गीता प्रेस, गोरखपुर >> एक महात्मा का प्रसाद एक महात्मा का प्रसादहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है एक महात्मा का प्रसाद...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
महात्माओं की महिमा अवर्णनीय है, उनका संसार में रहना और विचरना सहज
लोक-कल्याण के लिये ही होता है। जैसे सूर्य सहज ही जीवमात्र को प्रकाश
प्रदान करता है, वैसे ही महात्मागण (उनके सम्पर्क में आनेवाले) सबके
अज्ञानान्धकार का नाश करके विमल ज्ञान का प्रकाश प्रदान करते हैं और अपनी
अमृतमयी वाणी से सबको परम शान्ति देते हैं। महात्माओं का मिलन, उनका
सतसंग, उनका वचन अमोघ होता है।
महात्माओं के संग का अर्थ उनके समीप रहना ही नहीं है ; सच्चा संग है, उनके विचारों को अपने जीवन में उतारना—उनके कल्याणमय उपदेशों के अनुसार जीवन बना लेना। जो मनुष्य महात्माओं के आदर्श उपदेशानुसार अपना स्वभाव और आचरण बना लेते हैं, वे ही महात्माओं के संग का यथार्थ लाभ उठा सकते हैं। महात्माओं के समीप रहकर राग-द्वेष का पोषण करना और उनके विचारों का आदर न करके उनके नाम पर प्रमाद करना वस्तुतः ‘महात्मा’ के संग का दुरुपयोग करना है। ऐसा करने वाले महात्माओं के संग का महान् लाभ प्राप्त करने से वञ्चित रह जाते हैं।
सदा विनम्रभाव से महात्माओं की सेवा करना—उनके वचनों का आदर करके तदनुसार आचरण करना ही उनकी सीख सेवा है—अपने मनकी शंकाओं को मिटाने के लिये उनसे सरल भाव तथा सरल भाषा में प्रश्न करना, समझ में न आने पर पुनः पूछना और उनके द्वारा समुचित समाधान हो जाने पर उनके बताये सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देना—ऐसा करने वालों को महात्मा के संग का यथार्थ लाभ तुरन्त मिल जाता है। फिर उनका जीवन पलटते देर नहीं लगती।
मेरे एक सम्मान्य बन्धु सत्संग की सच्ची भावना से एक महात्मा के पास गये थे। वहाँ वे उनके पास विनम्रभाव से रहते तथा अपने एवं दूसरे सज्जनों के द्वारा किये हुए प्रश्नों के उत्तरस्वरूप में और प्रवचनरूप में महात्माजी के श्रीमुख से जो कुछ सुनते थे, उनको लिखते जाते थे। लिखकर महात्माजी को सुना देते थे, कहीं कुछ भूल रही होती तो उसे महात्माजी के आदेशानुसार सुधार देते थे। महात्माजी के उन्हीं मंगलमय उपदेशों का संग्रह ‘एक महात्मा का प्रसाद’ के रूप में पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जा रहा है। मेरा विश्वास है कि इसको मन लगाकर पढ़ने और तदनुसार जीवन बनाने का प्रयत्न करने से महान् लाभ होगा। मेरे अपने उन बन्धु के स्वभाव में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने पर तो मेरी यह धारणा और भी दृढ़ तथा सुनिश्चित हो जाती है। मेरी प्रार्थना है कि पाठक इस छोटी-सी कल्याणमयी पुस्तक से सच्चा लाभ उठावें।
महात्माओं के संग का अर्थ उनके समीप रहना ही नहीं है ; सच्चा संग है, उनके विचारों को अपने जीवन में उतारना—उनके कल्याणमय उपदेशों के अनुसार जीवन बना लेना। जो मनुष्य महात्माओं के आदर्श उपदेशानुसार अपना स्वभाव और आचरण बना लेते हैं, वे ही महात्माओं के संग का यथार्थ लाभ उठा सकते हैं। महात्माओं के समीप रहकर राग-द्वेष का पोषण करना और उनके विचारों का आदर न करके उनके नाम पर प्रमाद करना वस्तुतः ‘महात्मा’ के संग का दुरुपयोग करना है। ऐसा करने वाले महात्माओं के संग का महान् लाभ प्राप्त करने से वञ्चित रह जाते हैं।
सदा विनम्रभाव से महात्माओं की सेवा करना—उनके वचनों का आदर करके तदनुसार आचरण करना ही उनकी सीख सेवा है—अपने मनकी शंकाओं को मिटाने के लिये उनसे सरल भाव तथा सरल भाषा में प्रश्न करना, समझ में न आने पर पुनः पूछना और उनके द्वारा समुचित समाधान हो जाने पर उनके बताये सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देना—ऐसा करने वालों को महात्मा के संग का यथार्थ लाभ तुरन्त मिल जाता है। फिर उनका जीवन पलटते देर नहीं लगती।
मेरे एक सम्मान्य बन्धु सत्संग की सच्ची भावना से एक महात्मा के पास गये थे। वहाँ वे उनके पास विनम्रभाव से रहते तथा अपने एवं दूसरे सज्जनों के द्वारा किये हुए प्रश्नों के उत्तरस्वरूप में और प्रवचनरूप में महात्माजी के श्रीमुख से जो कुछ सुनते थे, उनको लिखते जाते थे। लिखकर महात्माजी को सुना देते थे, कहीं कुछ भूल रही होती तो उसे महात्माजी के आदेशानुसार सुधार देते थे। महात्माजी के उन्हीं मंगलमय उपदेशों का संग्रह ‘एक महात्मा का प्रसाद’ के रूप में पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जा रहा है। मेरा विश्वास है कि इसको मन लगाकर पढ़ने और तदनुसार जीवन बनाने का प्रयत्न करने से महान् लाभ होगा। मेरे अपने उन बन्धु के स्वभाव में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने पर तो मेरी यह धारणा और भी दृढ़ तथा सुनिश्चित हो जाती है। मेरी प्रार्थना है कि पाठक इस छोटी-सी कल्याणमयी पुस्तक से सच्चा लाभ उठावें।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
एक महात्मा का प्रसाद
(प्रथम भाग)
(कुछ दिन पूर्व हमारे एक सज्जन एक महात्मा के पास गये थे, वहाँ प्रवचन तथा
प्रश्नोत्तररूप में जो कुछ महात्माजी ने कहा, उसे लिख लिया गया था। उसी को
यहाँ क्रम से दिया जा रहा है।)
(1)
साधक के जीवन में ऐसी प्रीति नहीं होनी चाहिए कि अमुक समय तो साधन का है
और अमुक समय साधन का नहीं है। अमुक क्रिया या प्रवृत्ति तो साधन है और
अमुक नहीं। उसका तो प्रत्येक क्षण और प्रत्येक प्रवृत्ति साधनमय होनी
चाहिये। जिसकी समझ में सब कुछ भगवान् का है, उसका अपना तो केवलमात्र एक
भगवान् के सिवा और कुछ भी नहीं रहा। फिर उसकी कोई भी प्रवृत्ति भगवान्की
सेवा से भिन्न हो ही कैसे सकती है ? उसके जीवन का प्रत्येक क्षण भगवान् की
प्रसन्नता के लिये उन्हीं की दी हुई योग्यता से, उन्हीं की सेवा में
लगेगा। इसके सिवा दूसरा साधन हो ही क्या सकता है।
(2)
(1) बुरे और अनावश्यक संकल्पों का त्याग ही चित्तशुद्धि का पहला उपाय है।
(क) जिस काम से किसी का अहित होता है, तद्विषयक संकल्पों का नाम बुरे संकल्प हैं।
(ख) जिसका वर्तमान से सम्बन्ध न हो, जिस संकल्प को पूरा करने की साधक में योग्यता या शक्ति न हो, यदि योग्यता हो तो भी वर्तमान काल में उसे पूरा करना आवश्यक न हो या सम्भव न हो, ऐसे संकल्पों का नाम है—अनावश्यक संकल्प।
इनकी निवृत्ति के बाद जो साधक के मन में आवश्यक और भले संकल्प उठते हैं, उनकी पूर्ति अपने-आप होती है, यह प्राकृत नियम है।
(2) आवश्यक और भले संकल्पों की पूर्ति में भी उस पूर्ति के सुख में रस न लेना, किंतु ईश्वर की अहैतुकी कृपा का अनुभव करते हुए उनके प्रेम और विश्वास को पुष्ट करते रहना—यह चित्तशुद्धि का दूसरा उपाय है।
(क) आवश्यक संकल्प उनको कहते हैं, जिनके अनुसार साधक की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है और जिनकी पूर्ति का सम्बन्ध वर्तमान से है, जैसे भोजनादि शरीर-सम्बन्धी क्रिया-विषयक संकल्प एवं अपनी योग्यता के अनुसार अन्यान्य वर्तमान प्रवृत्ति से या निवृत्ति से सम्बन्ध रखने वाले संकल्प।
(ख) भले ही संकल्प उनको कहते हैं, जिनमें किसी की हित-प्रसन्नता निहित हो।
(3) जब कभी साधक को ऐसा प्रतीत होता हो कि मेरे आवश्यक और शुभ संकल्पों की भी पूर्ति नहीं हो रही है, तो उस समय मनमें किसी प्रकार की खिन्नता या निराशा को स्थान नहीं देना चाहिये, किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि ‘प्रभु अब मुझे अपनाने के लिये—मुझे अपना प्रेम प्रदान करने के लिये मेरे मन की बात पूरी न करके अपने मन की बात पूरी कर रहे हैं।’ तथा ऐसे भाव से उन प्रेमास्पद के संकल्प में अपने संकल्पों को मिलाकर उनकी प्रसन्नता से और उनकी प्रेम प्राप्ति की आशाभरी उमंग में आनन्दमग्न हो जाना—यह अन्तःकरण की परम शुद्धि का अन्तिम साधन है।
चित्त शुद्ध होने से निर्विकल्प स्थिति और सन्देहरहित बोध होता है। उस समय साधक के जीवन में सब प्रकार दुःखों की निवृत्ति तथा स्वाधीनता और सामर्थ्य—इनका अनुभव होता है; परन्तु उससे होने वाले सुख में भी साधक को सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये और उसका उपयोग भी नहीं करना चाहिये; प्रत्युत उदासीन भाव से उसकी उपेक्षा करके भगवान् के प्रेम और विश्वास को ही पुष्ट करते रहना चाहिये।
(क) जिस काम से किसी का अहित होता है, तद्विषयक संकल्पों का नाम बुरे संकल्प हैं।
(ख) जिसका वर्तमान से सम्बन्ध न हो, जिस संकल्प को पूरा करने की साधक में योग्यता या शक्ति न हो, यदि योग्यता हो तो भी वर्तमान काल में उसे पूरा करना आवश्यक न हो या सम्भव न हो, ऐसे संकल्पों का नाम है—अनावश्यक संकल्प।
इनकी निवृत्ति के बाद जो साधक के मन में आवश्यक और भले संकल्प उठते हैं, उनकी पूर्ति अपने-आप होती है, यह प्राकृत नियम है।
(2) आवश्यक और भले संकल्पों की पूर्ति में भी उस पूर्ति के सुख में रस न लेना, किंतु ईश्वर की अहैतुकी कृपा का अनुभव करते हुए उनके प्रेम और विश्वास को पुष्ट करते रहना—यह चित्तशुद्धि का दूसरा उपाय है।
(क) आवश्यक संकल्प उनको कहते हैं, जिनके अनुसार साधक की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है और जिनकी पूर्ति का सम्बन्ध वर्तमान से है, जैसे भोजनादि शरीर-सम्बन्धी क्रिया-विषयक संकल्प एवं अपनी योग्यता के अनुसार अन्यान्य वर्तमान प्रवृत्ति से या निवृत्ति से सम्बन्ध रखने वाले संकल्प।
(ख) भले ही संकल्प उनको कहते हैं, जिनमें किसी की हित-प्रसन्नता निहित हो।
(3) जब कभी साधक को ऐसा प्रतीत होता हो कि मेरे आवश्यक और शुभ संकल्पों की भी पूर्ति नहीं हो रही है, तो उस समय मनमें किसी प्रकार की खिन्नता या निराशा को स्थान नहीं देना चाहिये, किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि ‘प्रभु अब मुझे अपनाने के लिये—मुझे अपना प्रेम प्रदान करने के लिये मेरे मन की बात पूरी न करके अपने मन की बात पूरी कर रहे हैं।’ तथा ऐसे भाव से उन प्रेमास्पद के संकल्प में अपने संकल्पों को मिलाकर उनकी प्रसन्नता से और उनकी प्रेम प्राप्ति की आशाभरी उमंग में आनन्दमग्न हो जाना—यह अन्तःकरण की परम शुद्धि का अन्तिम साधन है।
चित्त शुद्ध होने से निर्विकल्प स्थिति और सन्देहरहित बोध होता है। उस समय साधक के जीवन में सब प्रकार दुःखों की निवृत्ति तथा स्वाधीनता और सामर्थ्य—इनका अनुभव होता है; परन्तु उससे होने वाले सुख में भी साधक को सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये और उसका उपयोग भी नहीं करना चाहिये; प्रत्युत उदासीन भाव से उसकी उपेक्षा करके भगवान् के प्रेम और विश्वास को ही पुष्ट करते रहना चाहिये।
(3)
साधक के लिये वही सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ मान्य है, जिसके समझने में उसे
किसी प्रकार का सन्देह न हो जिसके अनुसार अपना जीवन बना लेने में उसे किसी
का सन्देह न हो और जिसके अनुसार अपना जीवन बना लेने में उसे किसी प्रकार
की कठिनाई का बोध न होता है। यानी वर्तमान में प्राप्त परिस्थिति और
योग्यता के सदुपयोग से ही जिस सिद्धान्त के अनुसार जीवन बना लेना सहज हो।
जिसमें निराशा के लिये कोई स्थान न हो, उसको सबसे अधिक प्रिय हो तथा
जिसमें उसका पूर्ण विश्वास हो। जिस साधक के पास न धनका बल है, न शरीर का
बल है, न बुद्धि-बल है, न इन्द्रिय-बल है, न सदाचार-बल है और न जाति का बल
है—ऐसा दीन-हीन पतित से भी पतित मनुष्य जिस सिद्धान्त के अनुसार
सुगमता से अपने साध्य को अनायास सहज ही प्राप्त कर सकता हो, वही सिद्धान्त
सर्वश्रेष्ठ है। जो सिद्धान्त प्राप्त योग्यता के सदुपयोग द्वारा साधक को
साध्य की प्राप्ति करा देने में समर्थ हो, वही उसके लिये वास्तविक
सिद्धान्त है। अपने सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए दूसरों के सिद्धान्त का
आदर करना ही धर्म है, क्योंकि धर्म सभी सिद्धान्तों का समर्थक है।
(4)
किसी भी कर्म की शुद्धि के लिये यह जानना परमावश्यक है कि उसका उद्गम
स्थान क्या है अर्थात् कर्म की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? विचार करने पर
मालूम होगा कि कर्ता के भाव और संकल्प से कर्म बनता है अर्थात् पहले कर्ता
किसी भाव से होकर स्वयं कुछ बनता है, तब उसके अनुसार संकल्प और कर्म की
उत्पत्ति होती है। जब मनुष्य कोई अच्छा काम करने में प्रवृत्त होता है, तब
पहले स्वयं अच्छा बनता है। वैसे ही जब किसी बुरे काम में प्रवृत्त होता
है, तब पहले स्वयं बुरा बनता है। जैसे चोर बनकर चोरी करता है, भोगी बनकर
भोग करता है, सेवक बनकर सेवा करता है इत्यादि।
अतः यह सिद्ध हुआ कि क्रिया की शुद्धि के लिये साधक को पहले अपने अहंभाव को शुद्ध करना परम आवश्यक है; क्योंकि कारण की शुद्धि के बिना कार्य की वास्तविक और स्थाई सिद्धि नहीं होती। इसलिये साधक को चाहिये कि वह अपनी मान्यता को पहले स्थिर और शुद्ध बनावे, विकल्प रहित—यह निश्चय करे कि मैं भगवान् हूँ। यह भाव निश्चित होने पर अपने-आप उन्हीं कामों को करने के संकल्प उठेंगे, जो भगवान को प्रिय हैं, जो भगवान् की प्रसन्नता के लिये करने आवश्यक है। इस प्रकार भाव, संकल्प और कर्म की शुद्धि सुगमतापूर्वक अपने-आप हो सकती है।
साधक जिस वर्ण, आश्रम, परिस्थिति में रहता हो उसे तो भगवान् की नाट्यशाला का स्वाँग समझे और उस स्वाँग के अनुसार जब जो कर्म करना आवश्यक हो उसे खूब उत्साह, सावधानी और प्रसन्नता पूर्वक करता रहे, परंतु उस अभिनय को अपना जीवन न माने अर्थात् उसमें जीवन-बुद्धि, सद्भाव न रखे। ऐसा होने से अभिनय के रूप में होनेवाली प्रवृत्तियों का राग अंकित नहीं होगा, जिससे निरावासना आ जायगी और प्रत्येक प्रवृत्ति के अन्त में स्वाभाविक ही प्रेमास्पद के प्रेम की प्रतीक्षा उदय होगी; क्योंकि अभिनयकाल में यह भावना जाग्रत रहती है कि हमारे हिस्से में आया हुआ अभिनय ठीक-ठीक पूरा न हो जाने पर हमारे प्रेमास्पद हमें जरूर अपनायेंगे, हमसे प्रेम करेंगे।
प्रेमास्पद की ओर से मिले हुए अभिनय से छिपे हुए राग की निवृत्ति होती है। राग का अन्त होते ही अनुराग की गंगा स्वतः लहराने लगती है—यह सभी प्रेमियों का अनुभव है। अभिनय करते समय इस बात को कभी न भूले कि मैं उनका हूँ जो इस लीलास्थलीरूप जगत् के स्वामी हैं। स्वतः मैं जो कुछ कर रहा हूँ या मुझे जो कुछ करना है—वह उन्हीं की प्रसन्नता के लिये करना है और इस अभिनय को प्रभु देख रहे हैं।
अहंभाव की शुद्धि के बिना यदि कोई मनुष्य कर्म की शुद्धि के लिये प्रयत्न करता है तो वह कोशिश करने पर भी कर्म को शुद्ध नहीं बना सकता; क्योंकि जहाँ कर्म की उत्पत्ति होती है, जो उसका कारण है, उसकी शुद्धि के बिना कर्म की शुद्धि सम्भव नहीं है।
अतः यह सिद्ध हुआ कि क्रिया की शुद्धि के लिये साधक को पहले अपने अहंभाव को शुद्ध करना परम आवश्यक है; क्योंकि कारण की शुद्धि के बिना कार्य की वास्तविक और स्थाई सिद्धि नहीं होती। इसलिये साधक को चाहिये कि वह अपनी मान्यता को पहले स्थिर और शुद्ध बनावे, विकल्प रहित—यह निश्चय करे कि मैं भगवान् हूँ। यह भाव निश्चित होने पर अपने-आप उन्हीं कामों को करने के संकल्प उठेंगे, जो भगवान को प्रिय हैं, जो भगवान् की प्रसन्नता के लिये करने आवश्यक है। इस प्रकार भाव, संकल्प और कर्म की शुद्धि सुगमतापूर्वक अपने-आप हो सकती है।
साधक जिस वर्ण, आश्रम, परिस्थिति में रहता हो उसे तो भगवान् की नाट्यशाला का स्वाँग समझे और उस स्वाँग के अनुसार जब जो कर्म करना आवश्यक हो उसे खूब उत्साह, सावधानी और प्रसन्नता पूर्वक करता रहे, परंतु उस अभिनय को अपना जीवन न माने अर्थात् उसमें जीवन-बुद्धि, सद्भाव न रखे। ऐसा होने से अभिनय के रूप में होनेवाली प्रवृत्तियों का राग अंकित नहीं होगा, जिससे निरावासना आ जायगी और प्रत्येक प्रवृत्ति के अन्त में स्वाभाविक ही प्रेमास्पद के प्रेम की प्रतीक्षा उदय होगी; क्योंकि अभिनयकाल में यह भावना जाग्रत रहती है कि हमारे हिस्से में आया हुआ अभिनय ठीक-ठीक पूरा न हो जाने पर हमारे प्रेमास्पद हमें जरूर अपनायेंगे, हमसे प्रेम करेंगे।
प्रेमास्पद की ओर से मिले हुए अभिनय से छिपे हुए राग की निवृत्ति होती है। राग का अन्त होते ही अनुराग की गंगा स्वतः लहराने लगती है—यह सभी प्रेमियों का अनुभव है। अभिनय करते समय इस बात को कभी न भूले कि मैं उनका हूँ जो इस लीलास्थलीरूप जगत् के स्वामी हैं। स्वतः मैं जो कुछ कर रहा हूँ या मुझे जो कुछ करना है—वह उन्हीं की प्रसन्नता के लिये करना है और इस अभिनय को प्रभु देख रहे हैं।
अहंभाव की शुद्धि के बिना यदि कोई मनुष्य कर्म की शुद्धि के लिये प्रयत्न करता है तो वह कोशिश करने पर भी कर्म को शुद्ध नहीं बना सकता; क्योंकि जहाँ कर्म की उत्पत्ति होती है, जो उसका कारण है, उसकी शुद्धि के बिना कर्म की शुद्धि सम्भव नहीं है।
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