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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त रत्नाकर

भक्त रत्नाकर

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1024
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त रत्नाकर का चरित्र चित्रण...

Bhakat Ratnakar a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - भक्त रत्नाकर - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

यह संक्षिप्त भक्त-चरितमालाका सत्रहवाँ पुष्प है। इसमें बड़े विचित्र भक्तों की मंगलमयी जीवन-गाथाएँ सजायी गयी हैं। भक्त कैसे विश्वासी, निःस्पृही, परदुः खकातर, हर अवस्थामें भगवान् के मंगलविधानको देख-देखकर प्रसन्न होनेवाले और भगवान की कृपा में दृढ़ निश्चय रखनेवाले होते हैं तथा भगवान कितने भक्तवत्सल, भक्तवाच्छा-कल्पतरु, भक्ताधीन, भक्तवश्य और भक्त-प्रेमी होते हैं। इसके प्रत्यक्ष दर्शन इस भक्त-चरित-संग्रहमें होंगे। आशा है, पाठक-पाठिकाएँ इस मंगल-दर्शन अपने को कृतार्थ करेंगे।

हनुमानप्रसाद पोद्दार

भक्त- रत्नाकर
भक्त माधवदासजी


माधवदासजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। गृहस्थ- आश्रम में आपने अच्छी धन-सम्पति कमायी। आप बड़े ही विद्वान् तथा धार्मिक भक्त थे। जब आपकी धर्मपत्नी स्वर्गलोकको सिधारीं तब आपके हृदय में संसार से सहसा वैराग्य हो गया। संसार को निस्सार समझकर आपने घर छोड़ जगन्नाथपुरीका रास्ता पकड़ा। वहां पहुँचकर आप समुद्र के किनारे एकान्त स्थान में पड़े रहे और अपने को भगवद्ध्यानमें तल्लीन कर दिया। आप ऐसे ध्यानमग्न हुए कि आपको अन्न-जलकी भी सुध न रही। प्रेम की यही दशा है इस प्रकार बिना अन्न-जल आपको कई दिन बीत गये; तब दयालु जगन्नाथ जी को आपका इस प्रकार भूखे रहना न सहा गया। तुरंत सुभद्राजीको आज्ञा दी कि आप स्वयं उत्तम-से-उत्तम भोग सुवर्ण-थाल में रखकर मेरे भक्त माधव के पास पहुँचा आओं। सुभद्राजी प्रभुकी आज्ञा पाकर सुवर्ण-थाल सजाकर माधवदासजी के पास  पहुँचीं। आपने देखा कि माधव तो ध्यान में ऐसा मग्न है कि उनके आने का भी कुछ ध्यान नहीं करता। अपनी आँखें मूँदे प्रभुकी परम मनोहर मूर्तिका का ध्यान कर रहा है, अतएव आप भी ध्यान में विक्षेप करना उचित न समझ थाल रखकर चली आयीं। जब माधवदासजी का ध्यान समाप्त हुआ, तब वे सुवर्णाका थाल देख भगवत्कृपाका अनुभव कर आनन्दाश्रु बहाने लगे।
भोग लगाया, प्रसाद पा थालको एक ओर रख दिया; फिर ध्यानमग्न हो गये !

उधर जब भगवान् के पट खुले, तब पुजारियों ने सोने का एक थाल न देख बड़ा शोर-गुल मचाया। पुरीभर में तलाशी होने लगी। ढ़ूढ़ते-ढूढ़ते थाल माधवदासजी के पास पड़ा पाया गया। बस, फिर क्या था, माधवदास जी को चोर समझकर उनपर चाबुक पड़ने लगे। माधवदास जी ने मुस्कराते हुए सब चोटें सह लीं ! रात्रिमें पुजारियों को भयंकर स्वप्न दिखलायी दिया। भगवान् ने स्वप्न में कहा कि – मैंने माधवकी चोट अपने ऊपर ले ली, अब तुम्हारा सत्यानाश कर दूंगा, नहीं तो, उसके चरणों पर पड़कर अपने अपराध क्षमा करवा लो।’ बेचारे पण्डा दौड़ते हुए माधवदासजीके पास पहुँचे और उनके चरणों पर जा गिरे। माधवदासजीने तुरंत क्षमा प्रदान कर उन्हें निर्भय किया। भक्तों की दयालुता स्वाभाविक है !

अब माधवदासजीके प्रेमकी दशा ऐसी हो गयी कि जब कभी आप भगवद्दर्शनके लिये मन्दिरों में जाते, तब प्रभुकी मूर्तिको ही एकटक देखते रह जाते। दर्शन समाप्त होनेपर आप तल्लीन अवस्था में वहीं खड़े-खड़े पुजारियों के अदृश्य हो जाते है।

एक बार माधवदासजीको अतिसारका रोग हो गया। आप समुद्र किनारे दूर जा पड़े। वहाँ इतने दुर्बल हो गये कि उठ-बैठ न सकते थे। ऐसी दशा में जगन्नाथ जी स्वयं सेवक बनकर आपकी शुश्रूषा करने लगे। जब माधवदासजी को कुछ होश आया, तब उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि हो-न-हो ये प्रभु ही हैं। यह समझ झट उनके चरण पकड़ लिये और विनीत भावसे कहने लगे-
‘नाथ ! मुझ-जैसे  अधम के लिये क्यों आपने इतना कष्ट उठाया ? फिर प्रभो ! आप तो सर्वशक्तिमान् हैं। अपनी शक्ति से ही मेरे दुःख क्यो न हर लिये, वृथा इतना परिश्रम क्यों किया ?’ भगवान् कहने लगे- ‘माधव ! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, उनकी सेवा के योग्य मैं अपने सिवा किसी को नहीं समझता, इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। तुम जानते हो कि प्रारब्ध भोगने से ही नष्ट होता है- यह मेरा ही नियम है, इसे मैं क्यों तोडूँ ? इसलिए केवल सेवा कर प्रारब्ध-भोग भक्तों से करवाता हूँ और ‘योऽसौ विश्वम्भरो देवः स भक्तान् किमुपेक्षते,’ इसकी सत्यता संसार को दिखलाता हूँ।’ भगवान् यह कहकर अन्तर्धान हो गये। इधर माधवदासजी के भी सब दुःख दूर हो गये।

इन घटनाओं से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब तो माधवदास जी की महिमा चारों ओर फैलने लगी। लोग इनको बहुत घेरने लगे। भक्तों के लिये सकामी संसारी जीवों से घिर जाना एक बड़ी आपत्ति है। आपकों यह सूझा कि अब पागल बन जाना चाहिये। बस, आप पागल बन इधर-उधर हरि-ध्वनि करते घूमने लगे। एक दिन आप एक स्त्री के द्वारपर गये और भिक्षा माँगी। वह स्त्री उस समय चौका दे रही थी, उसने मारे क्रोधसे चौकेका पोतना माधव जी के मुँह पर फेककर मारा। आप बड़े प्रसन्न होकर उस पोतने को अपने डेरेपर ले गये। उसे धो-सुखाकर भगवानके मन्दिर में जा उसकी बत्ती बनाकर जलायी, जिसका यह फल हुआ कि उस पोतनेकी बत्ती से ज्यों-ज्यों मन्दिर में प्रकाश फैलने लगा, त्यों-त्यों उस स्त्री के हृदय-मन्दिर में भी ज्ञानका प्रकाश होना प्रारम्भ हुआ। यहाँ तक कि अन्त में वह स्त्री परम भक्तिमती हो गयी और रात-दिन भगवान के ध्यान में मस्त रहने लगी।

एक बार एक शास्त्री पण्डित शास्त्रार्थद्वारा दिग्विजय करते हुए माधवजी के पाण्डित्य की चर्चा सुनकर शास्त्रार्थ करने जगन्नाथपुरी आये और माधवदासजी से शास्त्रार्थ करने का हठ करने लगे। भक्तों को शास्त्रार्थ निर्रथक प्रतीत होता है। माधवदासजीने बहुत मना किया, पर पंडित भला कैसे मानते ? अन्त में माधवदास जी ने एक पत्र पर यह लिखकर हस्ताक्षर कर दिया, ‘माधव हारा, पंडित जीते।’

पंडित जी इसपर फूले न समाए। तुरंत काशी चल दिए। वहाँ पंडितों की सभा कर वे अपनी विजय का वर्णन करने लगे और वह प्रमाणपत्र लोगों को दिखाने लगे। पंडितों ने देखा तो उस पर यह लिखा पाया, ‘पंडितजी हारे, माधव जीता।’ अब तो पंडित जी क्रोध के मारे आगबबूला हो गए। उल्टे पैर जगन्नाथपुरी पहुँचे। वहाँ माधवदासजी को जी खोल गालियाँ सुनायीं और कहा कि ‘शास्त्रार्थमें जो हारे’ वही काला मुँह कर गदहे पर चढ़ नगर भरमें घूमे।’ माधवदासजी ने बहुत समझाया, पर वे क्यों मानने लगे ? अवकाश पाकर भगवान् माधवदासजी का रूप बना पंडित जी से शास्त्रार्थ करने पहुँचे और भरी सभा में उन्हें खूब छकाया।

अन्त में उनकी शर्त के अनुसार उनका मुँह काला कर गदहेपर चढ़ा, सौ-दो-सौ बालकों को ले धूल उड़ाते नगर में सैर की। माधवदासजीने जब यह हाल सुना, तब भागे और भगवान् के चरण पकड़ उनसे पंडितजीके अपराधों की क्षमा चाही। भगवान् तुरंत अन्तर्धान ध्यान हो गए। माधवदासजी ने पंडित जी को गदहे से उताकर क्षमा माँगी, उनका रोष दूर किया। धन्य है भक्तों की सहिष्णुता और दयालुता ! एक बार माधवदासजी व्रजयात्रा को जा रहे थे। मार्ग में एक बाई आपको भोजन कराने ले गयी। बाई ने बड़े प्रेम से आपको भोजन करवाया।


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