सूतजी का ऋषियों को नारदमोह का प्रसंग सुनाना; कामविजय के गर्व से युक्त हुए नारद का शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु के पास जाकर अपने तप का प्रभाव बताना
गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्त कीर्तिम्।
मायाश्रयं विगतमायमचित्त्वरूपं
बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि।।
जो विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि के एकमात्र कारण हैं, गौरी गिरिराजकुमारी उमा के पति हैं तत्त्वज्ञ हैं जिन की कीर्ति का कहीं अन्त नहीं है जो माया के आश्रय होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं तथा जिन का स्वरूप अचिन्त्य है उन विमल बोधस्वरूप भगवान् शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।
प्रशान्तमेकं पुरुषोत्तमं हि।
स्वमायया कृत्स्नंमिदं हि सृष्ट्वा
नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः।।
मैं स्वभाव से ही उन अनादि, शान्तस्वरूप, एकमात्र पुरुषोत्तम शिव की वन्दना करता हूँ जो अपनी माया से इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करके आकाश की भांति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं।
शिवं स्वतस्स्रष्टुमिदं विचष्टे।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति
यत्संनिधौ चुम्बकलोहवत्तम्।।
जैसे लोहा चुम्बक से आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है उसी प्रकार ये सारे जगत् सदा सब ओर जिसके आसपास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपने से ही इस प्रपंच को रचने की विधि बतायी थी, जो सबके भीतर अन्तर्यामी-रूप से विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है उन भगवान् शिव की मैं सादर वन्दना करता हूँ।
व्यासजी कहते हैं- जगत् के पिता भगवान् शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेशजी को नमस्कार करके हम इस पुराण का वर्णन करते हैं। एक समय की बात है नैमिषारण्य में निवास करनेवाले शौनक आदि सभी मुनियोंने उत्तम भक्तिभाव के साथ सूतजी से पूछा-
ऋषि बोले- महाभाग सूतजी! विद्येश्वरसंहिता की जो साध्य-साधन-खण्ड नामवाली शुभ एवं उत्तम कथा है, उसे हमलोगोंने सुन लिया। उसका आदिभाग बहुत ही रमणीय है तथा वह शिव-भक्तों पर भगवान् शिव का वात्सल्य-स्नेह प्रकट करनेवाली है। विद्वत्! अब आप भगवान् शिव के परम उत्तम स्वरूप का वर्णन कीजिये। साथ ही शिव और पार्वती के दिव्य चरित्रों का पूर्णरूप से श्रवण कराइये। हम पूछते हैं, निर्गुण महेश्वर लोक में सगुणरूप कैसे धारण करते हैं? हम सब लोग विचार करने पर भी शिव के तत्त्व को नहीं समझ पाते। सृष्टि के पहले भगवान् शिव किस प्रकार अपने स्वरूप से स्थित होते हैं? फिर सृष्टि के मध्य काल मंत वे भगवान् किस तरह क्रीड़ा करते हुए सम्यक् व्यवहार-बर्ताव करते हैं और सृष्टिकल्प का अन्त होनेपर वे महेश्वरदेव किस रूप में स्थित रहते हैं? लोककल्याण-कारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरों को कौन-सा उत्तम फल प्रदान करते हैं? यह सब हमसे कहिये? हमने सुना है कि भगवान् शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे महान् दयालु हैं इसलिये अपने भक्तों का कष्ट नहीं देख सकते। ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये तीन देवता शिव के ही अंग से उत्पन्न हुए हैं। उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का वर्णन कीजिये। प्रभो! आप उमा के आविर्भाव और विवाह की भी कथा कहिये। विशेषत: उनके गार्हस्थ्यधर्म का और अन्य लीलाओं का भी वर्णन कीजिये। निष्पाप सूतजी! (हमारे प्रश्न के उत्तर में) आपको ये सब तथा दूसरी बातें भी अवश्य कहनी चाहिये।
सूतजीने कहा- मुनीश्वरो! आपलोगोंने बड़ी उत्तम बात पूछी है। भगवान् सदाशिव की कथा में आपलोगों की जो आन्तरिक निष्ठा हुई है इसके लिये आप धन्यवाद के पात्र हैं। ब्राह्मणो! भगवान् शंकर का गुणानुवाद सात्त्विक, राजस और तामस तीनों ही प्रकृति के मनुष्यों को सदा आनन्द प्रदान करनेवाला है। पशुओं की हिंसा करनेवाले निष्ठुर कसाई के सिवा दूसरा कौन पुरुष उस गुणानुवाद को सुनने से ऊब सकता है। जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् शिव के उन गुणों का गान करते हैं; क्योंकि वह गुणावली संसाररूपी रोग की दवा है मन तथा कानों को प्रिय लगनेवाली और सम्प्रर्ण मनोरथों को देनेवाली है।
विना पशुघ्नं त्रिविधजनानन्दकरात् सदा।।
गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि हि।
मनःश्रोत्रादिरामश्च यत: सर्वार्थद: स वै।।
ब्राह्मणो! आपलोगों के प्रश्न के अनुसार मैं यथाबुद्धि प्रयत्नपूर्वक शिव-लीला का वर्णन करता हूँ आप आदरपूर्वक सुनें। जैसे आपलोग पूछ रहे हैं उसी प्रकार देवर्षि नारदजीने शिवरूपी भगवान् विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता से पूछा था। अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्माजी का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिशिरोमणि को हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान् शिव के यश का गान करने लगे।
एक समय की बात है मुनिशिरोमणि विप्रवर नारदजीने, जो ब्रह्माजी के पुत्र हैं, विनीतचित्त हो तपस्या में मन लगाया। हिमालय पर्वत में कोई एक गुफा थी, जो बड़ी शोभा से सम्पन्न दिखायी देती थी। उसके निकट देवनदी गंगा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं। वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था। दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करने के लिये उसी आश्रम में गये। उस गुफा को देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और सुदीर्घकाल तक वहाँ तपस्या करते रहे। उनका अन्तःकरण शुद्ध था। वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधि में स्थित हो गये। ब्राह्मणो! उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्म का साक्षात्कार कराने वाला 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) यह विज्ञान प्रकट होता है। मुनिवर नारदजी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे, उस समय यह समाचार पाकर देवराज इन्द्र काँप उठे। वे मानसिक संताप से विह्वल हो गये। ये नारदमुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं - मन-ही-मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिये प्रयत्न करने की इच्छा की। उस समय देवराजने अपने मन से कामदेव का स्मरण किया। स्मरण करते ही कामदेव आ गये। महेन्द्रने उन्हें नारदजी की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश दिया। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसन्त को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गये और अपना उपाय करने लगे।
उन्होंने वहाँ शीघ्र ही अपनी सारी कलाएँ रच डालीं। वसन्तने भी मदमत्त होकर अपना प्रभाव अनेक प्रकार से प्रकट किया। मुनिवरो। कामदेव और वसन्त के अथक प्रयत्न करनेपर भी नारदमुनि के चित्त में विकार नहीं उत्पन्न हुआ। महादेवजी के अनुग्रह से उन दोनों का गर्व चूर्ण हो गया। शौनक आदि महर्षियो! ऐसा होने में जो कारण था, उसे आदरपूर्वक सुनो। महादेवजी की कृपा से ही नारदमुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पहले उसी आश्रम में कामशत्रु भगवान् शिवने उत्तम तपस्या की थी और वहीं उन्होंने मुनियों की तपस्या का नाश करनेवाले कामदेव को शीघ्र ही भस्म कर डाला था। उस समय रतिने कामदेव को पुन: जीवित करने के लिये देवताओं से प्रार्थना की। तब देवताओंने समस्त लोकों का कल्याण करनेवाले भगवान् शंकर से याचना की। उनके याचना करनेपर वे बोले- 'देवताओ! कुछ समय व्यतीत होने के बाद कामदेव जीवित तो हो जायँगे, परंतु यहाँ उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा। अमरगण! यहाँ खड़े होकर लोग चारों ओर जितनी दूरतक की भूमि कोनेत्र से देख पाते हैं वहाँ तक कामदेव के बाणों का प्रभाव नहीं चल सकेगा, इस में संशय नहीं है।'
भगवान् शंकर की इस उक्ति के अनुसार उस समय वहाँ नारदजी के प्रति कामदेव का निजी प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ। वे शीघ्र ही स्वर्गलोक में इन्द्र के पास लौट गये। वहाँ कामदेवने अपना सारा वृत्तान्त और मुनि का प्रभाव कह सुनाया, तत्पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से वे वसन्त के साथ अपने स्थान को लौट गये। उस समय देवराज इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारदजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण वे उस पूर्ववृत्तान्त को स्मरण न कर सके। वास्तव में इस संसार के भीतर सभी प्राणियों के लिये शम्भु की माया को जानना अत्यन्त कठिन है। जिसने भगवान् शिव के चरणों में अपने-आपको समर्पित कर दिया है उस भक्त को छोड़कर शेष सारा जगत् उनकी माया से मोहित हो जाता है।' नारदजी भी भगवान् शंकर की कृपा से वहाँ चिर काल तक तपस्या में लगे रहे। जब उन्होंने अपनी तपस्या को पूर्ण हुई समझा, सब वे मुनि उससे विरत हो गये। 'कामदेव पर मेरी विजय हुई' ऐसा मानकर उन मुनीश्वर के मन में व्यर्थ ही गर्व हो गया। भगवान् शिव की माया से मोहित होने के कारण उन्हें यथार्थ बात का ज्ञान नहीं रहा। (वे यह नहीं समझ सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान् शंकर का प्रभाव ही कारण है।) उस माया से अत्यन्त मोहित हो मुनिशिरोमणि नारद अपना काम-विजय-सम्बन्धी वृत्तान्त बताने के लिये तुरंत ही कैलास पर्वत पर गये। उस समय वे विजय के मद से उन्मत्त हो रहे थे। वहाँ रुद्रदेव को नमस्कार करके गर्व से भरे हुए मुनिने अपने-आपको महात्मा मानकर तथा अपने ही प्रभाव से कामदेव पर अपनी विजय हुई समझकर उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
वह सब सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने नारदजी से, जो अपनी (शिव की) ही माया से मोहित होने के कारण कामविजय-के यथार्थ कारण को नहीं जानते थे और अपने विवेक को भी खो बैठे थे, कहा- रुद्र बोले- तात नारद! तुम बड़े विद्वान् हो, धन्यवाद के पात्र हो। परंतु मेरी यह बात ध्यान देकर सुनो। अबसे फिर कभी ऐसी बात कहीं भी न कहना। विशेषत: भगवान् विष्णु के सामने इसकी चर्चा कदापि न करना। तुमने मुझसे अपना जो वृत्तान्त बताया है उसे पूछने पर भी दूसरों के सामने न कहना। यह सिद्धि-सम्बन्धी वृत्तान्त सर्वथा गुप्त रखने योग्य है इसे कभी किसी पर प्रकट नहीं करना चाहिये। तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसीलिये अधिक जोर देकर मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ और इसे न कहने की आज्ञा देता हूँ; क्योंकि तुम भगवान् विष्णु के भक्त हो और उनके भक्त होते हुए ही मेरे अत्यन्त अनुगामी हो।
भक्त विनार्पितात्मानं तया सम्मोह्यते जगत्।।
इस प्रकार बहुत कुछ कहकर संसार की सृष्टि करनेवाले भगवान् रुद्रने नारदजी को शिक्षा दी- अपने वृत्तान्त को गुप्त रखने के लिये उन्हें समझाया-बुझाया। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित थे। इसलिये उन्होंने उनकी दी हुई शिक्षा को अपने लिये हितकर नहीं माना। तदनन्तर मुनिशिरोमणि नारद ब्रह्मलोक में गये। वहाँ ब्रह्माजी को नमस्कार करके उन्होंने कहा- 'पिताजी! मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है।'
उनकी वह बात सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन किया और सारा कारण जानकर अपने पुत्र को यह सब कहने से मना किया। परंतु नारदजी शिव की माया से मोहित थे। अतएव उनके चित्त में मद का अंकुर जम गया था। उनकी बुद्धि मारी गयी थी। इसलिये नारद जी अपना सारा वृत्तान्त भगवान् विष्णु के सामने कहने के लिये वहाँ से शीघ्र ही विष्णुलोक में गये। नारदमुनि को आते देख भगवान् विष्णु बड़े आदर से उठे और शीघ्र ही आगे बढ़कर उन्होंने मुनि को हृदय से लगा लिया। मुनि के आगमन का क्या हेतु है इसका उन्हें पहले से ही पता था। नारदजी को अपने आसन पर बिठाकर भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करके श्रीहरि ने उनसे पूछा-
भगवान् विष्णु बोले- तात! कहाँसे आते हो? यहाँ किसलिये तुम्हारा आगमन हुआ है? मुनिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो। तुम्हारे शुभागमन से मैं पवित्र हो गया।
भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर गर्व से भरे हुए नारदमुनि ने मद से मोहित होकर अपना सारा वृत्तान्त बड़े अभिमान के साथ कह सुनाया। नारदमुनि का वह अहंकारयुक्त वचन सुनकर मन-ही-मन भगवान् विष्णु ने उनकी कामविजय के यथार्थ कारण को पूर्णरूप से जान लिया।
तत्पश्चात् श्रीविष्णु बोले- मुनिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, तपस्या के तो भंडार ही हो। तुम्हारा हृदय भी बड़ा उदार है। मुने! जिसके भीतर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते, उसी के मन में समस्त दुःखों को देनेवाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं। तुम तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो और सदा ज्ञान-वैराग्य से युक्त रहते हो; फिर तुम में कामविकार कैसे आ सकता है। तुम तो जन्म से ही निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धिवाले हो।
श्रीहरि की कही हुई ऐसी बहुत-सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारद जोर-जोर से हँसने लगे और मन-ही-मन भगवान् को प्रणाम करके इस प्रकार बोले-
नारदजीने कहा- स्वामिन्! जब मुझपर आपकी कृपा है तब बेचारा कामदेव अपना क्या प्रभाव दिखा सकता है।
ऐसा कहकर भगवान् के चरणों में मस्तक झुकाकर इच्छानुसार विचरने वाले नारदमुनि वहाँ से चले गये।
... क्रमशः
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