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उपन्यास >> अनित्य

अनित्य

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :262
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 86
आईएसबीएन :9788126723010

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स्वतंत्रता आंदोलन के अहिंसात्मक और क्रांतिकारी, दोनों रूपों की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास ‘अनित्य’

Anitya by Mridula Garg

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

"अनित्य" प्रतिबोध तक पढ़ा है। "अविजित" जैसा, सभ्य शिष्ट जीवन का सही सांगोपांग चित्र शायद ही कहीं और मिले।

 

जैनेन्द्र

 

याद रही किताबों में सबसे पहला नाम लेना चाहूँगा मृदुला गर्ग के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यास "अनित्य" का। केन्द्रीय बिम्ब है उसका पहाड़ों में उगा लम्बा शानदार देवदारु जो धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा है और एक दिन जड़ से उखड़कर गिर पड़ता है। देवदारु प्रतीक है उस संस्कारवान व्यक्तित्व का जो राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान उभरा था। वह समझौतो के खिलाफ था। लेकिन इन समझौतावादियों की जो कुटिल दोमुंही संस्कृति आजादी पाने के बाद उभरी, उसने धीरे-धीरे उन क्रान्तिकारी मूल्यों को छिन्न-भिन्न कर दिया, जिनता प्रतीक भगतसिंह का "इंकलाब जिंदाबाद" था। इस सारी प्रक्रिया को एक मध्यवर्गीय परिवार की कथा में पिरोकर मृदुला गर्ग ने जितने मार्मिक, प्रामाणिक और कलात्मक ढंग से अपने इस उपन्यास में रखा है, वह सचमुच बहुत प्रभावशाली है।

 

-धर्मवीर भारती

 

"अनित्य" सचमुच अनित्य है। क्या कथाशिल्प है, भूत को वर्तमान में लाकर कैसे हमारा बनाया जाता है, यह मंत्र दिया है। "दुविधा" से भी आगे "प्रतिशोध" और सशक्त है। कथा में विचार कैसे किस रंग और अनुपात में आता है, यह अविस्मरणीय रहेगा।

 

-लक्ष्मी नारायण लाल

 

मृदुला का लेखन परम्परावादी नहीं है। जितना सशक्त लेखन मृदुला ने किया है, हिन्दी में वैसा लेखन कोई नहीं कर रहा। बहुत अद्भुत लेखन है, अपने ढंग का एकदम अकेला। "अनित्य" के सभी पात्र मेरे परिचित होने पर भी अपरिचित लगते हैं। यूँ तो पूरा मध्यवर्गीय परिवेश है मगर पात्र स्टारियोटिपिकल नहीं है। वे ऐसे लिखती हैं, तटस्थ भाव से, कहीं जजमेंटल नहीं हैं, कोई निर्णय नहीं देतीं, नैतिकता का प्रश्न नहीं उठातीं। इतना काजुअल स्टाइल है कि वैसे लिखती हैं जैसे बोल रही हों।

 

मनोहर श्याम जोशी
अनित्य आज के समाज की दुविधा-जड़ मानसिकता की पड़ताल

अंग्रेजों ने भारत की राजनैतिक स्तर पर गुलाम रखने के लिए यहां की संस्कृति के स्वाभाविक व्यवहार-तर्क को कुंठित कर दिया। जहां तलवार चलनी चाहिए थी, सिर्फ जबान चली। अन्याय की प्रतिक्रिया में उठते क्रोध को वापस निगलना सभ्य होने का लक्षण माना गया। पूरा देश निर्णय लेने की शक्ति और विवेक खो बैठा और व्यक्ति अपने स्वधर्म की समझ।

बड़ा उद्देश्य हाथ से छूट जाये तो व्यक्ति छोटे उद्देश्य को ही जीवन सौंप देता है। रह रह कर समझौते करता है और उसका व्यक्तित्व गिरता चला जाता है। पर उसका ज़मीर, अगर पूरी तरह मरा न हो तो? अपनी तरह के और लोगों को देख संतोष हो तो? इस तरह के व्यक्तियों से बना समाज दुविधा-जड़ हो जाये तो? “उस समाज की नयी पीढ़ी कैसी होगी? मानसिक रूप से मंद और बोलने में तुतलाने वाली?“

अनित्य आंतरिक वेदना से आपूर्त एक ऐसा उपन्यास, जो जानता है कि स्थिर कुछ नहीं है, सब कुछ बदलता रहता है। यथार्थ को उसके सभी आयामों में देखना होता है। न इतिहास को झुठलाया जा सकता है, न परिवर्तनशीलता को नकारा जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन के अहिंसात्मक और क्रांतिकारी, दोनों रूपों की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास ‘अनित्य', पिछले पचास सालों के निरंतर ह्रासोन्मुख समाज की कहानी कहता है, और अपने पात्रों की सजग चेतना और पीड़ा की भी।

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