गीता प्रेस, गोरखपुर >> असीम नीचता और असीम साधुता असीम नीचता और असीम साधुतागीताप्रेस
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प्रस्तुत है अमीस नीचता और असीम साधुता......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
वर्षों पहले ‘कल्याण’ मासिक पत्र में ‘पढ़ो, समझो और
करो’ स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित प्रेरक, सत्य घटनाएँ
सर्वसाधारण-द्वारा अत्यधिक पसन्द की गयी थीं। उनकी अत्यधिक माँग,
लोकप्रियता और सार्वजनिक महत्त्व को ध्यान में रखकर वे इससे पूर्व
पुस्तकाकार बारह भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हीं बारह भागों को
विभिन्न नाम-शीर्षकों में बाँटकर अब कुल 9 भागों में प्रकाशित किया गया
है। प्रस्तुत पुस्तक पूर्व प्रकाशित—‘पढ़ो, समझो और करो’ का परिष्कृत रूप है। ऑफसेट की स्वच्छ, सुन्दर छपाई से युक्त इस
पुस्तक में आम लोगों के जीवन में घटित सच्ची घटनाओं तथा उनके द्वारा
प्रेषित शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंगों और अनुभूत नुस्खों तथा प्रयोगों का
संकलन है।
भगवद्विश्वास को बढ़ाने में सहायक एवं चरित्र की ऊँचाइयों को रेखांकित करने वाली इस पुस्तक की सामग्री गृहस्थ, विरक्त, जिज्ञासु और साधक—सभी वर्ग के पाठकों के लिये उपयोगी, प्रेरणाप्रद और आत्म-विश्लेषण करने में सहायक है। अधिकाधिक लोगों को इससे विशेष लाभ उठाना चाहिये।
भगवद्विश्वास को बढ़ाने में सहायक एवं चरित्र की ऊँचाइयों को रेखांकित करने वाली इस पुस्तक की सामग्री गृहस्थ, विरक्त, जिज्ञासु और साधक—सभी वर्ग के पाठकों के लिये उपयोगी, प्रेरणाप्रद और आत्म-विश्लेषण करने में सहायक है। अधिकाधिक लोगों को इससे विशेष लाभ उठाना चाहिये।
-प्रकाशक
असीम नीचता और असीम साधुता
कुछ वर्षों पहले की बात है। एक सनातानधर्मी सदाचारी पुराने विचारों के घर
की लड़की का विवाह भाग्यवश एक कालेज से निकले मनचले अविवेकी लड़के से हो
गया। लड़की सुन्दर थी, पढ़ी-लिखी भी थी, घर का सारा कामकाज करने में निपुण
थी। सास-जेठानी—सबकी आज्ञा मानती, घर में सबके साथ आदरसम्मान का
बर्ताव करती तथा सबको प्रसन्न रखती थी। प्राणपण से स्वामी के संकेत के
अनुसार चलना चाहती और चलती भी थी। परंतु उसमें (पति के भावनानुसार) पाँच
दोष थे—वह प्रतिदिन भगवान् के चित्र की पूजा करती, मांस-अण्डे
नहीं
खाती, पर पुरुषों का स्पर्श नहीं करती, बुरी-गन्दी पुस्तकें नहीं पढ़ती और
सिनेमा नहीं जाती। ये पाँचों बातें वह अपने नैहर से सीखकर आयी थी और उसके
स्वभावगत हो गयी थीं। पति भी उसको वैसा ही मानता, पर यही पाँच बातें ऐसी
थीं जो पति को बड़ी अप्रिय थीं और वह बार-बार इनके लिये पत्नी को समझाता।
वह पहले-पहल तो इन बातों के दोष बतलाती, समझाना चाहती, पर इससे पतिदेव के
क्रोध का पारा बहुत चढ़ जाता। वह समय-समय पर निर्दोष बालिका को मार भी
बैठता। गाली-गलौज बकना—उसके माँ-बाप को बुरा-भला कहना,
डाँटना-डपटना
तो प्रायः रोज ही चलता था। इसलिये उसने समझाना तथा दोष बतलाना तो छोड़
दिया। वह जान गयी कि ये इन बातों को अभी मानने वाले नहीं हैं। अतः वह
विरोध न करके बड़ी नम्रता से इन्हें मानने में अपनी असमर्थता प्रकट करने
लगी। बहुत कहा-सुनी होने पर उसने पति के साथ सिनेमा जाना तो स्वीकार कर
लिया; परंतु शेष चार बातें नहीं मानीं। उसने बड़े नम्र शब्दों में, परंतु
दृढ़ता के साथ कह दिया कि ‘मेरे प्राण भले ही चले जायँ, मैं न
तो
भगवान् की पूजा छोड़ सकती हूँ।’ इस पर उसके पतिदेवता बहुत ही
नाराज
हो गये; क्योंकि वह अपने को आजकल के आगे बढ़े हुए लोगों में से
मानता था। उसकी प्रगति के क्षेत्र में पत्नी की ये चारों चीजें अनावश्क
थीं। अतः वह ऐसी पिछड़ी हुई स्त्री से अपना विवाह होने में बड़ा अभाग्य
मानने लगा तथा उसके साथ बड़ा दुर्व्यवहार करने लगा।
कई वर्ष यों बीते। उसका द्वेष बढ़ता गया और उसमें किसी घोर पापमूलक हिंसावृत्ति पैदा हो गयी एक दिन दोपहर को किसी ट्रेन से कहीं जाने का प्रोग्राम बना। पहले दर्जे की दो टिकटें खरीदी गयीं। पत्नी को लेकर बाबू साहब ट्रेन में सवार हुए। उन दिनों भीड़ कम होती थी। पहले दर्जे के एक खाली डिब्बे में पत्नी को लेकर वह बैठ गया।
कुछ दूर जाने पर जब गाड़ी वेग से जा रही थी—उसने डिब्बे का फाटक खोला और किनारे की सीट पर बैठी हुई पत्नी को धक्का देकर बाहर गिरा दिया। मन में पहले से ही योजना बनायी हुई थी। इसी से पत्नी को दरवाजे के पास की सीट पर उसने बैठाया था। बेचारी अकस्मात् धक्का खाकर नीचे गिर पड़ी। भाग्य से बगल के डिब्बे के एक सज्जन बाहर की ओर सिर निकाले कुछ देख रहे थे। उन्होंने एक तरुणी स्त्री को गिरते देखकर जंजीर खींची; जंजीर में कुछ जंग लगा था, इससे उसके पूरा खीचने में भी कुछ देर लग गयी। इतने में गाड़ी दो-तीन मील आगे बढ़ गयी।
गाड़ी रुकी। उस बाबू ने सोचा था, मर गयी होगी। कह दिया जायगा—‘खिड़की अकस्मात् खुल गयी, वह खिड़की के सहारे किसी काम से खड़ी थी, अचानक गिर पड़ी।’ पर गाड़ी रुकते ही अपने पाप से उसका हदय काँप गया। आस-पास के लोग इकट्ठे हो गये। गार्ड आया। उसने रोनी सूरत बनाकर सोची हुई बात गार्ड से कह दी। गाड़ी उलटी चलाई गयी। वहाँ पहुँचने पर देखा गया—वह मरी तो नहीं है, पर चोट बहुत जोर से लगी है। उसको जीती देखकर इसका बुरा हाल हो गया। सोचा अब यह असली बात कह देगी और इससे लेने के देने पड़ जायँगे। उसका शरीर काँपने लगा; आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली। लोगों ने समझा, पत्नी बुरी तरह घायल हो जाने के कारण यह रो रहा है। लोग उसे समझाने लगे। लड़की को गाड़ी पर चढ़ाया गया। बड़ा स्टेशन आने पर उसे उतारकर अस्पताल पहुँचाने की व्यवस्था की जाने लगी। पर उसे मरणासन्न देखकर उसे मैजिस्ट्रेट को उसके आखिरी बयान के लिये बुला लिया। उसका पति तो अपने भविष्य की दुर्दशी को सोचता हुआ अलग बठा रो रहा था; समीप आने की भी उसकी हिम्मत नहीं थी। मैजिस्ट्रेट ने आकर लड़की का बयान लिया। उसने कहा—‘साहेब ! मुझे मिर्गी का पुराना रोग था, मैं लघुशंका को गयी थी। लौटकर कुल्ला करने जा रही थी, इतने में मिर्गी का दौरा आ गया। फाटक खुला था, मैं बेहोश होकर नीचे गिर पड़ी और मुझे चोट लग गयी।’ मैजिस्ट्रेट ने घुमा-फिराकर पूछा—‘तुम्हारे पति ने तो धक्का नहीं दिया न ?’ वह रोते-रोते बोली—‘राम-राम !’ वे बेचारे धक्का क्यों देते, वे तो इस समय बहुत दुःखी होंगे। उन्हें बुलाइये मैं उनके आखिरी दर्शन करके चरणों में प्रणाम कर लूँ।’
इस बीच वह समीप आ गया था। वह यह सब सुनकर दंग रह गया औ उसके हृदय में एक महान् वेदना पैदा हो गयी। डर के बदले पश्चात्ताप की आग जल उठी। ‘हाय ! कहाँ मैं घोर नीच, कहाँ यह पर साध्वी, जो इस मरणासन्न अवस्था में भी सावधानी के साथ मुझ नीच को बचा रही है।’ वह चीख उठा। लोगों ने खींचकर समीप कर दिया। लड़की ने उसको देखा, चरण छुए और वह सदा के लिए चल बसी !
उस युवक के जीवन में महान् परिवर्तन हो गया। वह इन सारे दुर्गुणों को छोड़कर साधुस्वभाव हो गया। उसने इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए पुनः विवाह न करके ब्रम्हचारी-जीवन बिताने का निश्चय किया। उसी ने यह सब बातें लोगों को बतायीं। छः महीने बाद ही वह लापता हो गया। इस समय पता नहीं, कहाँ—किस अवस्था में है। इस घटना से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है।
कई वर्ष यों बीते। उसका द्वेष बढ़ता गया और उसमें किसी घोर पापमूलक हिंसावृत्ति पैदा हो गयी एक दिन दोपहर को किसी ट्रेन से कहीं जाने का प्रोग्राम बना। पहले दर्जे की दो टिकटें खरीदी गयीं। पत्नी को लेकर बाबू साहब ट्रेन में सवार हुए। उन दिनों भीड़ कम होती थी। पहले दर्जे के एक खाली डिब्बे में पत्नी को लेकर वह बैठ गया।
कुछ दूर जाने पर जब गाड़ी वेग से जा रही थी—उसने डिब्बे का फाटक खोला और किनारे की सीट पर बैठी हुई पत्नी को धक्का देकर बाहर गिरा दिया। मन में पहले से ही योजना बनायी हुई थी। इसी से पत्नी को दरवाजे के पास की सीट पर उसने बैठाया था। बेचारी अकस्मात् धक्का खाकर नीचे गिर पड़ी। भाग्य से बगल के डिब्बे के एक सज्जन बाहर की ओर सिर निकाले कुछ देख रहे थे। उन्होंने एक तरुणी स्त्री को गिरते देखकर जंजीर खींची; जंजीर में कुछ जंग लगा था, इससे उसके पूरा खीचने में भी कुछ देर लग गयी। इतने में गाड़ी दो-तीन मील आगे बढ़ गयी।
गाड़ी रुकी। उस बाबू ने सोचा था, मर गयी होगी। कह दिया जायगा—‘खिड़की अकस्मात् खुल गयी, वह खिड़की के सहारे किसी काम से खड़ी थी, अचानक गिर पड़ी।’ पर गाड़ी रुकते ही अपने पाप से उसका हदय काँप गया। आस-पास के लोग इकट्ठे हो गये। गार्ड आया। उसने रोनी सूरत बनाकर सोची हुई बात गार्ड से कह दी। गाड़ी उलटी चलाई गयी। वहाँ पहुँचने पर देखा गया—वह मरी तो नहीं है, पर चोट बहुत जोर से लगी है। उसको जीती देखकर इसका बुरा हाल हो गया। सोचा अब यह असली बात कह देगी और इससे लेने के देने पड़ जायँगे। उसका शरीर काँपने लगा; आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली। लोगों ने समझा, पत्नी बुरी तरह घायल हो जाने के कारण यह रो रहा है। लोग उसे समझाने लगे। लड़की को गाड़ी पर चढ़ाया गया। बड़ा स्टेशन आने पर उसे उतारकर अस्पताल पहुँचाने की व्यवस्था की जाने लगी। पर उसे मरणासन्न देखकर उसे मैजिस्ट्रेट को उसके आखिरी बयान के लिये बुला लिया। उसका पति तो अपने भविष्य की दुर्दशी को सोचता हुआ अलग बठा रो रहा था; समीप आने की भी उसकी हिम्मत नहीं थी। मैजिस्ट्रेट ने आकर लड़की का बयान लिया। उसने कहा—‘साहेब ! मुझे मिर्गी का पुराना रोग था, मैं लघुशंका को गयी थी। लौटकर कुल्ला करने जा रही थी, इतने में मिर्गी का दौरा आ गया। फाटक खुला था, मैं बेहोश होकर नीचे गिर पड़ी और मुझे चोट लग गयी।’ मैजिस्ट्रेट ने घुमा-फिराकर पूछा—‘तुम्हारे पति ने तो धक्का नहीं दिया न ?’ वह रोते-रोते बोली—‘राम-राम !’ वे बेचारे धक्का क्यों देते, वे तो इस समय बहुत दुःखी होंगे। उन्हें बुलाइये मैं उनके आखिरी दर्शन करके चरणों में प्रणाम कर लूँ।’
इस बीच वह समीप आ गया था। वह यह सब सुनकर दंग रह गया औ उसके हृदय में एक महान् वेदना पैदा हो गयी। डर के बदले पश्चात्ताप की आग जल उठी। ‘हाय ! कहाँ मैं घोर नीच, कहाँ यह पर साध्वी, जो इस मरणासन्न अवस्था में भी सावधानी के साथ मुझ नीच को बचा रही है।’ वह चीख उठा। लोगों ने खींचकर समीप कर दिया। लड़की ने उसको देखा, चरण छुए और वह सदा के लिए चल बसी !
उस युवक के जीवन में महान् परिवर्तन हो गया। वह इन सारे दुर्गुणों को छोड़कर साधुस्वभाव हो गया। उसने इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए पुनः विवाह न करके ब्रम्हचारी-जीवन बिताने का निश्चय किया। उसी ने यह सब बातें लोगों को बतायीं। छः महीने बाद ही वह लापता हो गया। इस समय पता नहीं, कहाँ—किस अवस्था में है। इस घटना से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है।
-रामेश्वर प्रसाद सिंह
सद्व्यवहार से अपराधी भी बदल सकते हैं
हम जिनको ‘दादाजी’ के रूप में पहचानते हैं, ऐसे एक
सज्जन के
साथ मुझे पंढरपुर जाना पड़ा। उनके हमेशा के ठहरने के स्थान पर हम ठहरे थे।
दूसरे दिन हम नदी पर स्नान करने गये और भीगे कपड़े से विठोबा के दर्शन कर
अपने निवास-स्थान पर वापस लौट आये। कपड़े बदलते समय दादाजी को पता चला कि
उनकी कीमती घड़ी और ‘पार्कर’ पेन कहीं गुम हो गयी।
दादीजी ने
वहाँ के निवास-स्थान के व्यवस्थापक को इस घटना की जानकारी देने के अलावा
और कुछ नहीं किया। जैसे कुछ भी न हुआ हो, ऐसे स्वस्थ-चित्त से दादाजी ने
अपना काम किया और हम बम्बई लौटने के लिये स्टेशन पर आये।
हम सब स्टेशन पर वेटिंग रूम में बैठे थे कि प्लेटफार्म पर घूमनेवाले एक गृहस्थ की ओर दादीजी का ध्यान गया। उनकी जेब में अपने पार्कर पेन-जैसी पेन देखकर दादाजी लिखने के बहाने अपनी डायरी खोलकर संदेह मिटाने के लिये उस गृहस्थ के पास पहुँचे और लिखने के लिये उन्होंने विनयपूर्वक पेन की मांग की। दादाजी का संदेह सही निकला। उस पेन पर उनका नाम लिखा हुआ था। उन्होंने सभ्यता पूर्वक उस गृहस्थ को बताया कि पेन उनकी है और पूछा कि ‘यह पेन आपके पास कैसे पहुँची ?’ उस गृहस्थ ने कहा—पेन आपकी है तो आप ले लीजिये।’
दादाजी ने पेन अपने होने का सबूत दिया। उस गृहस्थ ने बताया कि यह पेन उन्होंने सुबह एक लड़के से पंद्रह रुपये में खरीदी थी। दादाजी ने तुरंत उनको पंद्रह रुपये गिनकर दे दिये। पेन वापस मिली, अब तो शायद घड़ी भी मिल जायगी; ऐसा विचार कर और उन गृहस्थ को भी हमारी गाड़ी में ही जाना था तो उनकी भी अपने साथ वहाँ के निवास-स्थान पर आने के लिये विनती की। वहाँ पहुँचकर व्यवस्थापक को सब बातें बतायी गयीं। उन्होंने सब नौकरों को बुलाया। हमारे साथ आये हुए गृहस्थ ने उन सबमें एक लड़के को पहचानकर कहा कि इसी ने सुबह पेन बेची थी।
हम सब स्टेशन पर वेटिंग रूम में बैठे थे कि प्लेटफार्म पर घूमनेवाले एक गृहस्थ की ओर दादीजी का ध्यान गया। उनकी जेब में अपने पार्कर पेन-जैसी पेन देखकर दादाजी लिखने के बहाने अपनी डायरी खोलकर संदेह मिटाने के लिये उस गृहस्थ के पास पहुँचे और लिखने के लिये उन्होंने विनयपूर्वक पेन की मांग की। दादाजी का संदेह सही निकला। उस पेन पर उनका नाम लिखा हुआ था। उन्होंने सभ्यता पूर्वक उस गृहस्थ को बताया कि पेन उनकी है और पूछा कि ‘यह पेन आपके पास कैसे पहुँची ?’ उस गृहस्थ ने कहा—पेन आपकी है तो आप ले लीजिये।’
दादाजी ने पेन अपने होने का सबूत दिया। उस गृहस्थ ने बताया कि यह पेन उन्होंने सुबह एक लड़के से पंद्रह रुपये में खरीदी थी। दादाजी ने तुरंत उनको पंद्रह रुपये गिनकर दे दिये। पेन वापस मिली, अब तो शायद घड़ी भी मिल जायगी; ऐसा विचार कर और उन गृहस्थ को भी हमारी गाड़ी में ही जाना था तो उनकी भी अपने साथ वहाँ के निवास-स्थान पर आने के लिये विनती की। वहाँ पहुँचकर व्यवस्थापक को सब बातें बतायी गयीं। उन्होंने सब नौकरों को बुलाया। हमारे साथ आये हुए गृहस्थ ने उन सबमें एक लड़के को पहचानकर कहा कि इसी ने सुबह पेन बेची थी।
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