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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

अमूल्य वचन


मनको वश करनेमें नियमानुवर्तितासे बड़ी सहायता मिलती है। सारे काम ठीक समय नियमानुसार होने चाहिये। परमार्थमें भी इससे बड़ा लाभ होता है।

मनके प्रत्येक कार्यपर विचार करना चाहिये।

मनके कहनेमें नहीं चलना चाहिये, जबतक यह मन वशमें नहीं हो जाता तबतक इसे परम शत्रु मानना चाहिये।

(मनको वशमें करनेके कुछ उपाय नामक पुस्तकसे)

 

स्त्रीके लिये मुख्य धर्म केवल पतिपरायणता ही है। और सारे धर्म तो गौण है और उनका आचरण भी केवल पतिकी प्रसन्नताके लिये ही किया जाता है।

जो पुरुष अपनी स्त्रियोंको कष्ट देते हैं, उनका यथाविधि भरण-पोषण और सत्कार नहीं करते वे अधर्म करते हैं।

स्त्री शरीरसे पतिकी सेवा करे, घरका सारा कार्य करे और मनसे परमात्माका चिन्तन करे।

(स्त्रीधर्म प्रश्नोत्तरी नामक पुस्तकसे)

 

दुर्दशाग्रस्त देशकी रक्षा ब्रह्मचर्यकी पुनः प्रतिष्ठासे ही हो सकती है। कच्ची नींवपर इमारत नहीं उठ सकती। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यके बिना जीवन नहीं टिक सकता; यदि कहीं कुछ रहता है तो वह दुःखसे भरा हुआ रहता है।

कुछ लोगोंकी समझ है कि विवाहिता पत्नीके साथ चाहे जैसा व्यवहार किया जाय सब धर्म संगत है। परन्तु यह उनका भ्रम है।...स्त्री-सम्बन्धी चर्चा कभी न की जाय।

(ब्रह्मचर्य नामक पुस्तकसे)

 

संसारकी किसी भी वस्तुसे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं है। समय समाप्त होते ही चट यहाँसे चल देना है। एक दिन सब वस्तुओंको ज्यों-का-त्यों छोड़कर जाना पड़ेगा। सब-की-सब वस्तुएँ यहीं पड़ी रह जायँगी। यह शरीर भी यहीं रह जायगा। इसलिये जबतक संसारमें रहना है, तबतक निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनी है। जब जायँगे, तब साथ कुछ ले नहीं जायेंगे। बिलकुल कार्यालयके समान संसारमें काम (सेवा) करनेके लिये आये हैं। 

- साधकोंके प्रति नामक पुस्तकसे

 

सज्जनो! आप विचार करें तो यह बात प्रत्यक्ष दीखेगी कि जिन देशोंमंल सन्त-महात्मा घूमते हैं, जिन गाँवोंमें, जिन प्रान्तोंमें सन्त रहते हैं और जिन गाँवोंमें सन्तोंने भगवान्के नामका प्रचार किया है, वे गाँव आज विलक्षण है दूसरे गाँवोंसे। जिन गाँवोंमें सौ-दो-सौ वषोंसे कोई सन्त नहीं गया है, वे गाँव ऐसे ही पड़े हैं अर्थात् वहांके लोगोंकी भूत-प्रेत-जैसी दशा है। भगवान् का नाम लेनेवाले पुरुष जहाँ घूमे हैं, पवित्रता आ गयी, विलक्षणता आ गयी, अलौकिकता आ गयी। वे गाँव सुधर गये, घर सुधर गये, वहांके व्यक्ति सुधर गये, उनको होश आ गया। वे स्वयं भी कहते हैं, हम मामूली थे पर भगवान्का नाम मिला, सन्त मिल गये तो हम मालामाल हो गये।

- भगवन्नाम नामक पुस्तकसे

 

भजन उसीको कहते हैं, जिसमें भगवान्का सेवन हो तथा सेवन भी वही श्रेष्ठ है, जो प्रेमपूर्वक मनसे किया जाय। मनसे प्रभुका सेवन तभी समुचितरूपसे प्रेमपूर्वक होना सम्भव है, जब हमारा उनके साथ घनिष्ठ अपनापन हो और प्रभुसे हमारा अपनापन तभी हो सकता है, जब संसारके अन्य पदार्थोंसे हमारा सम्बन्ध और अपनापन न हो।

- एकै साथे सब सथै नामक पुस्तकसे

 

धर्महीन मनुष्यको शास्त्रकारोंने पशु बतलाया है। जो संसारके समस्त जीवोंके कल्याणका कारण हो, उसे ही धर्म समझना चाहिये। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध-ये दस धर्मके लक्षण हैं।

चोरी अनेक प्रकारसे होती है, किसीकी वस्तुको उठा- लना, वाणीसे छिपाना, बोलकर चोरी करवाना, मनसे परायी वस्तुको ताकना आदि सब चोरीके ही रूप हैं। समाजकी प्रगति चोरीकी ओर बड़े वेगसे बढ़ रही है।

(मानव-धर्म नामक पुस्तक से)

 

साधनमें एक विघ्न है परदोष दर्शन। साधकको इस बातसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रखना चाहिये कि 'दूसरे क्या करते है।' साधकको अपनी साधनाके कार्यसे इतनी फुरसत ही नहीं मिलनी चाहिये जिससे वह दूसरेका एक दोष भी देख सके। जिन लोगोंमें दूसरोंके दोष देखनेकी आदत पड़ जाती है वे साधन पथपर स्थिर रहकर आगे नहीं बढ़ सकते। जब दोष दीखते ही नहीं तब उनकी आलोचना करनेकी तो कोई बात ही नहीं रह जाती। दोष अपने देखने चाहिये।

(साधन-पथ नामक पुस्तकसे)

 

अपने मनके विरुद्ध शब्द सुनते ही किसीकी नीयतपर सन्देह करना उचित नहीं।...अगर आप दूसरेको चुपचाप बैठाकर अपनी बात सुनाना और समझाना पसंद करते हैं तो इसी तरह उसकी बात सुननेके लिये आपको भी तैयार रहना चाहिये। 

(आनन्दकी लहरें नामक पुस्तकसे)

 

गीता गंगासे भी बढ़कर है। शास्त्रोंमें गंगा-स्नानका फल मुक्ति बतलाया गया है। परन्तु गंगामें स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त हो सकता है, वह दूसरोंको तारनेका सामर्थ्य नहीं रखता। किन्तु गीतारूपी गंगामें गोते लगानेवाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, वह दूसरोंको भी तारनेमें समर्थ हो जाता है। गंगा तो भगवान् के चरणोंसे उत्पन्न हुई है और गीता साक्षात् भगवान् नारायणके मुखारविन्दसे निकली है। फिर गंगा तो जो उसमें आकर स्नान करता है उसीको मुक्त करती है, परन्तु गीता तो घर-घरमें जाकर उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखलाती है। इन्हीं सब कारणोंसे गीताको गंगा बढ़कर कहते हैं।

गीता गायत्रीसे भी बढ़कर है। गायत्री-जपसे मनुष्यकी मुक्ति होती है, यह बात ठीक है; किन्तु गायत्री-जप करनेवाला भी स्वयं ही मुक्त होता है, पर गीताका अभ्यास करनेवाला तो तरन-तारन बन जाता है। जब मुक्तिके दाता स्वयं भगवान् ही उसके हो जाते हैं, तब मुक्तिकी तो बात ही क्या है। मुक्ति उसकी चरणधूलिमें निवास करती है। मुक्तिका तो वह सत्र खोल देता है।

गीताको हम स्वयं भगवान्से भी बढ़कर कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। भगवान्ने स्वयं कहा है-

गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रील्लांकान् पालयाम्यहम्।।

(वाराहपुराण) 

 

'मैं गीताके आश्रयमें रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीताके ज्ञानका सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ।' 

-गीता-तत्त्वविवेचनी नामक पुस्तक से


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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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