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वे आँखें

विमल मित्र

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8672
आईएसबीएन :0

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वे आंखें पुस्तक का आई पैड संस्करण...

Ve Aankhen

आई पैड संस्करण

कहानी कहने के तौर-तरीके कितने ही प्रकार के हैं। तमाम लेखकों की कहानियाँ जिस तरह एक ही तरह की नहीं होतीं, उसी तरह सबके लेखन की पद्धतियाँ अलग-अलग तरह की होती हैं। चूँकि सबके लेखन के तौर-तरीके अलग-अलग तरह के होते हैं, इसलिए साहित्य का इतिहास भी इतनी विचित्रताओं से भरा है। लेखक जिस तरह अलग-अलग प्रकार के होते हैं। तरह–तरह के पाठकों की तरह-तरह की रुचियों के कारण ही साहित्य में इतनी विचित्रताएं मिलती हैं। यही वजह है कि साहित्य की दुनिया कभी पुरानी नहीं पड़ती।

यह सब मेरी नहीं, बल्कि अविनाशदा की बातें हैं। बचपन में जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो अविनाशदा मेरे पड़ोसी मित्र कार्तिक को पढ़ाने आया करते थे। मैं बीच-बीच में वहाँ जाकर बैठा करता था और पढ़ने-पढ़ाने के बीच जो समय मिलता, उनसे बातचीत करता था। बातचीत करने का कारण यही था कि अविनाशदा भी पढ़ते-लिखते रहते थे।
अविनाशदा के पास कविता की एक कापी थी। कार्तिक को पढ़ाना जब खत्म हो जाता तो हम कहते थे, ‘‘एकाध कविता सुनाइए, अविनाशदा।’’

हम कविता सुनना चाहते तो अविनाशदा बहुत ही खुश होते थे। कहते, ‘‘सुनना चाहते हो ?’’
‘‘हाँ-हाँ, सुनना जरूर चाहते हैं।’’ मैं कहता।
उस समय अविनाशदा बैग से कविता की कापी बाहर निकलते थे। चौड़ी-मढ़ी हुई कापी। बड़े-बड़े अक्षरों में एक-एक कविता सजी हुई। अविनाशदा कापी का पन्ना उलट भक्ति-भाव के साथ कविता-पाठ करते थे। हम भी उसी तरह बैठे रहते जैसे देवता के सामने बैठे हुए हों।

जब कविता का पाठ कर लेते तो मैं कहता, ‘‘एक और कविता सुनाइए, अविनाशदा।’’
अविनाशदा को और भी अधिक प्रसन्नता होती। वे फिर सस्वर पाठ करने लगते।
उसके बाद वे एक-एक कविता का पाठ करते जाते और बीच-बीच में हम लोगों की ओर ताक लिया करते थे। हमारे चेहरे की भंगिमा का निरीक्षण करते थे। यानी वे जानना चाहते थे कि हमें उनकी कविता कैसी लगी।
हम दोनों ही एक साथ कहते, ‘‘बहुत ही अच्छी।’’

अविनाशदा कहते, ‘‘तुम लोग भी लिखने का कोशिश करो। लिखना कोई खास कठिन नहीं है। थोड़ी-सी कोशिश करोगे तो लिख लेना आसान है। अगर कोई गलती होगी तो मैं सुधार दूँगा।’’
अविनाशदा हमें अत्यन्त स्नेह की दृष्टि से देखा करते थे। कहते, ‘‘दुनिया में जितने भी आदमी हैं, कवि ही उनके बीच सर्वश्रेष्ठ हुआ करते हैं। जो कविता का रसस्वादन नहीं कर पाता वह आदमी है ही नहीं, वह आदमी की हत्या कर सकता है।’’

अविनाशदा के कहे अनुसार मैंने एक कापी मढ़वा ली थी। कापी के ऊपर सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिखा लिया था। दो-चार कविताएँ भी लिखी थीं। मगर अविनाशदा को दिखाने में एक तरह की लाज धर दबा लेती थी। पहली बार कविता पढ़ने के बाद सोचा था, अविनाशदा मुँह बनाने लगेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि अविनाशदा ने कहा, ‘‘अच्छी ही है, लिखते जाओ। सफलता जरूर हासिल होगी।’’

अविनाशदा मुझे इतना प्रोत्साहित करेंगे, शुरू में यह बात समझा ही नहीं था। छुटपन में ज्यादातर आदमी निरुत्साहित ही करते हैं और हर काम में अड़चन डालते हैं। उन लोगों को छोटे बच्चों के हर काम में अन्याय ही अन्याय दिखायी पड़ता है। लेकिन मेरी तकदीर अच्छी थी कि मैं अविनाशदा जैसे अदमी के संसर्ग में आया था।

आज इतने दिनों के बाद अविनाशदा के बारे में सोचने पर लगता है कि वे अविनाशदा कहाँ चले गये। अविनाशदा की वैसी परिणति न होती तो विधाता की मनोकामना क्या पूरी होती ?

कहानी शुरु से ही बता रहा हूँ।
इस दुनिया में भी आदमी छाती पर हाथ रखकर यह नहीं कह सकता कि मैं सुखी हूँ। ‘सुख’ नामक चीज दरअसल मन की गलती है। जो आदमी कहता है, वह सुखी है, वह या तो झूठ कहता है या समस्त बोध-शक्ति से रहित है। आदमी के इसी बोध पर संभवतः उसका सुख-दुःख निर्भर करता है।

पड़ोस के कार्तिक के मास्टर साहब से परिचित होने की जरूरत ही क्या थी ? छुटपन में जीवन का कोई अर्थ समझ में नहीं आता है, इसीलिए हर कोई अच्छा लगता है, सभी को प्यार करने की इच्छा होती है। लगता है, इसी वजह से उन दिनों मैं अविनाशदा को प्रेम की दृष्टि से देखा करता था।
बाद में अविनाशदा कार्तिक के बनिस्बत मुझे ही ज्यादा प्यार करने लगे।
अविनाशदा कहते, ‘‘अच्छा लिखने पर पैसा नहीं कमा पाओगे भाई।’’
‘‘मुझे रुपये की जरूरत नहीं, मैं सिर्फ लिखना चाहता हूँ।’’ मैं कहता।’’
‘‘वाह, बहुत ही अच्छी बात है !’’

उसके बाद जरा रुक कर कहते, ‘‘पैसे से ज्यादा नफरत मत करना दुनिया में अच्छी तरह जीवन जीने के लिए पैसे की भी जरूरत पड़ती है। इसीलिए पैसा-कौड़ी तिरस्कार की वस्तु नहीं है। उस तरफ भी जरा ध्यान रखना।’’
अविनाशदा मुझे बहुत-कुछ समझाते थे। कहते, ‘यही लो न, मैं कवि हूँ, लेकिन मुझे घर-घर जाकर ट्यूशन करना पड़ता है। क्यों ? पैसे के लिए ! इस पैसे के चलते ही दुनिया में इतनी अशान्ति है।’’
अविनाशदा की बातें सुन मुझे वास्तव में बहुत दुःख होता था। इतनी अच्छी कविताएँ लिखते हैं परन्तु जिस समय उन्हें कविता लिखनी चाहिए उस समय उन्हें ट्यूशन करना पड़ता है। अच्छे कपड़े-लत्ते खरीदने लायक पैसे भी उनके पास नहीं रहते हैं। उन दिनों अगर मेरे पास रुपया-पैसा होता तो मैं अविनाशदा को ढेर सारा रुपया-पैसा दे देता ताकि अविनाशदा को टूयशन न करना पड़े।

लेकिन मेरी इच्छा की कीमत क्या थी ? कौन तब मेरी इच्छा पर ध्यान देता ? मुझमें ही कौन-सी वैसी सामर्थ्य थी ? मैं खुद भी उन दिनों पराधीन था। मन ही मन ही सोचता कि मैं भी अविनाशदा की तरह कवि बनूँगा। दुनिया में कितनी ही तरह के पेशे हैं। कोई डॉक्टर बनता है, कोई वकील। कोई बैरिस्टर तो कोई व्यवसायी। कविता लिखने का धंधा है ही नहीं। आम लोगों की निगाह में कविता लिखना पागलपन है। उसे न तो रुपया-पैसा मिलता है और न ही ख्याति की प्राप्ति होती है। इतने धंधों के रहने के बावजूद मेरा मन क्यों कविता की ओर खिंचा था, कौन जाने ! मुझे पता था, यथार्थ की दुनिया में कविता की कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन फिर भी कविता में मुझे जैसे एक प्रकार का आनन्द मिलता था और यह आनन्द क्यों मिलता था, यह बात मैं किसी को समझाकर नहीं कह पाता था। या अगर समझाता भी तो कोई समझ नहीं सकता।

कार्तिक को पढ़ाने के बाद अविनाश बाबू जब डोरे की ओर रवाना होते तो अक्सर मैं उनके साथ रहता था। सड़क पर चलते हुए हम कविता के बारे में चर्चा-परिचर्चा करते। उस समय हम दोनों इस शहर, इस अशान्ति और लोगों की तरह इस भीड़-भाड़ को भूल जाते। लगता, कविता के अतिरिक्त इस दुनिया में किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। जीवन के लिए कविता ही एक मात्र सत्य तथ्य है।
हम चहल-कदमी करते हुए बहुत दूर निकल जाते। किसी –किसी दिन गंगा के बिलकुल निकट। गंगा के घाट पर जाकर बैठ जाते। वहाँ बैठकर गप करते-करते ध्यान ही नहीं रहता कि वक्त कैसे बीतता जा रहा है। जब बात ध्यान में आती तो रात के बारह बज चुके होते थे।
अविनाशदा चौंक पड़ते थे। कहते, ‘‘लो, इतनी रात हो गयी, सभी खा-पीकर सो चुके होंगे।’’

अविनाशदा मेस में रहते थे। मेस पुराना था। अविनाशदा के बड़े भाई दिल्ली में मोटी तनख्वाह की नौकरी पर थे। वे अपने छोटे भाई के रहने, खाने और पढ़ने का खर्च भेजते थे। उसी खर्च से अविनाशदा निर्वाह करते थे।

मेस का खर्च उन दिनों साधारण ही था। तीस रुपये माहवार में अविनाशदा का सारा खर्च चल जाता था। अलग से जो खर्च होता था, उसके लिए उन्हें ट्यूशन करना पड़ता था।
एक दिन मैंने अविनाशदा से पूछा था, ‘‘आप जब बी.ए. पास कर लीजिएगा तब क्या कीजिएगा, अविनाशदा ? उस समय आपके भैया क्या पैसा भेजेंगे ?’’

अविनाशदा कहते, ‘‘तब क्या होगा, अभी मैं उसके बारे में सोच नहीं पाता। तब कोई नौकरी कर लूँगा।’’

उन दिनों नौकरी मिलना उतना आसान नहीं था। यह बात अविनाशदा और मुझे दोनों को मालूम थी। अविनाशदा के मेस में जाने पर देखा था, वहाँ की हालत अत्यन्त शोचनीय है, दीवारें टूट गई हैं, सीढ़ियों की भी वैसी ही हालत है और छत से पानी टपकता है। वैसी स्थिति में एक ही कमरे में दो आदमी रहते हैं। फर्श पर बिस्तरों की कतार लगी रहती है। कोई दुकानदार है तो कोई बेकार, कोई छात्र है तो कोई वीकल-पैसेंजर। सभी के धन्धे एक ही हैं। पैसा। रुपया कमाने के लिए ही सभी मेस में आकर रह रहे हैं। सवेरे वे जल्दी-जल्दी दो कौर भात खार सड़क पर निकल पड़ते हैं। दिन-भर कहाँ-कहाँ मारे-मारे फिरते हैं, कोई कह नहीं सकता। उसके बाद जब रात आती है और रुपया कमाने के तमाम दरवाजे बन्द हो जाते हैं तो वे इस कोटर में प्रवेश करते हैं और बंड़ल-बँधे बिस्तर को बिछाकर लेट जाते हैं। ‘‘आह !’’ उनके मुँह से आवाज निकलती है।

जीवन में मात्र एक ही वही मेस मैंने देखा है। लेकिन मुझे लगता है, शायद कलकत्ते में उससे बदतर कोई जगह नहीं होगी।
अविनाशदा की जगह दीवार के एक कोने में मुकर्रर थी। उसी के पास एक खिड़की थी। खिड़की खोलते ही कलकत्ते का आकाश दिखाई देता था। दूर मिल की कई चिमनियाँ। उन चिमनियों से रात-दिन धुँआ निकलता रहता है। लेकिन सो रहे, फिर भी गंगा की एक झाँकी मिल जाती है। बीच-बीच में गंगा में नाव और जहाज तिरते हुए दिखते थे। कभी-कभी पूरब के एक तीन मंजिले मकान को छूता हुआ नारियल के पेड़ का ऊपरी हिस्सा हिलता-डुलता रहता था। एक पतंग आकर पेड़ पर अटक जाती। उसके बाद दो दिन बीतते न बीतते पतंग फटकर चिन्दी-चिन्दी हो जाती और उसका कंकाल झूलता रहता।
अविनाशदा खिड़की खोल उदास दृष्टि से ताकते रहते। कहते, ‘‘उस नारियल के पेड़ और गंगा की वजह से ही इस मेस में रह रहा हूँ। जब मन उदास हो जाता है तो उस ओर देखने से बहुत ही अच्छा लगता है।’’



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