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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

( 2 )

दैनिक जीवनमें ही संयमका आत्मशिक्षण और अभ्यास होना चाहिये। यदि हम समझें कि दों-चार दिनके साधारणसे अभ्याससे यह कार्य हो जायगा, तो यह हमारी भूल है। संयमका क्षेत्र अति विस्तृत है। प्रत्येक मोर्चेपर संयमका अभ्यास आवश्यक है।

मान लीजिये, आपके मनमें स्वादिष्ट भोजनकी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। आप पहले अपना दैनिक भोजन करते हैं। उसके बाद कुछ दूध-रबड़ी खाते हैं। फिर मिठाई सामने आ जाती है तो आप उस ओर आकृष्ट हो जाते हैं और स्वास्थ्यकी कुछ परवा न कर अनाप-शनाप मिठाई खा जाते हैं। यह असंयम आपके स्वास्थ्यको नष्ट करनेवाला और आत्मिक पतनका द्योतक है। अनियन्तित जिह्वावाले व्यक्ति कभी जीवनका आनन्द नहीं ले पाते। अधिक भोजनका परिणाम अधिक आलस्य और अहितकर चिन्तन है। इन्द्रियोंको और भी उत्तेजित करने और विकारोंको बढ़ानेका साधन है।

आप किसी मादक द्रव्य-मद्य, भंग, सिग्रेट, गाँजा, चाय, काफीके बन्धनमें बँध गये हैं, इनके बिना आपको शून्यता प्रतीत होती है। अतः समझ लीजिये कि आपके चरित्रमें संयमकी कमी है।

आपके नेत्र घृणास्पद, वासनासे भीगे दृश्योंको देखनेको दौड़ते हैं। बड़े वेगसे सिनेमाके चल-चित्रों, नृत्यों, नग्न मानव-शरीरोंकी ओर आकृष्ट होते हैं, तो यह मनकी दुर्बलताके चिन्ह हैं।

आपके कान संगीत (प्रायः उत्तेजक निन्द्य गाने) की ओर भागते हैं। अपने वास्तविक उद्देश्यपर मन एकाग्र न कर आप उस सस्ते संगीतकी ओर खिंच जाते हैं, तो आप बन्धनमें पड़ गये हैं।

आपको जहाँ बोलना चाहिये, वहाँ आप बोलते नहीं। जहाँ नहीं बोलना चाहिये, वहाँ निरन्तर बकवास करते हैं, भटक जाते हैं, आवेशमें आ जाते हैं, अपशब्दों-तकका उच्चारण कर बैठते हैं और सबके बुरे बनते हैं। इस अवसरपर भी आपको आत्मसंयमसे ही लाभ हो सकता है।

साँझसे ही आप बिस्तर पकड़ लेते हैं और दस घंटे निद्रा या तन्द्रामें पड़े रहते हैं। मध्याह्नको भी भोजनके पश्चात् एक-दो घंटे सो जाते हैं। निद्रासे ही पीछा नहीं छूटता। सारे दिन निद्रा ही सताया करती है। ऐसी अमर्यादित निद्राके वशमें रहनेवाला कैसे कुछ ठोस कार्य कर सकता है? अधिक भोजनका फल अधिक निद्रा, अधिक निद्राका अर्थ आलस्य और आलस्यका अर्थ सार्वत्रिक पतन और सर्वनाश है।

यदि संयम न हो और हमारे कार्य ऊपर लिखे तरीकोंसे ही चलते रहें, तो हम अपना समग्र जीवन खान-पान, व्यर्थ चिन्तन, दोष-दर्शन, इन्द्रिय-पूर्ति और निद्रामें ही समाप्त कर दें। पर ऐसा नहीं होता। ईश्वरने हमें एक ऐसी शक्ति दी है, जिसे विवेक कहते हैं। यह विवेक हमें मर्यादा, नियम-बन्धन और नाप-तोल कर चलना सिखाता है। विवेक होनेपर हम स्वयं अपने मनके द्रष्टा बन जाते हैं। अपने मनके व्यापारकी अच्छाई-बुराई देखते हैं। निरुपयोगी और फालतू क्रियाओंका निरीक्षण करते हैं।

भीष्म एवं युधिष्ठिरके संवादमेंसे ये वाक्य विचारणीय है-

आत्मा नदी संयमपुण्यतींर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्रावगाहं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शध्यति चान्तरात्मा।।

'धर्मराज! तुम उस आत्मारूपी नदीमें डुबकी लगाकर स्नान करो, जो संयमरूपी पवित्र तीर्थ है, जिसमें सत्यरूपी जल भरा है, शील जिसका तट है और जिसमें दयारूपी लहरें उठ रही है। इसीसे आत्मा शुद्ध होगी। जलसे अन्तरात्माकी शुद्धि नहीं हो सकती।'

तमोगुणों अर्थात् प्रमाद, आलस्य, मोह, निद्रा, वासना, शिथिलता-आदिसे मुक्तिके लिये केवल संयमके अभ्यासकी आवश्यकता है। विषयोंके ध्यान अथवा चिन्तनसे उनमें आसक्ति हो जाती है, उस आसक्तिसे उनकी प्राप्तिकी इच्छा होती है और तमोगुणके इच्छित फल मिलनेसे सर्वनाश हो जाता है। अतः चौबीसों घंटों अपने-आपको संयमपूर्ण नियमोंमें बाँध रखना चाहिये।

नियम-बन्धन एक मानसिक बन्धन है। जब आप मनमें यह दृढ़ निश्चय करते हैं कि अमुक नियमोंसे रहेंगे या अमुक-अमुक नियमोंका जीवनमें पालन करेंगे, तो आप मन-ही-मन एक गुप्त शक्तिसे अपने जीवन और कार्योंको बँधा हुआ पाते हैं। नियमोंके पालनका निश्चय ही एक साधन है। इसमें प्रारम्भमें मन और शरीरको कुछ कठिनाईं अवश्य पड़ती है, पर बार-बार नियमोंका पालन करनेसे मनका नियन्त्रण हो जाता है।

नियम हमें संयमकी शिक्षा देनेवाले अमूल्य अंकुश हैं, जो हमें उच्च प्रकारके सांस्कृतिक जीवनकी ओर ऊँचा उठाते हैं। नियमकी जंजीरोंमें बँधकर मनुष्य व्यर्थके निरुपयोगी कार्योंसे छूट जाता है। मन व्यर्थकी क्रियाओंसे बच जाता है। मनकी स्वतन्त्रताकी एक विशेष सीमा निर्धारित हो जाती है। इसकी मर्यादाके बाहर जाते ही हम चौक जाते हैं। गुप्त मन हमें नियमोल्लंघन करनेपर प्रताड़ित करता है। वस्तुतः हम फिर मनकी लगामको खींचकर उसकी निर्बाध स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध लगा देते हैं।

नियमोंमें बँधकर मनुष्यकी शक्तिका विकास होता है। व्यर्थ-चिन्तन, व्यर्थके कार्य और इन्द्रियोंके प्रलोभनोंसे बचकर आहार-विहारमें संयम लानेसे मनुष्यका शरीर श्रमी, बुद्धि विवेकवती और मन शक्तिशाली बनता है। जितेन्द्रियता व्यक्तिके निर्माणमें सर्वाधिक महत्त्व रखती है।

प्रकृति अपने नियम नहीं छोड़ती। इस संसारकी प्रत्येक गति कुछ गुप्त नियमोंके अनुसार चल रही है। ऋतुओंका आना-जाना, वृक्षोंके फल-फूल, पत्तियोंका उद्भव, जीवविज्ञानके नाना कार्य भौतिक विज्ञानके अनेक नियमोंपर चल रहे हैं। सृष्टि अपने नियम नहीं छोड़ती। समस्त विज्ञान हमें नियमोंका महत्त्व स्पष्ट कर रहे हैं। फिर, मनुष्य अपने नियमोंको छोड़कर कैसे उन्नति कर सकता है? मनुष्यकी अपरिमित शक्तिका विकास मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक नियमोंके पालनसे ही हो सकता है।

उदाहरणके लिये शारीरिक नियमोंको ही ले लीजिये। शरीर एक पेचीदा यन्त्र है। पर्याप्त श्रम, नियमित तथा संतुलित भोजन, मनोरञ्जन, छः-आठ घंटेकी गहरी निश्चिन्त निद्रा, पर्याप्त आराम, प्रसन्नता आदि आवश्यक हैं। यदि इनमेंसे किसी भी नियमको भंग कर लिया जाता है, तो जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। फलतः रोग और शारीरिक कष्ट उत्पन्न हो जाते है। यही कारण है कि सजाके डरसे कोई भी शारीरिक नियमोंका उल्लंघन नहीं कर पाते। मानसिक और बौद्धिक नियमोंका अनेक बार अतिक्रमण होता है और मनका संतुलन नष्ट हो जाता है। अतः अपने-आपको कठोर नियमोंके बन्धनमें बाँधे रखिये। इससे आपकी सभी शक्तियाँ बढ़ती रहेंगी और अपव्यय न होगा। नियम टूटते ही संयम नष्ट हो जाता है और शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। मन-इन्द्रियोंके गुलाम न रहकर इनको नियन्त्रणमें रखना ही अपने-आपका स्वामी बनकर रहना है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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