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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन


मनुष्यका मन महान् शक्तियोंका बृहत् भंडार है (Dynamo of creative energy)। एक-से-एक दिव्य शक्ति इसमें निवास करती है। छोटे-बड़े, विद्वान्-मूर्ख सभीमें ये शक्तियाँ बीज रूपसे विद्यमान रहती हैं। किसीमें ये सुप्त, किसीमें निर्बल, किसीमें अविकसित अवस्थामें प्रस्तुत हैं। सामर्थ्यवान् और जड़ व्यक्तिमें अन्तर केवल यही है कि एकमें तो यह बीज उत्तम भूमिमें पर्याप्त जलद्वारा अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित हुआ है और दूसरोंमें वह ज्यों-का-त्यों पहिले जैसा ही बीज रूपमें वर्तमान है। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि यदि मेरे नियमोंका निरन्तर पालन किया जाय तो मूर्ख-से-मूर्ख और जड़ भी अपने इच्छानुसार इन शक्तियोंको जाग्रत् कर सकता है। नियमित अभ्यास और साधनद्वारा इनकी वृद्धि हमारी अवस्थाके साथ-साथ हो सकती है और हम पूर्ण सामर्थ्यवान् बन सकते हैं।

मानसिक शक्तियोंका प्रदर्शन परिपुष्ट मस्तिष्कद्वारा होता है। उत्तम मस्तिष्कके द्वारा ही मन अपने अद्भुत सामर्थ्यका प्रदर्शन कर सकता है। मस्तिष्कको भलीभांति प्रकट एवं विकसित करनेके लिये तीन मुख्य तत्त्वोंपर विचार करना चाहिये। इन तीनोंका स्वरूप इस प्रकार है-

(१) उत्तम पूर्ण परिपुष्ट मस्तिष्क।

(२) मानसिक शक्तियोंका यथार्थ ज्ञान।

(३) मनकी पोषक शक्तियोंका क्रमानुसार संचय।

मस्तिष्कको केवल एक अति सूक्ष्म यन्त्र या डायनमो समझिये। विद्युत् उत्पन्न करनेवाले डायनमोकी भांति मस्तिष्क विचार उत्पन्न करता है। हमारे मनके विभिन्न भागोंमें भिन्न-भिन्न शक्तियोंके सूक्ष्म केन्द्र हैं। कुछका केन्द्र मस्तिष्कके अग्र, कुछका मध्य और कुछका पृष्ठ भागमें है। मस्तिष्कके जिस भागमें ये शक्तियाँ मुख्यतः निवास करती हैं, उस भागमें स्थित कोषों (Cells) की संख्याके परिमाणमें वे शक्तियाँ कम या अधिक होती हैं। यदि मस्तिष्कका कोई भाग निकम्मा छोड़ दिया जाय तो फिर शनैः-शनैः व्यर्थकी क्रिया करनेके अतिरिक्त उसमें अन्य किसी कार्यको करनेकी क्षमता नहीं रह जाती। यहाँतक कि कितने ही भाग उपेक्षित होनेके कारण निर्बल और निकम्मे हो जाते हैं। भक्ति-भाव, पूज्य-भावादि शक्तियोंका स्थान मस्तिष्कका मूर्धन्य है। जिस मनुष्यकी मूर्धामें उपर्युक्त कोष कम होते हैं, उसमें ईश्वरके प्रति भक्तिभाव और गुरुजनोंके प्रति पूज्यभाव कम देखा जाता है। जो शक्तियाँ कपालके नीचेके अर्ध भागमें निवास करती हैं, वे विद्या, कला-विषयोंकी खोज तथा कार्य-साधनसे सम्बन्धित हैं। जिनमें ये विकसित होती हैं वे निरर्थक बातें नहीं करते, व्यवस्थापूर्वक कार्य करते हैं और किसी कार्यको एक बार हाथमें लेकर नहीं छोड़ते। यद्यपि उनमें तर्क-वितर्क करनेकी क्षमता नहीं होती, किंतु फल प्राप्त करनेकी सामर्थ्य रखते हैं। यदि आप इन मानसिक शक्तियोंका विकास करना चाहें तो कपालके नीचेके अग्रभागके कोषोंकी वृद्धि करें। आप अपनी चित्तवृत्ति मस्तिष्कके मध्यबिंदुपर एकाग्र कीजिये! निरन्तर सोचनेसे उस भागमें रुधिरकी गति बढ़ जायगी और एकाग्रतासे वह भाग पुष्ट होने लगेगा।

कपालके ऊपरी आधे भागमें बुद्धिकी शक्तियाँ अपना-अपना व्यापार करती हैं। इस भागका विकास करनेके लिये मस्तिष्कके मध्यबिंदुसे कपालके ऊपरके अर्धभागतक रहनेवाले सूक्ष्म द्रव्यपर एकाग्रता करनी चाहिये। इस प्रदेशके कोषोंकी वृद्धिसे बुद्धिकी शक्तियाँ तेजस्विनी होती हैं और विषयोंको समझनेकी शक्तिकी वृद्धि होती है। नित्यके अभ्यासद्वारा बुद्धिका बल इतना बढ़ जाता है कि जिस विषयपर उसे स्थिर करें, उसीपर आर-सें-पार हो जाती है।

कानके छिद्रके आगेसे सिरकी चोटीतक एक खड़ी सीधी रेखा खींचिये। जहाँ इसका अन्त होगा उसके ठीक पीछेके भागमें श्रद्धा, दृढ़ता, आत्मबल, विश्वास इत्यादि दिव्य शक्तियाँ निवास करती हैं। इनपर एकाग्रता करनेसे यदि कोष कम होंगे तो, अधिक; दुर्बल होंगे तो, सबल; और बलवान् होंगे तो और मजबूत हो जायँगे।

मस्तकके पीछे नीचेके भागमें प्रयत्न करनेके सामर्थ्यकी शक्ति होती है। जिस मनुष्यमें यह शक्ति विकसित अवस्थामें होती है वह किसी कामको करनेमें पीछे नहीं रहता। वह किसी कामको कठिन समझकर यों ही नहीं छोड़ देता; क्योंकि उसे लगातार मस्तिष्कके उस भागसे सहारा मिला करता है। जिस मनुष्यमें आत्म-श्रद्धाकी शक्ति विकसित होती है वह अपने प्रयत्नोंमें सदैव सफलमनोरथ होता है। कभी-कभी देखा गया है कि अनेक आग्रहसे कोई कार्य करनेवालोंके मस्तिष्कके पिछले भागमें वेदना मालूम होने लगती है। इस वेदनाका अर्थ यही है कि सामर्थ्य-शक्ति-कोषों (Cells) में दुर्बलता है और एकाग्रताद्वारा उनके पोषणकी आवश्यकता है। एकाग्रता करते समय सोचिये कि मेरे उस विशिष्ट भागमें सूक्ष्म पौष्टिक प्रवाह बह रहा है, कोष पुष्ट हो रहे हैं, थकावट कम हो रही है। मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, मेरे मस्तकमें प्रत्येक ओर चैतन्य व्याप रहा है और सारा शरीर चैतन्यसे ओतप्रोत हो रहा है-इस प्रकार एकाग्रता करनेसे यथेष्ट सामर्थ्यका संचय होगा।

कपालके ऊपरके भागमें, जहाँ अंदरसे बालोंकी जड़ें शुरू होती है, यह ज्ञान है कि किस मौकेपर (Tact) क्या करना चाहिये। इस निरीक्षण-शक्तिको जाग्रत् करनेके लिये पूर्वकथनानुसार एकाग्रता करके वहांके कोषोंको परिपुष्ट एवं विशुद्ध करना चाहिये। कठिन-से-कठिन विषयकी गुत्थियाँ भी इस शक्तिसे सरललापूर्वक सुलझायी जा सकती हैं।

मस्तिष्ककी बिचली सतहसे नाड़ियोंके बारह जोड़े निकलते हैं। प्रत्येक जोड़ा शरीरको कुछ-न-कुछ ज्ञान देता है। ये नाड़ियाँ गर्दनको विशेष पट्टे भेजती हैं जिससे हमें कुछ-न-कुछ नवीन बात मालूम होती है। इच्छाशक्तिका यथार्थ स्थान कहाँ है? इसका उत्तर ओ हष्णुहारा नामक लेखिकाने अपनी पुस्तक  'Conectration and the acquirement of personal magnestism' में इस प्रकार दिया है-

'मेरी सम्मतिमें इच्छा अथवा संकल्प-शक्तिका स्थित स्थान नाड़ियोंके उस तेजस्क ओजके भीतर निश्चित किया जा सकता है जो मस्तिष्कको चारों ओरसे घेरे हुए है।' अतएव संकल्प-शक्तिके विकासके लिये यहांके कोषोंकी वृद्धि कीजिये।

मस्तिष्कके विभिन्न कोषोंपर एकाग्रता करनेसे हमारे रुधिरकी गति उस ओर होने लगती है और उनकी संख्यामें वृद्धि तथा विकास होता है। कोई भी कोष हों, बढ़ाने जरूरी हैं। यदि सब बढ़े तो उत्तम है। अतः किस विशेष भागके कोष बढ़ावे ऐसा न सोचकर इस भावनापर मन एकाग्र कीजिये कि हमारे मस्तिष्कके सब कोष निरन्तर बढ़ रहे हैं। हम निरीक्षणशक्ति, तुलनाशक्ति, न्यायशक्ति, विवेकशक्ति, संकल्पशक्ति सबको ही बढ़ा रहे हैं। यह भाव केवल ऊपरी दिखावामात्र न होकर पूर्ण अनुभूतियुक्त होना आवश्यक है। उस समय अपनी कल्पनाद्वारा वैसा ही अनुभव करना चाहिये। प्रारम्भमें आत्मस्वरूपकी भावना करनेकी बात कभी न भूलनी चाहिये।

कोषोंकी वृद्धिकी क्रिया जमीनको जोतकर तैयार करनेके समान है। जिस प्रकार उत्तम रीतिसे जोते हुए खेतमें बीज अच्छे उगते है, उसी प्रकारके कोषवाले मस्तिष्कमें मानसिक शक्तियाँ उत्तम रीतिसे विकसित होती हैं। इसलिये जिस प्रकारकी शक्तिको हम विकसित करनेकी इच्छा रखते हैं, उसका यथार्थ स्वरूप हमारे लक्ष्यमें रहना अनिवार्य है। ध्यातामें, ध्यान करनेकी वस्तुके स्वरूपकी यथार्थ कल्पना अत्यन्त आवश्यक है। योगशास्त्रका यह एक अखण्डनीय सिद्धान्त है कि ध्यान करनेवाला जिसका ध्यान करता है, उसीके समान हो जाता है। अतः मानसिक शक्तियोंका विकास चाहनेवालोंको भी जिस शक्तिका विकास करना हो, उसके स्वरूपको अच्छी तरह लक्ष्यमें रखना चाहिये।

कल्पना कीजिये कि हम अपने अंदर श्रद्धा, भक्तिभाव, अन्तर्ज्ञान इत्यादि आध्यात्मिक शक्तियाँ विकसित करना चाहते हैं। इन शक्तियोंके जाग्रत् और विकसित होनेका स्थान मूर्धा और उसके नीचेका प्रदेश है। इन स्थानोंमें एकाग्रता करते समय हम सच्ची भक्ति, सच्ची श्रद्धा और अन्तर्ज्ञानके जिस नमूनेको सामने रखेंगे, वही हममें क्रमशः प्रकटहोने लगेगा। अतएव जिस शक्तिके विकासका हमने निश्चय किया है, उसके ऊँचे-से-ऊँचे स्वरूपकी, जहाँतक हमारी बुद्धि पहुँच सके वहाँतक, कल्पना करनी चाहिये और उस उच्च कल्पनामें वृत्तिको आरूढ़ करके पूर्वोक्त क्रिया श्रद्धापूर्वक करनी चाहिये। इससे मस्तिष्कके कोष बढ़ेंगे, शुद्ध होंगे और वह काल्पनिक शक्ति धीर-धीर बढ़ने लगेगी।

तीसरी बात है सामर्थ्यकी। मन जिस सामर्थ्यसे परिपुष्ट होता है उस सामर्थ्यकी वृद्धि करनेकी भी आवश्यकता है। प्रत्येक मनुष्यमें यह सामर्थ्य एक बड़े परिमाणमें प्रस्तुत रहता है; पर अधिकांश व्यक्ति इसका अधिकतर भाग निकम्मी क्रियाओंमें यों ही नष्ट कर दिया करते हैं। बैठे-बैठे पाँव हिलाना, आँख, नाक या गुप्त अंग टटोलते रहना, साररहित बातें सोचना, या यों ही बेमतलबकी बातें करना या सुपारी चबाते रहना आदि शरीरकी निकम्मी क्रियाएँ हैं। इनसे मनकी सामर्थ्य-शक्तिका क्षय होता है। क्रोध, चिन्ता, भय इत्यादि विविध विकारोंसे तो सामर्थ्यका बड़ा नाश होता है। जो दिनभरकी आय होती है क्षोभ और नाराजगीमें बह जाती है। संचित सामर्थ्यका भी क्षय होता है। अतः मानसिक शक्तियोंके इच्छुकको सब प्रकारके क्षयोंसे बचनेकी आवश्यकता है। मन पूरी शान्त स्थितिमें रहना आवश्यक है। वाणी और शरीरके सब व्यर्थ प्रपञ्च छोड़कर मनको शान्त स्थितिमें रखनेका प्रयत्न करना आवश्यक है। इससे हमारा बल संचय होता है और हमें एक अद्भुत सामर्थ्यका अनुभव होता है। जिस सत्संस्कारी व्यक्तिको इस बलका अनुभव हो उसे चाहिये कि अपने योग्य उचित वातावरण खोज ले और निरन्तर मानसिक शक्तियोंको पूर्वोक्त प्रकारसे विकसित करता रहे।

मानसिक शक्तियोंकी अभिवृद्धिके लिये अनुकूल संगति और परिस्थितियोंकी परम आवश्यकता है। अपने उद्देश्यके अनुकूल उचित वातावरण उपस्थित कीजिये। जिस वातावरणमें मनुष्य रहता है, वे ही मानसिक शक्तियाँ क्रमशः उत्पन्न और बढ़ती हुई दिखायी देती हैं। जिस व्यक्तिके परिवारमें, मित्रोंमें, मिलने-जुलनेवालोंमें कवि अधिक होते हैं, वह प्रायः कवि ही हो जाया करता है। सैनिकों और सिपाहियोंके कुलमें रहनेवाला व्यक्ति प्रायः निडर हो जाया करता है। आप जिस प्रकारकी मानसिक शक्तियोंका उद्भव चाहते है, वैसे ही व्यक्तियोंमें रहिये, वैसी ही पुस्तकोंका अध्ययन कीजिये, वैसे ही मनुष्योंके चित्र देखिये और निरन्तर वैसे ही चिन्तनमें निमग्र रहिये। अपने अभीष्टकी भावनापर मनको एकाग्रकर गम्भीरतापूर्वक स्थिर कीजिये। उपयुक्त वातावरणमें रहनेसे, मानसिक व्यायामसे, भिन्न-भिन्न क्रियाओंके अभ्याससे, मनकी शक्ति तीव्र की जा सकती है।

मनकी शक्ति एकाग्रता एवं मननसे विकसित होती है। इधर-उधर चञ्चलता-पूर्वक भ्रमण करनेसे, चिन्ताओं एवं भ्रान्तियोंके वशीभूत होनेसे, मनःप्रवृत्ति अनेक दुर्दमनीय कष्टोंका, अनेक पराजयोंका कारण बनती है। यदि एक निर्दिष्ट कार्यमें मन एकाग्र न किया जाय तो समस्त प्रयत्न निष्फल होते हैं। निर्दिष्ट समयपर अन्य समस्त विचारोंको मनःप्रदेशसे बहिर्गत कर एक तत्त्वपर अन्तर्नेत्र एकाग्र करनेसे मनकी शक्ति प्रकट होती है।

एकाग्र ध्यानके दो मुख्य प्रकार है-अक्रिय तथा सक्रिय। अक्रिय ध्यानमें इन्द्रियोंको शान्त कर मनोवृत्तिको ग्राहक किया जाता है। समस्त वृत्तियोंको पूर्ण शान्त रखना होता है। 'मैं पृथ्वीपर परमात्म-तत्त्वका महत्तम, सर्वोच्च एवं सर्वोत्कृष्ट रूप हूँ।'-केवल इसी भावपर चित्तवृत्तियोंको एकाग्र रखना होता है। ध्यानका दूसरा भेद है-सक्रिय ध्यान। सक्रिय ध्यानमें मनको क्रियात्मक ग्रहणोचित वृत्तिमें रखा जाता है। एकाग्रतासे शब्द सुनना होता है। एक ही साथ भावनाओंको ग्रहण करना एवं बाहर भेजना होता है। इस प्रकार मनकी द्विधा क्रिया होती है। जो कुछ कहा जाता है, उसे सुनने एवं उसी समय निर्णय करके मूक मानसिक उत्तर देते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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