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समकालीन कविताएँ >> समकालीन दोहा कोश

समकालीन दोहा कोश

हरेराम समीप

प्रकाशक : शब्दलोक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :488
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9437
आईएसबीएन :9788192939445

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दोहा-जैसा काव्यरूप सनातन होने की हद तक भारतीय है। इसके जैसी लोक-स्वीकृति हिंदी कविता में किसी अन्य विधा को नहीं मिली। यह अपनी शास्त्रीयता में भी बेजोड़ है और लोकधर्मिता में भी। इसकी आवाजाही विशिष्ट और सामान्य, दोनों वर्गों में है। लौकिक संस्कृत के बाद पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि उत्तर-भारतीय भाषाओं को समृद्ध करता हुआ ‘नानक’ का यह ‘तीर’ पाठक और श्रोता को हर तरह ‘घायल’ या प्रभावित करता रहा है। स्पष्टतया इसका यह घायल करना किसी शारीरिकता को प्रतीकित नहीं करता, बल्कि हमारे संवेदन और आत्म तक जाता है।

किंतु कविता की कोई भी विधा कितनी ही पुरानी क्यों न हो, नएपन का निर्वाह किए बिना नई नहीं हो सकती। प्रासंगिक और समकालीन भी नहीं। दोहा सरीखे परंपरागत छंद ने भी इस नएपन की कभी उपेक्षा नहीं की। माने इसकी ऐतिहासिक यात्रा में इसका वर्तमान सदैव उपस्थित रहा है। वैसे भी किसी भी जीवित काव्य-परंपरा का यही स्वभाव है। वही परंपरा उसे पुनर्संस्कारित करती है और वहीं गतिशील बनाती है। कहा जाना चाहिए कि ‘समकालीन दोहा कोश’ इस विधा के इन्हीं मूल्य-मानों का प्रतिनिधित्व करता है।

हिंदी की समकालीन कविता जबकि आज निरी गद्यात्मकता का दंश झेल रही है, बल्कि उससे अधिक उसका पाठक वर्ग झेल रहा है, ऐसे में कई सौ रचनाकारों के दोहों को जुटाना और फिर समकालीनता की कसौटी पर कसते हुए उनमें से बेहतर का चयन करना, निश्चय ही एक बड़ा और दस्तावेज़ी काम है। हरेराम समीप स्वयं एक समर्थ कवि हैं, और छांदस कविता के अनेक रुपों में उनका काम है-खासकर ग़ज़ल, दोहा और हाइकू जैसी काव्य विधाओं में। इसलिए उनके इस कार्य की विश्वसनीयता भी असंदिग्ध मानी जानी चाहिए।

अपनी सुदीर्घ रचना -यात्रा में दोहा छंद ने सदियों से जिन भी पड़ावों को पार किया, नीतिपरक उपदेशात्मकता उसका प्राण रही है। लेकिन आज का दोहा किसी भी तरह की उपदेशपरकता से प्राणवान नहीं हो सकता। वह हमारे इर्द-गिर्द फैले ओर खुले यथार्थ का प्रवक्ता है, और समकालीन हिंदी कविता की प्रगतिशील परंपरा को ही लगातार पुष्ट कर रहा है। जो रचनाकार और साहित्य-समालोचक कविता की समकालीनता को सिर्फ उसके शिल्प-स्वरूप से जोड़कर देखते हैं, वे अधूरा देखते हैं। इसी प्रवृत्ति के चलते न तो वे इस काव्य-विधा की समय-सापेक्षता को देख पाते हैं, और न अपने आलोचना-कर्म की अपूर्णता को। कविता जीवन या सामाजिक यथार्थ के बौद्धिक विवरणों और विमर्श का नाम नहीं है, बल्कि वह मानवीय अनुभवों और उसकी संवेदनशीलता को उकेरने का नाम है। अपनी अर्थ-व्यंजना के सहारे पाठक या श्रोता के अनुभवलोक में बहुत कुछ नया जोड़ने का नाम भी है। आज का दोहा, गीत और ग़ज़लों की ही तरह समकालीन काव्य-परिदृश्य को समृद्ध कर रहा है। जीवन का प्रत्येक पक्ष अपनी पूर्ण रचनात्मकता के साथ उसमें मौजूद है; ठीक उसी तरह जिस तरह वह स्वयं भारतीय समाज और उसकी अकुंठ काव्य-परंपरा में मौजूद है।

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