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परछाइयाँ
परछाइयाँ
प्रकाशक :
लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2017 |
पृष्ठ :303
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 10181
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आईएसबीएन :9789352211548 |
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
परछाइयाँ ‘परछाइयाँ’ आत्म-कथा नहीं, जीवन-गाथा है। इसमें जीवन के अनुभवों और निष्कर्षों को अनावृत्त किया गया है। इस पुस्तक की पंक्तियों में पाठक स्वयं अपने जीवन में घटित घटनाओं की अनुभूति करता चलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता और सरलता से किया गया विश्लेषण श्रीमती महिमा मेहता के संवदेनशील मन को भी उजागर कर देता है। जीवन में संघर्ष क्या होता है और उससे जूझने के लिये सकारात्मक एवं आस्थावादी दृष्टि वैसी भूमिका निभाती है इसका दिग्दर्शन कराती है ‘परछाइयाँ’। इन परछाईयों में जो चित्र उभरते चलते हैं उनको कुशल चितेरे की भाँति उकेरने में लेखिका अत्यन्त सफल रही है।
इस संस्मरणात्मक उपन्यास में केवल घटनाएँ नहीं, अपने समय की परिक्रमा है। वह जो बीत गया है, वह अब नहीं लौटता, लेकिन स्मृतियों में बस जाता है। प्रसाद जी के ‘आँसू’ की रचना विकल वेदना के उभरने पर सम्भव हुई थी। लेकिन यह संस्मरणात्मक उपन्यास जीवन के एकाकीपन की सहचर हैं। महिमा जी गद्य लेखन करती हैं और सहज-सरल भाषा में अपने संवेगों को सम्प्रेषित करती हैं। वे ऐसे समय में लिख रही हैं जब शारीरिक पीड़ा व्यथित करती है और इस एकाकीपन में स्मृतियाँ ही साथ देती हैं।
पाठक आश्चर्यकित होगा कि उन स्मृतियों के सकारात्मक पहलुओं को लेखिका किस कुशलता से चित्रित करती हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में ये प्रकाशस्तम्भ का काम करेंगी। लेखिका का विश्वास है कि कुछ मूल्य ऐसे होते हैं जो जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। यही मूल्य हैं जिन्हें महिमा जी ने प्रयासपूर्वक सँजोया ही नहीं, अपनी स्मृति का हिस्सा बनाया है। आज के युग में उन मूल्यों के सजीव चित्रण ने ‘परछाइयाँ’ को विशिष्टता प्रदान की है।
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