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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

आप और आपका संसार


दार्शनिक स्पिनोजाने मनुष्यकी तुलना रेशमके कीड़ेसे की है। उनका कथन है कि जिस प्रकार रेशमका कीड़ा अपने चारों ओर एक छोटा-सा घर बुनता है और स्वयं उसके मध्यमें रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द विचारों, मान्यताओं, विश्वासों तथा शुभ-अशुभ भावनाओं और कल्पनाओंका एक अलक्षित मानसिक वातावरणका निर्माण करता है।

चाहे बाहर नगर और समाज कैसा ही क्यों न हो, व्यक्तिका यह मानसिक भावात्मक और काल्पनिक संसार छायाकी तरह सदा-सर्वदा उसके चारों ओर रहता है। जानकर अथवा अनजानेमें वह सदैव इसी संसारमें सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, कसक, पीड़ा, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, शान्ति या असंतोषका अनुभव किया करता है।

मनुष्यके चारों ओर अलक्षित और सतत प्रभावित करनेवाला यह वातावरण क्या है? क्या हमारे घर-बार, वस्तुएँ व्यक्ति अथवा नाना निकट सम्बन्धी इसका निर्माण करते हैं?

नहीं, हमारे मनमें रहनेवाले विचार, मान्यताएँ जीवनसम्बन्धी मूल्य, हमारा आत्मबल और हमारे निश्चय ही वे मानसिक सूक्ष्म तत्व है, जो हमारे अलक्षित वातावरणमें विचरण कर हमारे संसारका निर्माण करते है।

मनुष्य स्वयं ही इस अलक्षित वातावरणका स्रष्टा है। वह एक ऐसा. है, जो चुपचाप बिना जाने-पहिचाने अपने चारों ओर सुखद, उत्साहप्रद अथवा दुःखद, परितापमय मानसिक वातावरणकी सृष्टि किया करता है। मानसिक वातावरण प्रभाव रहस्यमय होता है। वह न वायुमें, न आकाशमें, न पातालमें, न घर-बार अथवा आसपासमें अथवा आसपास निवास करनेवाले व्यक्तियोंमें है, उसका केन्द्र प्रत्येक व्यक्तिके मस्तिष्कमें है, आत्मामें है।

कार्ट राइट नामक विद्वान्ने लिखा है-'हम सबके मनके भीतर ऐसी शक्ति है, जो कष्ट-क्लेशोंको दूर करती है; आशा-निराशा, उत्साह एवं वेदना देती है।'

स्वेट मार्डन लिखते हैं-'मनके हीन विचारोंके कारण ही हम दीन बने रहते हैं। दरिद्रतासे अधिक बुरा हमारा दस्यितापूर्ण विचार है; क्योंकि यह चारों ओर एक कुत्सित वातावरणकी सृष्टि करता है।

दैवी शक्ति जो हमारे ध्येयोंको निर्मित करती है, हमारे भीतर है और वह हमारी सत् चित् आनन्दमय आत्मा है। हमारा भाग्य हमारे विचारोंके साथ परिवर्तित होता रहता है। विचारोंको स्वेच्छानुसार बदलकर हम जैसे चाहे बन सकते हैं।'

तो क्या हम अपने संसारका स्वयं निर्माण कर सकते हैं? अवश्य। आप स्वयं अपने चारों ओर रहनेवाले इस अलक्षित मानसिक संसारके निर्माता हैं! जब चाहें यह कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं। इस परिवर्तनका प्रारम्भ आप मनमें शुभ संकल्प और अपने प्रति हितैषी भावनाओंसे धारण करें। वेदमें कहा गया है-

'यद्भद्रं तन्न आसुव'-जो शुभ हो उसीकी हमारे लिये सृष्टि करें। 'श्रद्धे श्रद्धापयेह नः'-श्रद्धे! हमें श्रद्धा-सम्पन्न बनाओ। हम अपने मनको अपवित्र, अहितैषी घातक विचारोंसे रोकें और आत्मबलसे पूर्ण पवित्र हितैषी, उन्नति और प्रेमपूर्ण सद्भाव धारण करें।

'सत्यपूतां वदेद्वाचं'-वाणीको सत्यद्वारा शुद्ध करके बोलें। दूसरोंसे ऐसा ही व्यवहार करें।

अपने विषयमें हितैषी भावनाएँ रखें। अपनेको ईश्वरका दिव्य रूप समझें, अपनी निन्दा या अपमान न करें; क्योंकि अपनी निन्दाका दूसरा मतलब अपनी आत्मा ईश्वरका अपमान है।

आपके विचार जितने शुभ, सात्त्विक, आशावादी होते चलेंगे और हितैषी भावनाओंसे जितने स्निग्ध बनेंगे, उतना ही उत्तम आपका संसार होगा।

आपका अधिक बल क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष और दूसरोंसे प्रतिशोध लेनेकी कटु भावनामें क्षीण होता है। यह न केवल, अस्वास्थ्यकर और हानिकर है, प्रत्युत आपके संसारको भी रोग-शोकमय बनानेवाला है। तेज और मुखकान्तिको नष्ट करनेवाला है। अतः ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, घृणा-जैसे विषैले तत्त्वोंको मनमें स्थान न दें।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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