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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

शक्तिका हास क्यों होता है?


यदि जीवन-यापन ठीक तरह किया जाय तथा जीवन-तत्त्वोंको हाससे बचाया जाय, तो मनुष्य दीर्घकालतक जीवनका सुख लूट सकता है। प्रत्येक व्यक्तिको उन खतरोंसे सावधान रहना चाहिये, जिनसे जीवन-शक्तिका हास्य होता है। सर्वप्रथम मनुष्यकी शक्तिका हास्य करनेवाली चीज अधिक भोग-विलास है। संसारके समस्त पशु-पक्षियोंकी प्रजनन-शक्ति अत्यन्त परिमित है। वे केवल आनन्द, क्षणिक वासनाके वशीभूत होकर रमण नहीं करते, विशेष ऋतुओंमें ही प्रजनन-कार्य होता है। प्रकृति उन्हें विवश करती है, तब उनका गर्भाधान होता है। आजके मानव-समाजने नारीको केवल वासना-तृप्तिका साधनमात्र समझ लिया है। पति-पत्नीके संयोगकी मात्रा अनियमित हो रही है। हम संतानोत्पत्तिका उद्देश्य, आदर्श तथा प्रकृतिका आदेश नहीं मान रहे हैं। फलतः समाजमें आयुष्य-हीन, अकर्मण्य, निकम्मे बच्चे बढ़ रहे है। इन्द्रियोंकी चपलता, कामुकता बढ़ रही है। अधिक भोग-विलाससे मनुष्य निर्बल होते जा रहे है। कामुक और कामुकतामें लगे रहनेवाले जीव या व्यक्तियोके बच्चे कभी बलवान् आचारवान् संयमी, धीमान् विचारवान् नहीं हो सकते। प्रत्येक वीर्यका विन्दु शक्तिका विन्दु है। एक विन्दुका भी हाल शक्तिको नष्ट करना है। यदि शक्ति, जीवन तथा आरोग्यकी रक्षा करना चाहते हैं तो भोग-विलाससे दूर रहिये।

शक्तिका हास्य अधिक दौड़-धूपसे होता है। आधुनिक मनुष्य जल्दीमें है। उसे हजारों काम हैं। प्रातःसे सायंकालतक वह व्यस्त रहता है। उसका काम ही जैसे समाप्त होनेमें नहीं आता। बड़े नगरोंमें तो दौड़धूप इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्यको दम मारनेका अवकाश नहीं मिलता। वह क्लबों-होटलोमें गपशप करता है, आफिसमें कार्य करता है, घरके लिये सामान लाता है, बाल-बच्चोंको मदरसे भेजता है, अस्पतालसे दवाई लाता है। यदि आप व्यापारी हैं तो व्यापारके चक्करमें प्रातःसे सायंकालतक दौड़-धूप करनी है। आजके सभ्य व्यक्तिको शान्तिसे बैठकर मनको एकाग्र करनेतकका अवसर नहीं मिलता। संसारके कोने-कोनेसे अशान्ति और उद्विग्नताकी चिल्लाहट सुनायी दे रही है। चित्तकी चंचलता इतनी बढ़ती जा रही है कि हम क्षुब्ध एवं संवेगशील बन रहे है। इस दौड-धूपमें एक क्षण भी शान्ति नहीं यदि हम इसी उद्विग्न एवं उत्तेजित अवस्थामें चलते रहें, तो जीवनमें कैसे आनन्द प्रतिष्ठा एवं शान्ति पा सकते है। हमारे चारों ओरका वायुमण्डल जब विक्षुब्ध है तो आत्माकी उच्चतम शक्ति क्योंकर सम्पादन कर सकते है। जो व्यक्ति शक्ति-संचय करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे अधिक दौड़-धूपसे बचें, केवल अर्थ-उत्पादनको ही जीवनका लक्ष्य न समझें, शान्तिदायक विचारोंमें रमण करें। जिस साधकके हृदयमें शान्तिदेवीका निवास है, जिसके हृदयमें ब्रह्मनिष्ठा एवं संतोष है, उसकी मुखाकृति दिव्य आलोकसे चमकती है। जो ब्रह्मविचारमंह लगता है, वह अपने-आपको निर्बलता, प्रलोभन, पापसे बचाता है।

शक्तिके हास्यका तीसरा कारण है अधिक बोलना। जिस प्रकार अधिक चलने से जीवन क्षय होता है, उसी प्रकार अधिक बोलने, बातें बनाने, अधिक भाषण देने, बड़बड़ाने, गाली-गलौज देने, चिढ़कर काँव-काँव करनेसे फेफड़े कमजोर बन जाते है। पुनः-पुनः तेज आवाज निकालनेसे फेफड़ोंका निर्बल हो जाना स्वाभाविक है। यही नहीं, गलेमें खराश तथा खुश्कीसे खाँसी उत्पन्न होती है? खाँसी बनी रहनेसे क्षयरोग होकर मनुष्य मृत्युका ग्रास होता है। प्रायः देखा गया है कि व्याख्याता, अध्यापक, लेक्ररार, पतले-दुबले रहते है। यह शक्तिके क्षयका प्रत्यक्ष लक्षण है। अधिक बोलनेसे शारीरिक शक्तिका हास्य अवश्यम्भावी है। यह अपनी शक्तिका अपव्यय है। अधिक बोलनेकी आदतसे मनुष्य बकवासी बनता है, लोग उसका विश्वास नहीं करते, ढपोरशंख कहते है। वह प्रायः दूसरोंकी भली-बुरी-खोटी आलोचना करता है, अनावश्यक बातें बनाता है, निन्दा करता है, अपनी गम्भीरता खो बैठता है। प्रायः ऐसा करनेवालोंका आदर कम हो जाता है। शक्तिको अपव्ययसे बचानेकी इच्छा रखनेवालोंको चाहिये कि मितभाषी बनें, मिष्टभाषी बनें। कम बोलें; किंतु जो कुछ बोलें, वह मनोहारी और दूसरे तथा अपने हृदयको प्रसन्न करनेवाला हो, सारयुक्त हो, शब्द-योजना सुन्दर हो, प्रेम तथा आनन्दका, आदर और स्नेहका परिचायक हो, शक्ति-संचयके लिये मितभाषी बनिये। अध्यात्म-चिन्तन, पठन-पाठन, अध्ययन, मौन, लिखना मितभाषी बननेके सुन्दर उपाय हैं।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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