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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

जीवन की भूलें


सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी विचारक रूसोने अपने आत्मचरितमें लिखा है कि 'वही आत्मचरित श्रेष्ठ है, जिसमें लेखक बिना किसी बनावटके सही रूपमें अपने चरित्रको प्रकट करे। उसने जो भूलें की हों, उन्हें स्पष्टतः स्वीकार करे; उनके लिये विक्षोभ प्रकट करे और जनताको अपना वास्तविक रूप देखने दे।'

महात्मा गाँधीजीने अपनी आत्मकथामें जहाँ अन्य कार्योंका निर्देश किया है स्वयं अपनी भूलोंका भी विवेचन कर डाला है। 'सत्यके प्रयोग' यह उनकी अनुभूतियोंका नाम है। ये अनुभव अच्छे-बुरे जैसे भी हों, जनताके समक्ष आने चाहिये, जिससे वे स्वयं उचित-अनुचित, नीरक्षीरका विवेक कर श्रेष्ठ मार्गपर चलते रहें।

भूल मनुष्यकी एक बड़ी निर्बलता है। हममेंसे कदाचित् ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने जीवनमें भूलें न की हों, अथवा जो सर्वथा भूलोंसे मुक्त हो। यदि यह कहा जाय कि मनुष्य भूलोंका पुतला है, तो भी कोई अतिशयोक्ति न होगी! भूलें अनेक प्रकारकी हो सकती है-लेन-देनकी भूलें, पाठ याद न करनेकी भूलें, वासनाके कुचक्र अथवा कुसंगमें पड़कर की गयी बचपनकी भूलें; माता-पिता अफसर या बड़े व्यक्तियोंसे की गयी अशिष्टतासम्बन्धी भूलें, भावना-प्रवाह, उत्तेजना, विक्षोभ, क्रोध, प्रेमोन्मादसे उत्पन्न भूलें। भूलोंका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विशद है। पिछले दिनों साम्प्रदायिक विद्वेषमें आकर रक्तपात, हिंसा, बलात्कार जैसे जघन्य कार्य हुए। युद्धके कारण वस्तुएँ महँगी हुई और रिश्वत, काला बाजार, दहेज इत्यादिकी भूलें समाजमें उठ खड़ी हुईं। घरोंमें मार-पीट, अत्याचार, गालीगलौज, पड़ोसमें अदावत, बाजारोंकी दुर्घटनाएँ, शराबके नशेमें किये गये क्षणिक अत्याचार मानहानि, या व्यभिचार, जूआ और सट्टा-यें सब भूलोंके ही विभिन्न प्रकार हैं।

भूलोंके कारण अनेक हैं। कहीं राग है, तो कहीं द्वेष; कहीं प्रलोभन है, तो कहीं आलस्य; कहीं आवेश है, तो कहीं विक्षोभ। हृदय या भावनाके आन्तरिक आवेगके वशमें होकर प्रायः हम कुछ-का-कुछ कर बैठते हैं। जब मानसिक क्षोभका तूफान कम होता है, चित्त स्थिर होता है और विवेक जाग्रत् होता है, तब अपनी भूलोंपर आत्मग्लानि होती है।

आवेश और उत्तेजना एक प्रकारके मानसिक तूफान हैं। जैसे वायुमण्डलमें तूफान आनेसे पेड़-पौधे काँप उठते हैं, पत्तियाँ थरथराने हिलने लगते हैं, टहनियाँ टूट-टूटकर गिर जाती हैं, धूल उड़नेसे नेत्रोंमें धूल छा जाती है, कुछ दीखता नहीं, इसी प्रकार अन्तर्मुखी आवेग आनेपर रक्तका संचार बढ़ जाता है, मनुष्य विचित्र चेष्टाएँ करता है, उत्तेजनाका आन्तरिक आन्दोलन हमारे शुभ विचारों और विवेकको कुण्ठित कर देता है; काम, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा, भय आदिके आवेश सम्पूर्ण शरीरको थरथरा डालते हैं। अशान्त स्थितिमें बुद्धि ठीक प्रकार कार्य नहीं करती और प्रायः हमसे छोटी-बड़ी भूलें हो जाती हैं।

कुछ भूलें अज्ञान, अशिक्षा, या कुसंगके कारण होती हैं। ऐसे व्यक्ति एक प्रकारके गहन मानसिक अंधकारमें निवास करते हैं और उन्हें अपनी गलतीका ज्ञान ही नहीं होता। ज्ञान-वृद्धि होनेपर उन्हें धीरे-धीरे अपनी भूलका पता चलता है।

आलस्य हमारी भूलोंका निर्माता बनता है। मान लीजिये आपका यह नित्यका कर्म है कि रात्रिमें सोनेके पूर्व घरके किवाड़ अच्छी तरह बंद कर शय्या ग्रहण करते हैं। आलस्य आया और भूल गये। उसी दिन चोरी हो गयी। यह चोरी आपकी भूलका दुष्परिणाम है। कुंडी लगाना भूलना, ताला-कुंजीके मामलेमें असावधानी, वस्तुओको, पेटियोंकी चाभी आदिको नियत स्थानपर न रखना, बाहरसे आकर वस्त्र इत्यादि अस्त व्यस्त फेंक देना, तेलकी शीशी फर्शपर छोड़ देना, चीनीके प्याले साफ न कर यों ही पड़े रहने देना, मामूली फटे हुए वस्त्रको न सिलवाना, जूते पालिस न करना, दफ्तर या रेलवे स्टेशनपर देरसे जाना, पत्रोत्तर न देना आलस्यजनित भूलें है। आपको जुखाम है, सिरदर्द है, शरीर दुखता है और आप उसकी ओर ध्यान नहीं देते हैं तो यह भूल बढ़कर किसी भी बड़े रोगमें विकसित हो सकती है। दीवारमें पीपलका छोटा-सा पौधा जड़ पकड़ गया है और आप उसे उखाड़नेमें आलस्य कर रहे हैं, तो सम्भव है कि इस आलस्यके कारण किसी दिन घर ही टूटकर गिर पड़े।

लेन-देनकी भूलें बड़े भयंकर दुष्परिणाम दिखलाती है। एक बार ऋण लेनेके पश्चात् यदि उसकी अदायगीका उचित प्रबन्ध न हो और आलस्य चलता रहे, तो दिवालिया होनेमें कोई संदेह नहीं। आप बाजारमें निकलते है। आपका मन कभी उत्तम वस्त्र, नयी-नयी वस्तुओं, फैशनकी चीजों, पुस्तकों इत्यादिपर जाता है। अपनी सामर्थ्यकी ओर न देखकर आप तुरंत खरीद बैठते हैं। उधार ही सही, मूल्य फिर चुका देंगे। हमें वेतन तो मिलेगा ही। इधर दूकानदारका बिल बढ़ता जाता है। बढ़ते-बढ़ते हाथमें आनेसे पूर्व ही वेतन समाप्त हो जाता है। बड़े-बड़े विद्वान् राजनीतिज्ञ, मन्त्री, उपदेशक ऋणके मामलेमें आलसी रहते हैं। बैकन कुशल विद्वान् था, किंतु अपव्ययके कारण वह ऋणग्रस्त हो गया था। उसे सदा रुपयेकी इच्छा रहने लगी। वह रिश्वत लेने लगा। उसकी आवश्यकताएँ बढ़ीं। रिश्वतमें पकड़ गया, उसके शत्रुओंकी बन आयी, मुकदमा चला, उसका पतन हुआ। पिट इंगलैंडमें देशकी सम्पत्तिका जिम्मेदार रहा था, पर स्वयं हमेशा कर्जदार रहा। पिटकी मृत्युपर उसके आलस्यके कारण राष्ट्रने चालीस हजार पौंड महाजनोंको दिये थे। लार्ड मेलविल जैसे घरके हिसाब-किताबमें आलसी था, वैसे ही राष्ट्रके व्ययके सम्बन्धमें लापरवाह रहा। फाक्त नामक व्यक्ति बड़ा धनाढ्य था, पर जुआ खेलनेके व्यसनके कारण एक दिनमें उसने ग्यारह हजार पौंड हारे थे। शेरिडिन-जैसा नाट्यकार सदैव ऋणमें रहा। उसने एक बार छः दिनमें अपनी पत्नीके १६०० पौंड व्यय कर डाले थे। रुपये-सम्बन्धी ये भूलें निश्चय ही जीवनपर्यन्त दुःख देनेवाली हैं।

बिना पर्याप्त सोचे-विचारे यों ही किसीको वचन दे देना, प्रतिज्ञाबद्ध हो जाना, फिर उस वचन-पालनमें अपनेको असमर्थ पाना, लज्जित होकर अपनी भूल स्वीकार करना-इस प्रकारकी भूलें प्रायः अपनी शक्तिके विषयमें गलत धारणा या अपनी सामर्थ्यको खूब बढ़ा-चढ़ाकर देखनेसे उत्पन्न होती है। कुछ व्यक्ति स्वप्रिल जगत्में विचरण कर यथार्थता और अपनी छोटी शक्तिको भूलकर ऐसे लम्बे-चौड़े वायदे कर लेते हैं, कि आयुभर उन्हें पूर्ण नहीं कर पाते। किसी बड़े व्यापारको बिना समुचित पूँजीके हाथमें ले लेना, पत्र-प्रकाशन, प्रेस संचालन, अथवा लेन-देनके पेशे छोटी पूँजीको स्वाहा कर बैठते हैं।

विवाह, दहेज, मृत्युभोज, यात्रा अथवा भोगविलासमें अपव्यय कर दूसरोंपर झूठी शान जमानेकी भूल बड़ी दुःखदायी सिद्ध होती है। इसी प्रकार अनियन्तित बच्चोंको जन्म देनेवाले माता-पिताको वृद्ध होनेपर अपनी भूलके लिये पछताना पड़ता है। इन क्षणिक बातोंसे दूसरोंपर न शान ही जमती है, न पैसे ही पास रहते हैं।

बुद्धि और तर्ककी अनन्त शक्तियोंके बावजूद मनुष्य कभी प्रमाद, कभी आलस्य, उत्तेजना, भावना या प्रलोभनवश कहीं-न-कहीं भूल कर ही बैठता है। भूल हो जाना एक स्वाभाविक कमजोरी है; किंतु हमें ध्यान यही रखना चाहिये कि वही भूल दुबारा न दोहरायी जाय। भूलकी पुनरावृत्ति करना कदाचित् मनुष्यकी सबसे बड़ी भूल है।

प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति एक भूलको दबानेके लिये चार-छः और नयी भूलें करते हैं। फिर इनमेंसे कोई भूल प्रकट होनेपर उसे छिपानेके लिये नित-नया उपक्रम करते हैं। इस क्रमका निरन्तर विस्तार होता चलता है। वास्तवमें भूल छिपती नहीं, देर-सबेर स्वतः प्रकट हो जाती है। भूलको छिपाना अग्रिको रुईमें दबा या छिपाकर रखनेके समान कठिन है। जबतक उसे ठीक न किया जाय, तबतक वही भूल नयी-नयी भूलोंके रूपमें प्रकट होती और परेशान करती रहती है। उसका निवारण करना ही स्थायीरूपसे उससे मुक्त होनेका साधन है।

आध्यात्मिक दृष्टिसे छिपानेके स्थानपर भूलको स्वीकार कर लेना और भविष्यमें कभी न करनेका दृढ़ संकल्प स्थायीरूपसे करना आत्मसुधारका साधन है। आप चाहे कितने भी बड़े हों, चाहे किसी पद, स्थान, स्तर, पेशेके हों, भूलको सुधार कर सही मार्गपर आरूढ़ रहनेके लिये प्रस्तुत रहिये। भूलको स्वीकार करनेमें हीनता नहीं, बड़प्पन है; संकल्पकी दृढ़ता, सतर्कताकी प्रेरणा है। भूलकी स्वीकृति यह स्पष्ट करती है कि आप आत्म-उत्थानके लिये जागरूक हैं। आगे बढ़ना चाहते हैं। छोटी भूलका भी प्रायश्चित्त तभी हो सकता है जब आप उसपर आत्मग्लानिका अनुभव करें और उसकी पुनरावृत्ति न होने दें। अपनी भूलका उत्तरदायित्व स्वयं अपनेपर ही लीजिये, दूसरेपर व्यर्थ ही न थोपिये।

अवश्य ही, जहाँ किसी स्वीकारोक्तिसे नयी विपरीत स्थिति उत्पन्न होती हो, वहाँ मनमें ही आत्मग्लानि कर लेनी चाहिये, सबके सामने उसे प्रकट नहीं करना चाहिये। भूलोंका यथार्थ ज्ञान होनेसे मनुष्यका जीवन नये मार्गसे प्रवाहित होना प्रारम्भ होता है। सूरदासको जब नारीके प्रेममें अनुरक्त होनेकी वासनामूलक भूलका ज्ञान हुआ तो वे उस घृणित मार्गसे बचकर महान् भक्त तथा महाकवि बन गये। भूलसे लाभ उठाकर सदा आत्मोन्नतिमें संलग्न रहिये।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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