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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्तराज हनुमान

भक्तराज हनुमान

शान्तनु बिहारी

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :61
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1023
आईएसबीएन :81-293-0523-2

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प्रस्तुत है भक्त राज हनुमान का चरित्र चित्रण.....

Bhakatraj Hanuman a hindi book by Shantanu Bihari - भक्तराज हनुमान - शान्तनु बिहारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

बहुत दिनों से विचार था कि प्राचीन काल के कुछ आदर्श पुरुषों की जीवनियाँ और उनके उपदेश संक्षेप में निकाले जायँ। परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी थी। अब पं. श्री शान्तनुविहारीजी द्विवेदी ने कृपापूर्वक इस काम को स्वीकार कर लिया और उसी के फलस्वरूप यह ‘आदर्श चरितमाला’ का प्रथम पुष्प ‘भक्तराज हनुमान’ आपके हाथों में है। इसमें की अधिकांश बातें तो वाल्मीकीय रामायण, अध्यात्म-रामायण, रामचरितमानस, पद्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण आदि ग्रन्थों  से ली गयी हैं। कुछ बातें परम्परा से सुनी हुई हैं। सम्भव है, वे भी किसी ग्रन्थ में हों। आशा है, पाठक भक्तप्रवर श्रीहनुमान जी के पवित्र पुण्य-जीवन को पढ़कर प्रसन्न होंगे।

सम्पादक-हनुमानप्रसाद पोद्दार

भक्तराज हनुमान
(1)


प्रनवऊँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।

भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास के एक उत्तम श्रृंगपर विराजमान थे। वटकी घनी छाया में उनके कपूर के समान धवल शरीर पर भूरे रंग की जटाएँ बिखरी हुई थीं। हाथ में रुद्राक्ष की माला, गले में साँप और सामने ही नन्दी बैठा हुआ था। उनके सहचर-अनुचर वहाँ से कुछ दूर परस्पर अनेकों प्रकार की क्रिड़ाएँ कर रहे थे। उनके सिर पर चन्द्रमा और गंगा की अमृतमयी धारा रहने के कारण तीसरे नेत्र की विषम ज्वाला शान्त थी। ललाट का भस्म बड़ा ही सुहावना मालूम पड़ता था।

एकाएक ‘राम-राम’ कहते हुए उन्होंने अपनी समाधि भंग की। सतीने देखा कि भगवान् शंकर एक अपूर्व भाव से उनकी ओर देख रहे हैं। वे सामने खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर विनय के साथ कहने लगीं—‘स्वामिन् ! इस समय मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? क्या आप कुछ कहना चाहते हैं ? आपकी मुखाकृति से तो ऐसा ही प्रकट हो रहा है।’ भगवान् शंकर ने कहा—प्रिये ! आज मेरे मन में एक बड़ा ही शुभ संकल्प उठ रहा है। मैं सोच रहा हूँ कि जिनका मैं निरन्तर ध्यान किया करता हूँ, जिनके नामों को रट-रट कर गद्गद होता रहता हूँ, जिनके वास्तविक स्वरूप का स्मरण करके मैं समाधिस्थ हो जाता हूँ, वे ही मेरे भगवान्, वे ही मेरे प्रभु अवतार ग्रहण करके संसार में आ रहे हैं। सभी देवता उनके साथ अवतार लेकर उनकी सेवा का सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही क्यों वंचित रहूँ ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युग की लालसा पूर्ण करूँ, अपने जीवन को सफल बनाऊँ।’

भगवान् शंकर की यह बात सुनकर सती सहसा यह न सोच सकीं कि इस समय क्या उचित है और क्या अनुचित। उनके मन में दो तरह के भाव उठ रहे थे। एक तो यह कि मेरे पतिदेव की अभिलाषा पूर्ण होनी चाहिये और दूसरा यह कि मुझसे उनका वियोग न हो। उन्होंने कुछ सोचकर कहा—‘प्रभो ! आपका संकल्प बड़ा ही सुंदर है जैसे मैं अपने इष्टदेव की—आपकी सेवा करना चाहती हूँ, वैसे ही आप भी अपने इष्टदेव की सेवा करना चाहते हैं। परंतु वियोग के भय से मेरा हृदय न जाने कैसा हुआ जा रहा है। आप कृपा करके मुझे ऐसी शक्ति दें कि मेरा हृदय आपके ही सुख में सुख मानने लगे। एक बात और है, भगवान् का अवतार इस बार रावण को मारने के लिये हो रहा है, वह आपका बड़ा भक्त है, उसने सिर तक काट कर आपको चढ़ाये हैं। ऐसी स्थिति में आप उसको मारने के काम में कैसे सहायता कर सकते हैं ?’

भगवान् शंकर हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘देवि ! तुम बड़ी भोली हो। इसमें वियोग की तो कोई बात ही नहीं है। मैं एक रूप से अवतीर्ण होकर उनकी सेवा करूँगा और एक रूप से तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें उनकी लीलाएँ दिखाऊँगा तथा समय-समय पर उनके पास जाकर उनकी स्तुति-प्रार्थना करूँगा। रह गयी तुम्हारी दूसरी बात, सो तो जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंश की अवहेलना भी की है। तुम तो जानती ही हो, मैं ग्यारह स्वरूपों में रहता हूँ। जब उसने अपने दस सिर चढ़ाकर मेरी पूजा की थी, तब उसने मेरे एक अंश को बिना पूजा किये ही छोड़ दिया था। अब मैं उसी अंश के रूप में उसके विरुद्ध युद्ध कर सकता हूँ और अपने प्रभु की सेवा कर सकता हूँ। मैंने वायु देवता के द्वारा अञ्जना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है। अब तो तुम्हारे मन में कोई दुःख नहीं है न; भगवती सती प्रसन्न हो गयीं।

देवराज इन्द्र की अमरावती में एक पुञ्जिकस्थला नामकी अप्सरा थी। एक दिन उससे कुछ अपराध बन गया, जिसके कारण उसे वानरी होकर पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। शाप देनेवाले ऋषि ने बड़ी प्रार्थना के बाद इतना अनुग्रह कर दिया था कि वह जब जैसा चाहे, वैसा रूप धारण कर ले। चाहे जब वानरी रहे, चाहे जब मानवी। वानरराज केसरी ने उसे पत्नी के रूप में ग्रहण किया था। वह बड़ी सुन्दर थी और केसरी उससे बहुत ही प्रेम करते थे।

एक दिन दोनों ही मनुष्य का रूप धारण करके अपने राज्य में, सुमेरु के श्रृंगों पर विचरण कर रहे थे। मन्द-मन्द वायु बह रहा था। वायु के एक हल्के से झोंके से अञ्जना की साड़ी का पल्ला उड़ गया। अञ्जना को ऐसा मालूम हुआ कि उसे कोई स्पर्श कर रहा है। वह अपने कपड़े को सम्हालती हुई अलग खड़ी हो गयी। उसने डाँटते हुए कहा—‘ऐसा ढीठ कौन है, जो मेरा पातिव्रत्य नष्ट करना चाहता है ! मैं अभी शाप देकर उसे भस्म कर दूँगी।’ उसे प्रतीत हुआ मानो वासुदेव कह रहे हैं—‘देवि ! मैंने तुम्हारा व्रत नष्ट नहीं किया है। देवि ! तुम्हें एक ऐसा पुत्र होगा, जो शक्ति में मेरे समान होगा, बल और बुद्धि में उसकी समानता कोई न कर सकेगा। मैं उसकी रक्षा करूँगा, वह भगवान् का सेवक होगा।’ तदनन्तर अञ्जना और केसरी अपने स्थल पर चले गये। भगवान् शंकर ने अंशरूप से अञ्जना के कान के
द्वारा उसी के गर्भ में प्रवेश किया। 
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जैहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेह बस बानर भे हनुमान।।
जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान।।

(दोहावली 142-143)

चैत्र शुक्ल 15 मंगलवार के दिन  अञ्जना के गर्भ से भगवान् शंकर ने वानररूप से अवतार ग्रहण किया। अञ्जना और केसरी के आनन्द की सीमा न रही शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिन-प्रति दिन बढ़ते  हुए बालक का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग से होने लगा। अञ्जना कहीं जाती हो उन्हें अपना हृदय से सटा लेती, केसरी बालक को अपनी पीठ पर बैठाकर छलाँगें भरते और अपने शिशु को आनन्दित देखकर स्वयं आनन्दमग्न हो जाते।

एक दिन बच्चे को घर पर छोड़कर अञ्जना कहीं फल-फूल लाने के लिये चली गयी। केसरी पहले से ही बाहर गये हुए थे। बालक घर में अकेला था और उसे भूख लगी हुई थी। उसने इधर-उधर देखा, पर उसे कोई चीज न मिली। अन्त में उसकी दृष्टि सूर्य पर पड़ी। प्रातःकाल का समय था, उसने सोचा कि यह तो बड़ा सुन्दर लाल-लाल फल है। यह खाने-खेलने दोनों ही कामों में आयेगा। बालक ने सूर्य तक पहुँचने की चेष्टा की। वायु ने पहले ही उसे उड़ने की शक्ति दे दी थी अथवा यों भी कह सकते हैं कि भगवान् शंकर की लीला में यह आश्चर्य की कौन-सी बात है।

वह बालक आकाश में उड़ने लगा। देवता, दानव, यक्ष आदि उसे देखकर विस्मित हो गये। वायु के मन में शंका हुई। उन्होंने सोचा कि मेरा यह नन्हा सा बालक सूर्य की ओर दौड़ा जा रहा है। मध्याह्न-काल में तरुण सूर्य की प्रखर किरणों से कहीं यह जल न जाय ! उन्होंने हिमालय और मलयाचल से शीतलता इकट्ठी की और अपने पुत्र के पीछे-पीछे चलने लगे। सूर्य ने भी देखा। उनकी दिव्य दृष्टि में बालक की महत्ता छिपी न रही, उनके मन में कई बातें आयीं। उन्होंने देखा कि स्वयं भगवान् शंकर ही वानर-बालक के वेश में मेरे पास आ रहे हैं।

 यह बात भी उनसे न छिपी न रही कि मेरे पितृतुल्य वायुदेव आशीर्वाद से ही इस बालक का जन्म हुआ है और वे स्वयं इसकी रक्षा करने के लिये आ रहे। उन्होंने अपनी कर-किरणें शीतल कर दीं, मानों वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके अपने छोटे भाई को दुलराने लगे। अथवा जगत्पिता शंकर को अपने पास आते देखकर उनका स्वागत करने लगे। वह बालक सूर्य के रथ पर पहुँच गया। उनके साथ खेलने लगा।
किन्ही-किन्हीं के मत से हनुमान जी की जन्मतिथि कार्तिक कृष्ण 14 या कार्तिक शुक्ल 15 है।


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