गीता प्रेस, गोरखपुर >> मानवता का पुजारी मानवता का पुजारीगीताप्रेस
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प्रस्तुत है मानवता का पुजारी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
नम्र निवेदन
मानवता का पुजारी नामक इस पुस्तक में बहुत ही मंगलमयी प्रेरणादायक सत्य
घटनाओं का संग्रह है। इसमें ऐसी भी घटना का वर्णन है, जिनसे पतन के पथ से
हटकर उत्थान के सत्य पथ पर आरूढ़ तथा अग्रसर होने में बड़ी सहायता मिलती
है। अपना उत्थान चाहने वाले सभी लोगों को इससे लाभ उठाना चाहिये।
प्रकाशक
श्रीहरि:
मानवता का पुजारी
(पढ़ो, समझो और करो)
गत् 1956 ई. में भाषावाद के ठेकेदारों ने बम्बई में बड़ा फसाद फैलाया था।
जगह-जगह लूटपाट और तोड़-फोड़ चल रही थी। इस प्रकार का दंगा होने पर भी कुछ
लोग कौतूहलवश शहर में कहाँ कैसा दंगा हो रहा है, इसे देखने जा रहे थे। मैं
भी फ्लोरा फाउन्टेन और म्यीजियम की ओर दंगा देखने गया था। शाम को लगभग
चार-पाँच बजे मैं घर आने के लिये बस पर सवार हुआ। हमारी वह बस दो या तीन
स्टाप ही गुजरी थी कि सामने से डेढ़-दो सौ लोगों का समूह आता दिखायी
दिया.............। समीप आकर उन्होंने बस रुकवा दी। इसी बीच में ड्राइवर
अपनी जान बचाने के लिये बस छोड़कर भाग गया; परन्तु उसी समय बस में से एक
तरुण जल्दी से उठा और उसने बस का संकटकालीन द्वार खोलकर सबसे कहा-
‘आपलोग तुरंत इस मार्ग से बाहर निकल जाइये, तब तक मैं इस टोले
को
रोके रखता हूँ।’ इतना कहकर वह जवान बस के दरवाजे के पास गया और
उसने
दरवाजे का हैंडल पकड़कर अंदर घुसते टोले को रोक लिया। इधर जिसको जो रास्ता
दिखायी दिया, उसी ओर सब लोग भाग गये; परन्तु उनमें से किसी के भी मन में
यह विचार नहीं आया कि हम लोगों की रक्षा के लिये जिसने बस के अंदर घुसते
हुए समूह को रोक रखा, उसकी क्या दशा होगी ? अवश्य ही उन्हीं लोगों में मैं
भी था; क्योंकि उस समय मुझे अपने प्राणों की लगी थी।
दूसरे दिन सबेरे समाचार पत्र पढ़ने के लिये उठाया तो उसमें पहले ही पृष्ठ पर बड़े-बड़े टाइपों में छपे शीर्षक पर मेरी दृष्टि अटक गयी। लिखा था, ‘फ्लोरा फाउन्टेन पर जलायी गयी बस, मुसाफिरों की भगदड़, एक युवक को भयंकर चोट, अस्पताल में उसकी चालू बेहोशी......’ पढ़कर मेरे शरीर में एक क्षीण-सी कँपकँपी छूट गयी। मेरा मन कहने लगा- ‘यह वही युवक तो नहीं है, जिसने हम लोगों को बस में से बचाकर बाहर निकाला था। उसी समय मेरे मन में उस युवक से मिलने की उत्कण्ठा बढ़ गयी और मैं अस्पताल की ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर मैंने जो कुछ देखा, उससे मेरे पैर वहीं रुक गये। हाय ! यह वही युवक है, जिसने बस में हम लोगों को बचाया था। इस समय उसको होश था, मैंने उससे तबीयत के बारे में पूछा- परन्तु वह बोल नहीं पा रहा था। इससे उसने आँख के इशारे से मुझे पास बुलाया। मैंने उसके पास जाकर नाम पूछा। उसने बड़ी मुश्किल से बहुत धीमे स्वर में कहा- ‘आनन्द’। मैंने कहा- ‘आपके घरवालों को पता लगा है कि नहीं।’ उसने ‘न’ कार में सिर हिलाया। ‘मुझे पता दीजिये मैं उनको खबर कर दूँगा’ मैंने कहा।
तकिये के नीचे से कागज निकालते हुए बहुत ही धीमी तथा रूँधी आवाज में उसने कहा- ‘यह.......मे.........रा..........पता.............है, हो.........सके तो........तार देकर वहाँ जना दीजिये- कि ‘तुम्हारा आनन्द मृत्यु को प्राप्त’- इतना कहते-कहते ही उसका मस्तक ढुलक गया और उसके प्राणपखेरू इस स्वार्थी जगत् का त्याग करके उड़ गये ! इसी समय डाक्टर ने कमरे में प्रवेश करके उसे चद्दर उढ़ा दी। इस करुण दृश्य को देखकर मेरे हृदय को बड़ा धक्का लगा और सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा- ‘चला गया मानवता का पुजारी।’- अखण्ड आनन्द’
दूसरे दिन सबेरे समाचार पत्र पढ़ने के लिये उठाया तो उसमें पहले ही पृष्ठ पर बड़े-बड़े टाइपों में छपे शीर्षक पर मेरी दृष्टि अटक गयी। लिखा था, ‘फ्लोरा फाउन्टेन पर जलायी गयी बस, मुसाफिरों की भगदड़, एक युवक को भयंकर चोट, अस्पताल में उसकी चालू बेहोशी......’ पढ़कर मेरे शरीर में एक क्षीण-सी कँपकँपी छूट गयी। मेरा मन कहने लगा- ‘यह वही युवक तो नहीं है, जिसने हम लोगों को बस में से बचाकर बाहर निकाला था। उसी समय मेरे मन में उस युवक से मिलने की उत्कण्ठा बढ़ गयी और मैं अस्पताल की ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर मैंने जो कुछ देखा, उससे मेरे पैर वहीं रुक गये। हाय ! यह वही युवक है, जिसने बस में हम लोगों को बचाया था। इस समय उसको होश था, मैंने उससे तबीयत के बारे में पूछा- परन्तु वह बोल नहीं पा रहा था। इससे उसने आँख के इशारे से मुझे पास बुलाया। मैंने उसके पास जाकर नाम पूछा। उसने बड़ी मुश्किल से बहुत धीमे स्वर में कहा- ‘आनन्द’। मैंने कहा- ‘आपके घरवालों को पता लगा है कि नहीं।’ उसने ‘न’ कार में सिर हिलाया। ‘मुझे पता दीजिये मैं उनको खबर कर दूँगा’ मैंने कहा।
तकिये के नीचे से कागज निकालते हुए बहुत ही धीमी तथा रूँधी आवाज में उसने कहा- ‘यह.......मे.........रा..........पता.............है, हो.........सके तो........तार देकर वहाँ जना दीजिये- कि ‘तुम्हारा आनन्द मृत्यु को प्राप्त’- इतना कहते-कहते ही उसका मस्तक ढुलक गया और उसके प्राणपखेरू इस स्वार्थी जगत् का त्याग करके उड़ गये ! इसी समय डाक्टर ने कमरे में प्रवेश करके उसे चद्दर उढ़ा दी। इस करुण दृश्य को देखकर मेरे हृदय को बड़ा धक्का लगा और सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा- ‘चला गया मानवता का पुजारी।’- अखण्ड आनन्द’
-अर्जुन एल्. राठौर
ताँगे वाले की आदर्श ईमानदारी और सेवाभाव
घटना पुरानी नहीं, मुश्किल से कुछ ही वर्ष हुए होंगे। मध्यप्रदेश के एक
प्रतिष्ठित व्यापारी पचास हजार रुपये लेकर दक्षिण में (मैसूर, मदुरा और
मद्रास) माल खरीदने के लिये जा रहे थे। इस प्रान्त में शतरंजी और साडियाँ
एवं मैसूर में चन्दन की लकड़ी की कलामय वस्तुएँ अच्छी और सुन्दर बनती हैं।
व्यापारी ने एक-एक हजार के 50 नोट बनियान की दोनों जेबों में रख लिये और
जेबों में खूब सी लिया था। सबसे पहले यह व्यापारी मैसूर उतरकर यहाँ से 14
मील दूर कृष्णराज-सागर का बाँध और इलेक्ट्रिक प्रदर्शन देखने गया।
यह प्रदर्शनीय स्थल शाम को 4 बजे से रात के 10 बजे तक मैसूर-सरकार की ओर से आम जनता के लिये खुला रहता था। व्यापारी ने कृष्णराज-सागर का बाँध एवं अद्भुत विद्युत-प्रकाश, जो कि फव्वारों और क्यारियों में अपनी अनोखी छटा दिखाकर दर्शनों को मोहित कर लेता है, देखा। देखकर वह पुलकी सीढ़ियों पर चढ़ रहा था कि उसे अचानक चक्कर आया और वह पुलकी सीढियों पर लुढ़कता हुआ नीचे आ गया। व्यापारी का शारीरिक सुदृढ़ गठन और शारीरिक शक्ति अच्छी थी। अत: वह हाथ-पैरों एवं मस्तिष्क का रक्त पोंछकर फिर पुलकी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। अन्तिम सीढ़ी पर ज्यों ही पैर रखा कि उसे फिर जबर्दस्त चक्कर आया और दूसरी बार पुन: सीढ़ियों पर लुढ़कने लगा। पुलके पास ही ताँगा-स्टैंड है। कई ताँगेवाले खड़े थे, जिनमें से एक ताँगे वाले ने इस व्यापारी को पुल की सीढ़ियों से लुढ़कते देख लिया। वह चाबुक को ताँगे में रखकर पुल पर आया। तब तक आहत व्यापारी लुढ़कता हुआ सबसे नीचे की सीढ़ी पर आकर लहूलुहान हालत में पड़ा था। बेहोशी भी आ गयी थी।
ताँगेवाले ने उस रक्तरंजित व्यापारी को, जिसके वस्त्र रक्त में सने थे, गोदी में उठाया और जैसे-तैसे सीढ़ियाँ चढ़कर ताँगे में सुला दिया। एक हाथ से व्यापारी को, जो कि वह मृतक-सी अवस्था में था, पकड़े और एक हाथ से घोड़े की रास थामे अपने घोड़े को हाँक रहा था। चार-पाँच मील चलने के बाद व्यापारी को कुछ होश-सा आया और उसने लड़खड़ाती जबान से पूछा- ‘कौन ?’ ‘मै हूँ ताँगेवाला। मैंने आपको कृष्णराज सागर के पुल के जीने से गिरते हुए देखा था। आपके साथ कोई था नहीं और आप बेहोशी की हालत में थे। मेरे मन में आया कि मैं एक घायल व्यक्ति की सेवा करूँ और आपको अपने घर पहुँचा दूँ। हूँ तो ताँगेवाला, पर ईमानदार हूँ और ईमानदारी के लिये ही जीता हूँ।’
व्यापारी ने कोट की जेब में से एक सौ का नोट निकालकर ताँगेवाले को देते हुए कहा ‘लो तुम्हारे लिये इनमा।’
ताँगेवाले ने व्यापारी से कहा- ‘सेवा का मूल्य सोने-चाँदी के टुकड़ों या कागज के रंगीन टुकड़ों से नहीं आँका जा सकता। मैं आपको इसलिये नहीं लाया कि आप मुझे इनाम दें और न मुझे इस प्रकार का लोभ-लालच ही है। मेरा पेशा है कि सभ्य समाज इस पेशे को हलका पेशा कहता है और हमारे समाज को बेईमान, धोखेबाज, चालबाज बतलाता है। पर ऐसी बात नहीं है। मैं तो भगवान् को चारों ओर देखकर जीता हूँ। मुझे डर लगता है कि यदि मैं बेईमान हो गया तो भगवान् के न्यायालय में क्या उत्तर दूँगा। मैं ऐसा मानता हूँ कि इस प्रकार मेरा डरना मेरे लिये ईमानदार बनने के संबंध में रामबाण सिद्ध हुआ है।’
ताँगेवाले का लम्बा भाषण सुनकर व्यापारी ने कोट की दूसरी जेब में से सौ- सौ के पाँच नोट निकाल ताँगेवाले के हाथ पर रख दिये। ताँगेवाले अबकी बार झल्ला उठा और उसने कहा, ‘माफ कीजिये, मुझे एक भी पाई आपसे लेना हराम है !’ और उसने सौ-सौ के पाँच नोट व्यापारी को लौटा दिये, किन्तु नोट व्यापारी के हाथों में न जाकर ताँगे में ही गिर गये। ताँगेवाले ने मुड़कर देखा तो व्यापारी बेहोश हो गया था और उसके मुँह से सफेद झाँग निकल रहे थे।
यह प्रदर्शनीय स्थल शाम को 4 बजे से रात के 10 बजे तक मैसूर-सरकार की ओर से आम जनता के लिये खुला रहता था। व्यापारी ने कृष्णराज-सागर का बाँध एवं अद्भुत विद्युत-प्रकाश, जो कि फव्वारों और क्यारियों में अपनी अनोखी छटा दिखाकर दर्शनों को मोहित कर लेता है, देखा। देखकर वह पुलकी सीढ़ियों पर चढ़ रहा था कि उसे अचानक चक्कर आया और वह पुलकी सीढियों पर लुढ़कता हुआ नीचे आ गया। व्यापारी का शारीरिक सुदृढ़ गठन और शारीरिक शक्ति अच्छी थी। अत: वह हाथ-पैरों एवं मस्तिष्क का रक्त पोंछकर फिर पुलकी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। अन्तिम सीढ़ी पर ज्यों ही पैर रखा कि उसे फिर जबर्दस्त चक्कर आया और दूसरी बार पुन: सीढ़ियों पर लुढ़कने लगा। पुलके पास ही ताँगा-स्टैंड है। कई ताँगेवाले खड़े थे, जिनमें से एक ताँगे वाले ने इस व्यापारी को पुल की सीढ़ियों से लुढ़कते देख लिया। वह चाबुक को ताँगे में रखकर पुल पर आया। तब तक आहत व्यापारी लुढ़कता हुआ सबसे नीचे की सीढ़ी पर आकर लहूलुहान हालत में पड़ा था। बेहोशी भी आ गयी थी।
ताँगेवाले ने उस रक्तरंजित व्यापारी को, जिसके वस्त्र रक्त में सने थे, गोदी में उठाया और जैसे-तैसे सीढ़ियाँ चढ़कर ताँगे में सुला दिया। एक हाथ से व्यापारी को, जो कि वह मृतक-सी अवस्था में था, पकड़े और एक हाथ से घोड़े की रास थामे अपने घोड़े को हाँक रहा था। चार-पाँच मील चलने के बाद व्यापारी को कुछ होश-सा आया और उसने लड़खड़ाती जबान से पूछा- ‘कौन ?’ ‘मै हूँ ताँगेवाला। मैंने आपको कृष्णराज सागर के पुल के जीने से गिरते हुए देखा था। आपके साथ कोई था नहीं और आप बेहोशी की हालत में थे। मेरे मन में आया कि मैं एक घायल व्यक्ति की सेवा करूँ और आपको अपने घर पहुँचा दूँ। हूँ तो ताँगेवाला, पर ईमानदार हूँ और ईमानदारी के लिये ही जीता हूँ।’
व्यापारी ने कोट की जेब में से एक सौ का नोट निकालकर ताँगेवाले को देते हुए कहा ‘लो तुम्हारे लिये इनमा।’
ताँगेवाले ने व्यापारी से कहा- ‘सेवा का मूल्य सोने-चाँदी के टुकड़ों या कागज के रंगीन टुकड़ों से नहीं आँका जा सकता। मैं आपको इसलिये नहीं लाया कि आप मुझे इनाम दें और न मुझे इस प्रकार का लोभ-लालच ही है। मेरा पेशा है कि सभ्य समाज इस पेशे को हलका पेशा कहता है और हमारे समाज को बेईमान, धोखेबाज, चालबाज बतलाता है। पर ऐसी बात नहीं है। मैं तो भगवान् को चारों ओर देखकर जीता हूँ। मुझे डर लगता है कि यदि मैं बेईमान हो गया तो भगवान् के न्यायालय में क्या उत्तर दूँगा। मैं ऐसा मानता हूँ कि इस प्रकार मेरा डरना मेरे लिये ईमानदार बनने के संबंध में रामबाण सिद्ध हुआ है।’
ताँगेवाले का लम्बा भाषण सुनकर व्यापारी ने कोट की दूसरी जेब में से सौ- सौ के पाँच नोट निकाल ताँगेवाले के हाथ पर रख दिये। ताँगेवाले अबकी बार झल्ला उठा और उसने कहा, ‘माफ कीजिये, मुझे एक भी पाई आपसे लेना हराम है !’ और उसने सौ-सौ के पाँच नोट व्यापारी को लौटा दिये, किन्तु नोट व्यापारी के हाथों में न जाकर ताँगे में ही गिर गये। ताँगेवाले ने मुड़कर देखा तो व्यापारी बेहोश हो गया था और उसके मुँह से सफेद झाँग निकल रहे थे।
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