?’’

‘‘यक़ीन सच्चाई से पैदा होता है। तुम बता रही थी कि तुम्हारे स्कूल में वायरस ने कम्प्यूटर की सब फ़ाइलें साफ़ कर दीं। ज़िन्दगी का वायरस झूठ है। झूठ सच को चाट जाता है। तुम सच बताकर पापा के यक़ीन की रक्षा कर सकती थी।’’
‘‘मौक़ा ही कहाँ मिला !’’
‘‘रात गुज़र गयी, तुम मुझे या पापा को बता नहीं सकती थीं ?’’
उमा सुबकने लगी। ममी को समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी परेशान क्यों है। उन्होंने उसे समझाना चाहा। सीने से लगाया। उसका रोना जारी था। बताना चाह रही थी, बता नहीं पा रही थी। जैसे बात पकड़ में आते-आते, बार-बार पकड़ से फिसल जाती हो।
सिक्योरिटी अफ़सर पहले दिन न आ पाने के लिए माफ़ी माँगने साहब के दफ़्तर आया था। वे उतने ही परेशान थे जितने पहले दिन थे। उन्होंने न चाहते हुए भी अपनी साहबी के चलते उसे पहले तो कुछ देर इन्तज़ार कराया फिर एकाएक उन्हें न जाने क्या सूझा कि अन्दर बुलवा लिया। शायद उन्हें लगा हो कि कहीं वह चलता न बने। हालाँकि उसके लिए क्या, किसी के लिए भी अपने अफ़सर के पास पर्ची भेजने के बाद बिना मिले जाना मुश्किल होता है। अन्दर जाने पर पहले तो उसके प्रति सहब का व्यवहार वैसा ही था जैसे पहले रहता था, जब वह अपने काम से उनके पास जाया करता था।
‘‘कहिए...।’’

‘‘जी...’’ वह एकाएक कुछ कह नहीं पाया। ‘कहिए’ कहने के ढंग से उसे लगा था साहब नाराज़ हैं। तरीके और शब्दों के उच्चारण से सन्दर्भ बदल जाते हैं। उसने अपने आप ही वाक़या बयान करना शुरू कर दिया। जैसे रेस में दौड़ रहा हो। वे बीच में टोककर बोले, ‘‘अगर तुम्हें बड़े साहब ने भेजा था तो जाने से पहले फ़ोन कर सकते थे।’’ जब उसने देखा बात इतने पर टूट रही है तो उसने तत्काल माफ़ी माँग ली। साथ ही यह भी जोड़ दिया, ‘‘दरअसल, जब साहब ने भेजा तो वे सामने ही खड़े थे। मैं धर्मसंकट में पड़ गया था। फ़ोन करता और वे पूछ लेते-क्या बात है तो मामला नाजु़क हो जाता। बताते बनता न छिपाते।’’ अफ़सरों के लिए बात व्यक्ति से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होती है। बात बचाती भी है और मारती भी है। बात जम गई थी। साहब का चेहरा नर्म पड़कर सिकुड़ गया था। बॉस का चेहरा सिकुड़कर छोटा पड़ जाता है, कारण चाहे कुछ भी हो, तो मातहत को सातवाँ आसमान सिद्ध हो जाता है।
‘‘चलिए जो हुआ सो हुआ।’’ बॉस ने हथियार डालते-डालते भी एक वाक्य टप्प से जोड़ दिया, ‘‘फिर भी ऐसे में सूचित कर देना अच्छा रहता है।’’ उसने जी कहा और चुप लगा गया। उन्हीं को पूछना पड़ा, ‘‘तुम कल कोई ख़ास बात बताना चाहते थे ?’’

एक क्षण चुप बना रहा बॉस का चेहरा उत्सुकता से भर गया। वह जैसे अपने को साधकर बोला, ‘‘सर क्या बताऊँ, कल बेबी के साथ दो बाहरी लड़के थे।’’ कहकर वह चुप हो गया। उनकी बेचैनी कूदकर बाहर आ गयी। इससे पहले वे कुछ कहते, वह बोला, ‘‘बड़बाग में खा-पी रहे थे। मुझे मालूम नहीं था अपनी ही बच्ची है। खाने-पीने की तो कोई बात नहीं थी। बच्चें हैं तो खाएँ-पिएँगे भी। मैं राउंड पर था। मुझे उन लड़कों के हाव-भाव कुछ ठीक नहीं लगे। मैंने आड़ से देखा तो मुझे महसूस हुआ कि ये शहरी शरीफ़ज़ादे हमारे बच्चों को बरगलाते हैं। मैंने उनसे पूछताछ की तो बेबी घबरा गयी और रोने लगी...।’’
‘‘कोई ख़ास बात...यानी ?’’
उस सवाल को टालकर अपनी बात जारी रखी, ‘‘सर, मैं उन्हें ऑफ़िस ले गया, बेबी भी साथ गयी। जब बेबी ने कहा कि मैं अपने पापा को फ़ोन करना चाहती हूँ। मेरे पूछने पर बेबी ने आपके बारे में बताया। आप से बात होने पर मैंने उन्हें वार्निंग देकर छोड़ दिया...फिर कभी आसपास दिखाई दिये तो अपाहिज बनाकर घर भेजूँगा। किसी नये पैसे वाले की औलाद थे। सर, ये लोग समझते हैं कि सब कुछ पैसे से खरीदा जा सकता है।’’ अब वह बॉस को भाषण पिलाने के मूड में आ रहा था। वह अहसान लादने की मुद्रा में बोला, ‘‘सर, वह तो मैं पहुँच गया...’’

पहले वाक्य अधूरा छोड़ दिया फिर आगे कहा, ‘‘मैंने सोचा बेबी को जाकर स्वयं समझाऊँगा। कल ऐसा फँस गया कि वायदा करके भी नहीं पहुँच पाया। अगर बेबी का मामला न होता तो सच कहता हूँ ऐसी तुड़ाई करवाता कि एय्याशी पीछे के रास्ते से निकल जाती।’’ वह जो कह रहा था साहब गर्दन नीचे किये ग़ौर से सुन रहे थे। जितनी बार उन्होंने उसे डाँटा या उसे भाषण दिया होगा, वह उस सबकी भरपाई कर लेना चाहता था। वे न चाहकर भी चुप थे। वह बोला, ‘‘आप ज़रा भी फ़िक्र न करें अब उनकी हिम्मत यहाँ क़दम रखने की नहीं होगी। आप बेबी को समझा ज़रूर दें। हालाँकि मां-बाप के लिए बड़े होते बच्चों को समझाना मुश्किल होता है। मेम साहब समझा देंगी, नहीं तो मैं आकर समझा दूँगा।’’ उन्होंने इस बार उसकी तरफ देखा। उनकी नज़रों से लगा, वे कहना चाह रहे हों, अपनी सीमा में रहो। बहुत हो चुका। उन्होंने सिर्फ़ एक शब्द कहा, ‘‘थैंक्स...’’। वह चौंक-सा गया। झटके से उठा और सैल्यूट करके बोला, ‘‘सॉरी सर...।’’
वे बोले, ‘‘मैं जानता हूँ कि दूसरे की परेशानी को लोग लाइटली लेते हैं। लेकिन कई बार लाइटली लेना भारी पड़ जाता है।’’ बॉस का सन्देश उसके अन्दर तक उतर गया था। उसे कम्पन महसूस हुआ। धीरे से बोला, ‘‘जी।’’

बॉस ने खड़े होकर हाथ मिलाया। शायद यह इस बत का सन्देश था कि-तुम ठीक रहोगे तो हम भी ठीक रहेंगे। थैंक्स कहना भी नहीं भूले। सिक्योरिटी अफ़सर आते समय जितना खु़श था, जाते समय उतना ही उदास और परेशान था। उसके दिमाग़ में लेखकों वाला सवाल था क्या उसे ‘एडिट’ करके बताना चाहिए था ? उसे बचपन में सुनी कहानी याद आ गयी। एक राजा के सिर पर सींग था। नाई ने उसे बाल काटते समय देख लिया। वह समझा राजा के सींग होता होगा। राजा जो ठहरा। राजा समझ गया कि उसने सींग देख लिया है। नाई चालाक था। बाल बनवाने के बाद राजा ने पहले तो एक अशर्फी़ दी फिर उसका उस्तरा उठाकर पूछा, ‘‘उस्तरे की धार तेरी गर्दन पर देखूँ या ज़बान पर ?’’

नाई ताड़ गया। जान गयी या ज़बान गयी। वह बोला, ‘‘महाराज उस्तरा तो जहाँ रखा जाएगा वहीं अपना काम करेगा। अगर मैं अपनी ज़बान काटकर महाराज की नज़र कर दूँ तो जान बक्शी जाएगी।’’
‘‘वह कैसे ?’’
‘‘मालिक, हारी ज़बान कटे से भी बदतर। जुए में हारी पाँच पांडवों की द्रौपदी अगर कौरवों के हाथ चढ़ सकती है तो सरकार, क्या नाई की जबान राजा की नहीं हो सकती। यकीन न हो तो उस्तरा मालिक के हाथ में है। ज़बान कटेगी तो बात बची रहेगी। गर्दन कटेगी तो बात खुलेगी।’’
राजा सोच में पड़ गया। रूककर बोला, ‘‘कल फ़ैसला देंगे। वैसे तुम्हारी ज़बान काटकर ख़ज़ाने में जमा करना बेहतर होगा।’’
नाई इस बात से खुश हुआ। जान बची तो लाखों पाये। आयी बला फ़िलहाल टली। यह डर बना था राजाओं के कॉल फ़ेल का क्या ऐतबार ! सवेरे उठें और जल्लाद को तैनात कर दें कि जाओ नाई का सिर उतार लाओ। बेटी तो छठे-छमास लौट भी आए पर मुंह से निकली बात नहीं लौटती। लेकिन इस सबकी पृष्ठभूमि में सिक्योरिटी अफ़सर के मन में यह बात चल रही थी कि राजाओं और जल्लादों के दिन बिदा हुए। राजा रूठेगा आपकी नौकरी लेगा। लेकिन नौकरी की सुरक्षा की बात जूते में निकली कील की तरह चुभती रहती है। हाव-भाव की तह में मन के जख्म भले ही छुप जाएँ पर टीसते हरदम हैं।


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