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विभिन्न रामायण एवं गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1

महर्षि वेदव्यास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1
आईएसबीएन :

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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि

 
सञ्जय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।24।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थं पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।25।।
संजय बोले - हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहने पर महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख।।24-25।।
अर्जुन के यह कहने पर हृषीकेश अर्थात् इंद्रियों के ईश भगवान श्रीकृष्ण जो उसके रथ के सारथि का भार संभाले हुए थे, उसकी इच्छा को समझ उस युद्ध के केन्द्र-बिंदु भीष्म, द्रोणाचार्य और अन्य महत्वपूर्ण राजाओं के सामने अपने रथ को ले गये और यह वहाँ पर एकत्रित कौरवों को दिखाया। कौरवों के उस पक्ष में भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, शकुनि आदि अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए प्रस्तुत थे। इस दृश्य को हम आजकल विभिन्न प्रकार के खेलों, जैसे ओलंपिक, विश्व फुटबाल और वर्ल्ड कप क्रिकेट के अंतिम खेल के आरंभ होने वाले दृश्य से मिला सकते हैं। खेल आरंभ होने के ठीक कुछ क्षणों पहले दर्शकों में कितना तनाव और उत्तेजना रहती है, हम इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं। 

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहदों को भी देखा।।26 और 27वेंका पूर्वार्ध।।
इस युद्ध में कौरवों और पाण्डवों दोनों के पक्ष में अधिकतर योद्धा परिवार या कुटुम्ब-जन या उनके मित्र राजा थे। जो कौरवों के पक्ष में लड़ रहे थे वे पाण्डवों के भी पारिवारिक, कुटुम्ब-जन अथवा मित्र थे। चूँकि यह पारिवारिक कलह थी, जो कि एक विशाल युद्ध का रूप धारण कर चुकी थी, इस कारण युद्ध के केन्द्र में अर्जुन को दिखने वाले सभी उसके सम्बन्धी अथवा मित्र रहे थे। यहाँ अर्जुन को पार्थ अर्थात् पृथा का पुत्र के नाम से कहने के पीछे महामुनि व्यास पाठकों को स्मरण करवाना चाहते हैं कि अर्जुन पृथा अर्थात् वह एक ऐसी माँ का पुत्र है जिसने अपने पुत्रों का समुचित विकास किया है। उसकी माँ पृथा जीवनदायिनी शक्ति की द्योतक है न कि जीवन के विनाश की शक्ति की! संस्कृत की पृ धातु का अर्थ होता है जो पोषण करे, सुखकर हो अथवा विकास करे। इस भाव से अर्जुन की माँ इन सभी सकारात्मक गुणों को प्रत्यक्ष करती है। इस नाम को सुनकर अर्जुन को जीवन की विकास करने वाली शक्ति का ध्यान आ सकता है। युद्ध के समय यदि किसी को जीवन की विकासमयी शक्ति पर ध्यान जायेगा तब यह भी स्वाभाविक है कि तदुपरांत उसे यह विचार भी आ सकता है कि अब वह उसी जीवन को नष्ट करने का कार्य करने जा रहा है।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।27
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।।27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध।।
यदि यह युद्ध न होकर केवल एक क्रीड़ा मात्र ही होती, तब भी हम आजकल के खेलों के समय होने वाले मान अथवा अपमान के अपने अनुभवों से उस युद्ध क्षेत्र में उपस्थित लोगों की मनःस्थिति को समझ सकते हैं, परंतु यह भीषण युद्ध क्रीड़ा मात्र नहीं था। बल्कि इस भयंकर युद्ध में जो लोग आपस में लड़ने वाले थे, वे सभी आपस में सम्बन्धी अथवा मित्र थे। इनमें से न जाने कितने लोग मृत्यु को प्राप्त होने वाले थे। यदि भारत में घटी ऐतिहासिक घटनाओं को स्मरण करें तब यह तो समझ में आता है कि क्षत्रिय लोग अपने मान-सम्मान अथवा अपनी बात को रखने के लिए अपना जीवन होम कर देते रहे हैं। इसीलिए क्षत्रियों के लिए युद्ध सम्मान-जनक बात ही नहीं बल्कि उनके क्षत्रियत्व का मूलभूत कारण बन जाता है। इसलिए उस युद्ध में उपस्थित अधिकांश योद्धा क्षत्रियोचित उत्तेजना में रहे होंगे। महाभारत के युद्ध के पहले दिन, जिस समय युद्ध प्रारंभ होने वाला था, उस समय तक अर्जुन निश्चित रूप से युद्धोचित उत्तेजना के प्रभाव में था, परंतु अब इस समय अपने समक्ष खड़े हुए और युद्ध के लिए तत्पर योद्धाओँ के मुखों को देखकर और उनमें अपने मित्रों और परिवारजनों के इस युद्ध की विभीषिका में मारे जाने की आशंका पहली बार उसके मन में उत्पन्न होती है।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।29।।

अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्धक्षेत्र में उपस्थित युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।।28वें का उत्तरार्ध और 29।।
यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इसी दृश्य को भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, कृपाचार्य, धृष्टद्युम्न, युधिष्ठिर, भीम, सात्यकि, अभिमन्यु और भी कई योद्धा देख रहे होंगे। क्या उनके मन में अर्जुन के मन जैसा कोई विचार नहीं आया? क्या वे लोग बिलकुल ही भावशून्य थे? अथवा उनके लिए राज्य की प्राप्ति अथवा राजा के प्रति निष्ठा (भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण जैसों के लिए) ही उनके मन को नियंत्रण में रखने के लिए पर्याप्त थी? यहाँ अर्जुन जब अपने स्वजन समुदाय को देखता है, तब वह भली-भाँति जानता है कि यदि उसका शौर्य सर्वविदित न होता है और कदापि उसके जैसा योद्धा पाण्डवों के पक्ष में होता न होता, तब उस अवस्था में संभवतः शेष पाण्डवों की इस युद्ध की चिंगारी को भड़कने देने की वह सामर्थ्य न होती! यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण भी अर्जुन की प्रार्थना पर ही इस युद्ध में भाग न लेने की इच्छा होते हुए भी केवल सारथि बनने को प्रस्तुत हुए थे। युद्ध के लिए उपस्थित लोगों को देखकर अर्जुन के मन में विषाद का भाव उत्पन्न हो रहा है, इसका वर्णन महामुनि व्यास करते हैं, परंतु अन्य किसी के मन में भी इस तरह का कोई भाव उत्पन्न होता है इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखते हैं। अर्जुन जैसा महान् योद्धा मानसिक संताप के इतने प्रभाव में आ जाता है कि युद्ध के परिणामों के बारे में सोचकर उसका मुख सूखने लगता है तथा शरीर में कम्पन और रोमाञ्च होने लगता है। महान् योद्धा अपने मन और शरीर की शक्ति से युद्ध करता है, परंतु यदि किसी योद्धा का मन ही विकल हो जाये, तब उसकी शारीरिक शक्ति युद्ध के योग्य नहीं रह जाती है। मानसिक संताप का प्रभाव सर्वथा योग्य व्यक्तियों को भी शक्तिहीन कर देता है।

गाण्डीव स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:।।30।।

हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ।।30।।
अकस्मात् संबंधियों और मित्रों को एक क्षितिज तक फैली विशाल सेना के रूप में युद्ध के लिए तत्पर देखकर और उसके कारण होने वाले अभूतपूर्व विनाश के बारे में सोच कर अर्जुन के संवेदनशील मन में पहली बार यह विचार आता है कि उसके ही कारण यहाँ एकत्र उसके स्वजन और प्रस्तुत अन्य न जाने कितने योद्धा काल के गाल में लगभग निश्चित ही चले जाने वाले हैं। उसका अपराध बोध इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि वह स्वयं इस युद्ध के सूत्रधारों में से एक है। इस प्रकार के विचारों के मन में आने पर उसका संवेदनशील मानव-मन करुणा से भर जाता है। किसी भी योद्धा को करुणा अशक्त बना देती है। मनुष्य ही है जो है कि नाना प्रकार की भावनाओं से ओत-प्रोत होता है। अर्जुन जो कि सर्वश्रेष्ठ योद्धा है, अपने समय का श्रेष्ठ धनुर्धर है। महान् तप करके अर्जुन ने विभिन्न देवी देवताओं से दिव्य शस्त्रास्त्र एकत्र किए हैं। उसकी धनुर्विद्या के विषय में अतिशयोक्तियाँ जन-जन के बीच में प्रचलित हो चुकी हैं। अर्जुन ही है जिसे पितामह भीष्म सबसे अधिक स्नेह करते हैं। अर्जुन को ही द्रोणाचार्य अपने सर्वश्रेष्ठ शिष्य मानते हैं। अर्जुन ही है जो कि अपनी धनुर्विद्या के बल पर उस काल की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी द्रौपदी के पाण्डवों की पत्नी बनाने का कारण बनता है। अर्जुन मनुष्यों का एक संपूर्ण प्रतिनिधि और मानवों के अच्छे गुणों का सर्वश्रेष्ठ प्रतिबिम्ब है। इसीलिए यह दया, करुणा और भीरुता अर्जुन के मन में मनुष्यों के लिए है। क्योंकि वह भी सबसे पहले एक मनुष्य ही है। दूसरी ओर अर्जुन ही है जिसे अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में अपमानजनक स्थिति में बृहन्नला बनना पड़ा था। इसके अतिरिक्त भरी सभा में द्रौपदी का अपमान निश्चित रुप से अक्षम्य अपराध था। अपमान की इतनी अधिक पीड़ा झेलने के बाद आज युद्ध के लिए उद्यत अर्जुन असंख्य जन हानि की संभावित मृत्यु की कल्पना से घबरा जाता है। इस प्रकार की मानसिक अवस्था में पहुँचे व्यक्ति का मुँह सूखने लगता है, शरीर का ताप बढ़ जाता है। शरीर शिथिल हो जाता है, यहाँ तक कि अपने पैरों पर खड़े रहना कठिन हो जाता है। आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। अच्छा भला स्वस्थ व्यक्ति अचानक रुग्ण हो जाता है।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।31।।

हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।।31।।
हम जानते हैं कि एक बार जब भी हम अपने आप पर संशय करने लगते हैं, तब धीरे-धीरे करके वे संशय बढ़ते ही जाते हैं। यहाँ तक कि वे संशय कुछ क्षणों के लिए बिलकुल अशक्य कर देते हैं। निराशा के उन क्षणों में यदि कोई हमे सुबुद्धि न दे तो उस नैराश्य की अवस्था से स्वयं ऊपर उठने में हमें बहुत समय लग जाता है। एक छात्र जब परीक्षा के ठीक पहले अपनी तैयारी पर शंकित हो जाता है, तो अपनी विषय वस्तु को समझने के बाद भी घबराहट में त्रुटियाँ करने लगता है। उसी घबराहट की स्थिति में कभी-कभी छात्र परीक्षा में कुछ ऐसे प्रश्न पा जाते हैं, जो कि उनका खोया हुआ आत्म-विश्वास लौटा देते हैं, और इस प्रकार संयत हुआ छात्र यदि अपनी क्षमता के अनुसार अधिकाँश प्रश्न सही न भी कर पाये, तब भी इतना तो हो ही जाता है कि वह कम से अपनी निराशा की स्थिति से ऊपर उठकर कुछ अधिक अच्छे परिणाम दे देता है। इसी प्रकार हम सभी जानते हैं कि भारतीय हाकी या क्रिकेट टीम कई बार अच्छे खिलाडियों से सुसज्जित होने के बाद भी प्रतिस्पर्धा में अपने कुछ अच्छे खिलाड़ियों का अच्छा प्रदर्शन न होने से अपना आत्म-विश्वास खो देती है और सहज ही विरोधी टीम के सामने घुटने टेक कर अत्यंत निराशाजनक प्रदर्शन करती है। इतिहास के पाठकों को ज्ञात होगा कि जर्मनी का तानाशाह जब द्वितीय महायुद्ध के समय में अपना आत्मविश्वास खो बैठा था, तो उसके बाद न केवल जर्मनी की उस युद्ध में पराजय हुई थी, बल्कि विश्व-विजेता का दम्भ करने वाला हिटलर आत्महत्या के लिए विवश हुआ था। अर्जुन लगभग वैसी ही निराशा के सागर में डुबकियाँ लगाने के लिए अग्रसर हो रहा है। इसी लिए वह कहता है कि, “मुझे लक्षण विपरीत दिख रहे हैं, और यदि मैंने युद्ध में स्वजन समुदाय को मार भी दिया, तो भी मुझे अपना और उसी दिशा में आगे सोचने पर मानव-मात्र का कल्याण नहीं दिखता।”

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?।।32।।
क्षत्रिय व्यक्ति का विजयाकाँक्षी होना तो स्वाभाविक है, जब विजय होगी तो राज्य और सुख भी प्राप्त ही होंगे। अर्जुन क्षत्रियों की स्वाभाविक इच्छा और क्षत्रिय होने के अस्तित्त्व की मूलभूत आवश्यकता से भी प्रभावित है, वह कहता है कि इस प्रकार अपने स्वजनों से ही युद्ध करके यदि राज्य और भोग मिल भी गये तो वे व्यर्थ हैं। वह न विजय चाहता है न क्षत्रियोचित् सुख। उसका मानसिक संतुलन अगले कुछ क्षणों में अकस्मात् धराशायी होता जाता है। अपनी बात को तर्क द्वारा सिद्ध करने के लिए अब वह ज्ञानियों और विचारकों की तरह अपने मत के पक्ष में अन्य प्रस्ताव प्रस्तुत करता है। सबसे पहले तो वह कृष्ण से ही प्रश्न करता है कि इस तरह अपने स्वजनों को मारकर पाया गया राज्य और उसके फलस्वरूप सुखी बनाया गया जीवन भी, जीवन जीने का कोई प्रयोजन है। वह प्रश्न अपने आप से भी कर रहा है, ठीक उसी तरह जैसे जब हम अनिश्चय की स्थिति में होते हैं, तो अपने साधारण से साधारण कर्मों का विश्लेषण करने लगते हैं।

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।33।।

हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।।33।।
क्षत्रिय अथवा राजा सामान्यतः युद्ध में अपने सम्बन्धियों की सुरक्षा, उनको अधिक सुख पहुँचाने के लिए अथवा धन सम्पदा आदि अर्जित करने के लिए युद्ध करते हैं। यदि इस प्रकार के कारण न हो तो युद्ध के लिए व्यर्थ कौन लड़ेगा? उसे आश्चर्य हो रहा है कि जिनको सुख पहुँचाने के लिए उसे युद्ध में प्रवृत्त होना चाहिए वे ही स्वयं उससे लड़ने के लिए धन और जीवन की सभी आशायें छोड़कर यहाँ युद्ध के उद्यत है। बड़े आश्चर्य की बात है!

आचार्याः पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वसुरा: पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।34।।

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं।।34।।
सम्बन्धियों की सूची में संभवतः यहाँ कोई ऐसा सम्बन्धी नहीं बचा है, जो कि उस युद्ध में उपस्थित न हो। शरीर से सबल और पुरुष लिंग को धारण करने वाले लोग जिनका सहज स्वभाव ही युद्ध में प्रवृत्त होना है ऐसे सभी सम्बन्धी युद्ध में उपस्थित थे!

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35।।

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है?।।35।।
अर्जुन की मानसिक स्थिति क्रमशः बिगड़ती जा रही है। वह कहता है कि यदि कौरव युद्ध में उसे मार भी दें, तब भी और यदि तीनों लोकों का राज्य अपनी सारी समृद्धि के साथ उसे बिना किसी प्रयास के दे दिया जाए, तब भी वह अब इस युद्ध में प्रवृत्त नहीं होगा। पृथ्वी का राज्य अथवा हस्तिनापुर का राज्य के लिए तो निश्चित् युद्ध नहीं करेगा!

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।36।।

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।।36।।
वह आगे कहता है कि, हे जनार्दन अर्थात् आर्त लोगों के भगवन् धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् दुर्योधन, दुःशासन आदि को युद्ध में मारकर पाण्डवों को किस प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त हो सकेगी! इन आततायियों के संसर्ग में ही हानि है, उनको मारने से तो और भी पाप लगेगा।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।

अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।।37।।
इतना कहने के उपरान्त, वह निश्चय करके कहता है कि इन सभी कारणों से अपने भाइयों अर्थात् धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए योग्य नहीं है। क्योंकि संसार में कोई भी अपने ही कुटुम्बियों को मारकर कोई भी सुखी नहीं हो सकता है। ये कुटुम्बीजन तो स्वतः स्नेह और बन्धुत्व के पात्र हैं, न कि युद्ध करके हत करने के पात्र! युद्ध की घोषणा के पहले पाण्डवों और कौरवों के सभी हितचिन्तकों ने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया था। कृष्ण ने इस संबंध में नाना-प्रकार के प्रयास किये और सभी लोगों को समझाने का बारम्बार प्रयास किया था। युद्ध के पहले भी संभवतः अर्जुन को ऐसे विचार आये हों, परंतु तब उसे अपने, अन्य पाण्डवों और विशेषकर द्रौपदी के साथ किये गये कौरवों के दुर्व्यवहार ने हमेश उत्तेजित और क्रोधित किया होगा। परंतु अब अकस्मात् उसे अपने और युद्ध के लिए एकत्र हुए लोगों के जीवन के प्रति मोह उत्पन्न हो गया है। हम अपने सामान्य जीवन में यही विचार धारा देखा करते हैं, कभी क्रोध और कभी जीवन के मोह के झूले के बीच में घूमा करते हैं। मानव मन हमेशा अपनी समस्याओं की ऊहा-पोह में डूबता उतराता रहता है। ऐसा कोई भी निर्णय जो कि हमारे लिए गम्भीर लाभ-हानि का कारण बनता हो तो ऊहा-पोह तो स्वाभाविक ही दिखती है, यदि उसमें जीवन हानि की सम्भावना हो तो हम अपने निर्णयों के प्रति और भी दिग्भ्रमित हो जाते हैं।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।39।।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये?।।38-39।।
अर्जुन के विचार अब कौरवों के अज्ञान की ओर मुड़ जाते हैं, वह सोचने लगता है कि कौरवों का चित्त (यदि हम अपने मन को भी कई स्तरों पर समझें तो चित्त हमारे वैयक्तिक मन का प्राकृतिक भाव समझा जा सकता है जो कि हर व्यक्ति विशेष के लिए नितांत व्यक्तिगत होता है) भ्रष्ट हुआ है अर्थात् अच्छे विचारों से दूर हो गया है अतएव यह स्वाभाविक है कि इस मानसिक अवस्था के कारण बुद्धि से भ्रष्ट हुए लोग कुल के नाश की चिंता करें ऐसी स्थिति में नहीं रह जाते हैं। उसी प्रकार ऐसी दशा को प्राप्त हुए लोग अपने मित्रों अथवा सुहृदों की राय को न मानकर और उनसे भी विरोध कर लेते हैं। परंतु हे जनार्दन, हम तो सुबुद्धि हैं, और हमें तो इस पाप से बचने के लिए अवश्य ही विचार करना चाहिए।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।40।।

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।।40।।
अर्जुन कहता है, यदि मैं अपने ही कुल के लोगों की हत्या करूँगा और इस प्रकार अपने ही कुल का नाश करूँगा, तब आदिकाल से हमारे कुल के धर्म का पारायण करने के लिए लोग नहीं रहेंगे। कुल धर्म का नाश होने से, कुल के शेष बचे लोगों को सही मार्ग दिखाने वाले नहीं रह जाते और वे लोग पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।।41।।

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।।41।।
अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन कहता है, धर्म में प्रवृत्त न होने से कुल के लोगों पाप में प्रवृत्त होते हैं। पाप में प्रवृत्त व्यक्ति स्वयं भी दूषित होते हैं तथा भिन्न कुल की स्त्रियों के साथ संसर्ग से वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न करते हैं।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।

वर्णसंकर सन्तान कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।।42।।
वर्णसंकर सन्तानें अपना कुल निश्चित न कर पाने के कारण सामाजिक रीतियों का निर्वाह नहीं करते हैं। इस प्रकार पितरों को पिण्ड और जलक्रिया आदि से वंचित रहना पड़ता है, इस प्रकार पितर भी नीच अवस्था को प्राप्त होते हैं।

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।43।।

इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं।।43।।
इस प्रकार कुल धर्म और जाति धर्म सभी नष्ट होते हैं। कुल मिलाकर दिग्भ्रमित अर्जुन नये-नये कारणों को बता कर कृष्ण से अपने मत का समर्थन चाहता है।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।44।।

हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।।44।।
इस प्रकार आगे आने वाली सन्ततियाँ भी नरकवासी हो जाती हैं। अपनी बात पर अधिक बल देने के लिए वह पूर्वजों की बातों का संदर्भ देता है और कहता है कि अन्य लोग भी ऐसा कहते आये हैं।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।45।।

हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं।।45।।
अर्जुन के प्रलाप की यह स्थिति हो गई है, वह शोक की अवस्था में उद्दिग्न होकर अपनी बुद्धि की अवस्था पर प्रलाप करने लग जाता है। यहाँ तक कि वह यह भूल जाता है कि युद्ध अधर्म की हानि के लिए इस युद्ध में प्रस्तुत हुआ है, न कि केवल सुख अथवा राज्य की प्राप्ति के लिए।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।46।।

यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा।।46।।
अर्जुन को युद्ध संबंधी अपने इस निर्णय के लिए अत्याधिक पश्चाताप् होने लगा है। वह अपने इस निर्णय के लिए इतनी अधिक आत्म-ग्लानि का अनुभव करने लगता है कि, वह इस पाप से बचने के लिए युद्ध में स्वयं की हत्या हो जाने देने को भी अच्छा काम मानता है।
सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।47।।

संजय बोले - रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।।47।।
मन से पूरी तरह निराश होने के बाद वह युद्ध त्याग कर रथ में पीछे बैठ जाता है। इस प्रकार पहले अध्याय की समाप्ति तक अर्जुन ने अपने सामने आने वाली समस्याओं के आगे हथियार डाल दिये हैं।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भवद्रीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।।1।।

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