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रहस्य-रोमांच >> पांच पापी

पांच पापी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8683
आईएसबीएन :0

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पांच पापी

Panch Papi

किसी मेहरबानी का बदला चुकाने वाली किस्म का आदमी मैं नहीं लेकिन लगता है इस उम्र में हुए इश्क ने मुझे नर्मदिल बना दिया है।’—होतचन्दानी ने एक पुड़िया विवेक की हथेली पर रखी—‘पन्ना है। इसकी अंगूठी बनवाकर अपनी होने वाली बीवी को देना। मेरे आशीर्वाद के साथ।’

‘सूम का माल है।’—विवेक बोला—‘छोड़ूंगा नहीं। लेकिन ये न समझिएगा कि इसी में उस धोखाधड़ी का भी बदला चुक गया जोकि आप मेरे साथ कर चुके हैं। आपकी उस करतूत के लिए मैं जब तक जिंदा रहूंगा, आपकी तत्काल मृत्यु की कामना करूंगा। ‘पुटड़े! मेरे घर में बैठकर तो ऐसा बुरा बोल न बोल।

‘मैं ऐसा ही बुरा बोल बोलूंगा। अलबत्ता आप मुझे अपने घर से निकाल सकते हैं।

‘अरे नहीं। मैं ऐसा क्यों करूंगा! अब और दो दिन का तो दाना-पानी रह गया है मेरा नेपाल में।’

‘तभी तो इस कोशिश में हूं कि आपको अभी जी भर के कोस लूं।’

उस घड़ी होतचन्दानी नहीं जानता था कि उसका दाना-पानी नेपाल से ही नहीं, इस फानी दुनिया से उठ चुका था। एक नहीं पांच पापी उसकी जान के ग्राहक बने हुए थे।

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