गीता प्रेस, गोरखपुर >> सुखी जीवन सुखी जीवनश्रीमैत्री देवी
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प्रस्तुत पुस्तक में मानव जीवन को सुखी बनाने के उपाय बतलाये गये है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ॐ
कृतज्ञता-प्रकाश
सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, आनन्दमय भगवान् राम ! आपके
पतित पावन चरण कमलों में कोटिश: प्रणाम है ! आपकी ही अनुपम कृपा से मुझ
अबला को ‘सुखी जीवन’ की माला गूँथने की प्रेरणा
प्राप्त हुई।
श्रीमान् हनुमानप्रसादजी पोद्दार सम्पादक ‘कल्याण’ की मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इसकी भूल सुधारकर समय-समय पर इसके लेख अपने मासिक पत्र ‘कल्याण’ में प्रकाशित किये।
सभी सहृदय भाई तथा बहिनों का हृदय से धन्यवाद करती हूँ, जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से प्रेमपूर्वक मेरी सहायता की।
श्रीमान् हनुमानप्रसादजी पोद्दार सम्पादक ‘कल्याण’ की मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इसकी भूल सुधारकर समय-समय पर इसके लेख अपने मासिक पत्र ‘कल्याण’ में प्रकाशित किये।
सभी सहृदय भाई तथा बहिनों का हृदय से धन्यवाद करती हूँ, जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से प्रेमपूर्वक मेरी सहायता की।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
।।श्रीहरि:।।
निवेदन
बचपन में ही मैं सुख और आनन्द की खोज में निकली थी, परन्तु बचपन समाप्त
हुआ और युवावस्था भी बीतने को आयी; तो भी सच्चा सुख न मिला। आखिर निराश हो
मैं एक वृक्ष के नीचे जा बैठी उस समय वहाँ एक देवी आयीं और चिन्तातुर देख
प्रेमभरी दृष्टि से मुसकराती हुई मधुर वचन बोलीं।
देवी-‘यहाँ निराश होकर मनमारे क्यों बैठी हो ?
तुम्हारा कुछ खो गया है ? बताओ, तुम क्या ढूँढ रही हो ?’
मैं- ‘सुख ढूँढ रही हूँ।’
देवी-‘क्या कहा ? सुख ढूँढ रही हो ? सुख-स्वरूप तो तुम स्वयं ही हो। इतना ही नहीं, सुख-आनन्द से तो यह सारा संसार ही परिपूर्ण है।’
मैं-‘परन्तु मुझे तो सुख इस संसार में कहीं भी प्रतीत नहीं होता।
देवी-‘यहाँ निराश होकर मनमारे क्यों बैठी हो ?
तुम्हारा कुछ खो गया है ? बताओ, तुम क्या ढूँढ रही हो ?’
मैं- ‘सुख ढूँढ रही हूँ।’
देवी-‘क्या कहा ? सुख ढूँढ रही हो ? सुख-स्वरूप तो तुम स्वयं ही हो। इतना ही नहीं, सुख-आनन्द से तो यह सारा संसार ही परिपूर्ण है।’
मैं-‘परन्तु मुझे तो सुख इस संसार में कहीं भी प्रतीत नहीं होता।
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