गीता प्रेस, गोरखपुर >> साधक में साधुता साधक में साधुतागयाप्रसाद जी
|
4 पाठकों को प्रिय 120 पाठक हैं |
प्रस्तुत है साधक में साधुता...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
आध्यात्मिक जगत् में सतसंग की बड़ी महिमा है। जो व्यक्ति मानव- जीवन
प्राप्त कर इसी जीवन में जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना चाहता है
अर्थात् जिसके हृदय में परमात्मप्रभु को प्राप्त करने का दृढ़ भाव है और
इसके लिये सतत प्रयत्नशील है—वही व्यक्ति
‘साधक’ है।
क्योंकि साधक में साधुता तो होनी ही चाहिये, बिना साधुता के साधना सिद्ध
नहीं हो सकती। वास्तव में साधुता से सांसारिक लोग अपरिचित होते हैं, वे
व्यवहार कुशल तो होते हैं, परंतु व्यवहार में तथा जीवन में साधुता कैसे
आये, यह नहीं जानते।
सामान्यतः आस्तिकजन जो परमात्मामें आस्था और विश्वास रखते हैं, वे अपने पूरे समय का कुछ अंश अर्थात् चौबीस घंटे में एक-दो घंटे भगवान् की सेवा-पूजा में लगाने का प्रयत्न करते हैं। परंतु बाकी पूरा समय उनका अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगता है, जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग-द्वेष आदि से वे मुक्त नहीं हो पाते। एक-दो घंटे का समय जो भगवान् की पूजा तथा सेवा आदि में लगता है, उसका पुण्य उन्हें प्राप्त होता है। इसके साथ ही बचे हुए बाईस घंटों में उनके जो सत्-असत् आचरण होते हैं, उनका भी फल उन्हें भोगना पड़ता है—यह उनके बन्धन का मुख्य कारण है।
अतः जिन्हें संसार-सागर की भवाटवी से पार होना है अर्थात् इसी जीवन में बन्धनों से मुक्त होकर भगवत्सन्निधि प्राप्त करनी है, उन साधकों को अपने जीवन में साधुता लानी ही होगी। साधुता लाने का तात्पर्य है कि अपने अन्तःकरण के भावों को शुद्ध करना तथा अपने सम्पूर्ण जीवन को भगवान्की पूजा में परिणत कर देना। चौबीस घंटे का समय स्वार्थ की जगह परमार्थ में परिणति हो जाय—यही है साधुता का स्वरूप। यह साधुता कैसे प्राप्त होगी, इसका एकमात्र उपाय है—‘सतसंग’। किंतु यह सतसंग उसी व्यक्ति से प्राप्त हो सकता है, जिसका स्वंय का साधु-जीवन हो और जिसने अपने जीवन के अनुभवों को सबके कल्याण की दृष्टि से प्रकट किया हो।
प्रस्तुत पुस्तक में एक ऐसे महापुरुष की वाणी उन्हीं की मातृभाषा में सँजोयी गयी है, जिनका सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, साधना और साधुता का उदाहरण है।
पं. श्रीगयाप्रसादजी व्रज की एक महान् विभूति तो थे ही, साथ ही आध्यात्मिक जगत्के प्रेरणास्रोत भी थे। वे सर्वस्व त्याग कर विरक्त भाव से जीवनपर्यन्त तपोमयी व्रजभूमि में साधना में संलग्न थे। वे एक उच्चकोटि साधक एवं सिद्धि संत के रूपमें हम सभी को प्राप्त थे, पर कुछ दिनों पूर्व वे गोलोक सिधार गये।
साधनावस्था में अपनी अनुभूति और अपने अनुभवों के आधार पर उनके द्वारा समय-समय पर जो उद्गार व्रजभाषा में प्रकट किये गये, उन्हें उनके भक्तों ने लिपिबद्ध कर लिया। पिछले दिनों ‘कल्याण’ के मासिक अंकों में श्रृंखलाबद्धरूप से इन्हें प्रकाशिक किया गया, पाठकों के आग्रहों को ध्यान में रखकर इसे यहाँ संकलित कर पुस्तकरूप में प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है साधकगण इससे अवश्य लाभान्वित होंगे।
सामान्यतः आस्तिकजन जो परमात्मामें आस्था और विश्वास रखते हैं, वे अपने पूरे समय का कुछ अंश अर्थात् चौबीस घंटे में एक-दो घंटे भगवान् की सेवा-पूजा में लगाने का प्रयत्न करते हैं। परंतु बाकी पूरा समय उनका अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगता है, जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग-द्वेष आदि से वे मुक्त नहीं हो पाते। एक-दो घंटे का समय जो भगवान् की पूजा तथा सेवा आदि में लगता है, उसका पुण्य उन्हें प्राप्त होता है। इसके साथ ही बचे हुए बाईस घंटों में उनके जो सत्-असत् आचरण होते हैं, उनका भी फल उन्हें भोगना पड़ता है—यह उनके बन्धन का मुख्य कारण है।
अतः जिन्हें संसार-सागर की भवाटवी से पार होना है अर्थात् इसी जीवन में बन्धनों से मुक्त होकर भगवत्सन्निधि प्राप्त करनी है, उन साधकों को अपने जीवन में साधुता लानी ही होगी। साधुता लाने का तात्पर्य है कि अपने अन्तःकरण के भावों को शुद्ध करना तथा अपने सम्पूर्ण जीवन को भगवान्की पूजा में परिणत कर देना। चौबीस घंटे का समय स्वार्थ की जगह परमार्थ में परिणति हो जाय—यही है साधुता का स्वरूप। यह साधुता कैसे प्राप्त होगी, इसका एकमात्र उपाय है—‘सतसंग’। किंतु यह सतसंग उसी व्यक्ति से प्राप्त हो सकता है, जिसका स्वंय का साधु-जीवन हो और जिसने अपने जीवन के अनुभवों को सबके कल्याण की दृष्टि से प्रकट किया हो।
प्रस्तुत पुस्तक में एक ऐसे महापुरुष की वाणी उन्हीं की मातृभाषा में सँजोयी गयी है, जिनका सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, साधना और साधुता का उदाहरण है।
पं. श्रीगयाप्रसादजी व्रज की एक महान् विभूति तो थे ही, साथ ही आध्यात्मिक जगत्के प्रेरणास्रोत भी थे। वे सर्वस्व त्याग कर विरक्त भाव से जीवनपर्यन्त तपोमयी व्रजभूमि में साधना में संलग्न थे। वे एक उच्चकोटि साधक एवं सिद्धि संत के रूपमें हम सभी को प्राप्त थे, पर कुछ दिनों पूर्व वे गोलोक सिधार गये।
साधनावस्था में अपनी अनुभूति और अपने अनुभवों के आधार पर उनके द्वारा समय-समय पर जो उद्गार व्रजभाषा में प्रकट किये गये, उन्हें उनके भक्तों ने लिपिबद्ध कर लिया। पिछले दिनों ‘कल्याण’ के मासिक अंकों में श्रृंखलाबद्धरूप से इन्हें प्रकाशिक किया गया, पाठकों के आग्रहों को ध्यान में रखकर इसे यहाँ संकलित कर पुस्तकरूप में प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है साधकगण इससे अवश्य लाभान्वित होंगे।
-राधेश्याम खेमका
साधक में साधुता
(दीवानों का यह अगम पंथ संसारी समझ नहीं पाते।
श्रीसद्गुरुदेव (परमात्मप्रभु)-की शरणागति प्राप्त करनौं साधु कौ
सर्व-प्रथम कर्तव्य है।
श्रीसद्गुरुदेवमें अधिक –सौ-अधिक श्रद्धा-भाव राखनौं।
दिन व दिन श्रद्धा कूँ (को) बढ़ाते रहनौं।
यह देखत रहनौं कि, श्रद्धा में कमी तौ नहीं आय रही है।
पवित्र कार्य तथा सदाचार-पालन सौं श्रद्धाकी पुष्टि होय है।
पवित्र कार्य तथा सदाचार-पालन सौं श्रद्धाकी पुष्टि होय है।
श्रद्धा-सम्पन्न साधकके ताँईं (लिये) लोक तथा परलोकमें कछु दुर्लभ नहीं।
अपने श्रीसद्गुरु भगवान् में अधिक-सौं-अधिक श्रद्धा होनौं ही उचित है, किंतु साथ ही यहू विचार रहै कि, अन्य संतनमें अवज्ञा-बुद्धि न हौन पावै।
सबरे (सभी) संत ‘महापुरुष श्रीभगवत्-तुल्य माननीय तथा आदरणीय हैं।’
श्रीसद्गुरुदेवमें अधिक –सौ-अधिक श्रद्धा-भाव राखनौं।
दिन व दिन श्रद्धा कूँ (को) बढ़ाते रहनौं।
यह देखत रहनौं कि, श्रद्धा में कमी तौ नहीं आय रही है।
पवित्र कार्य तथा सदाचार-पालन सौं श्रद्धाकी पुष्टि होय है।
पवित्र कार्य तथा सदाचार-पालन सौं श्रद्धाकी पुष्टि होय है।
श्रद्धा-सम्पन्न साधकके ताँईं (लिये) लोक तथा परलोकमें कछु दुर्लभ नहीं।
अपने श्रीसद्गुरु भगवान् में अधिक-सौं-अधिक श्रद्धा होनौं ही उचित है, किंतु साथ ही यहू विचार रहै कि, अन्य संतनमें अवज्ञा-बुद्धि न हौन पावै।
सबरे (सभी) संत ‘महापुरुष श्रीभगवत्-तुल्य माननीय तथा आदरणीय हैं।’
जानेसु संत अनंत समाना।।
चाहै जा देश के हौयँ, चाहै जा जाति के हौयँ, ‘संत सबही परम
माननीय हैं।’
सबमें उच्च भाव राखै। सबकौ सम्मान करै। सबकी सेवा करै। सबकी वाणीन कौ अध्ययन करै। सबके उपदेश सुनै। किंतु साधन अपने श्रीसद्गुरुदेव की आज्ञाके अनुसार ही करै।
काहूके धर्ममें तर्क न करै।
सबरे मत, समस्त विधि-विधान ठीक हैं, इनमें शंका न उपरस्थित करै।
साधु के ताँईं उचित है कि प्राणपण सौं अपनी विधि कौं पालन करै, किंतु काहूकी विधिकी आलोचना न करै।
अपनी ही विधि कूँ बड़ौं मानिकै सबकी विधिन कौं खण्डन करनौं यह महा अपराध है। साधु या सौं बहुत ही बचतौ रहै।
वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन के चक्र सौं बचिकैं निरन्तर अपने साधनमें लग्यौं रहै, याहीमें परम कल्याण है।
गृहत्यागि कैं जब साधु बने हौ तौ, सब प्रपंचन सौं बचिकैं निरन्तर भजनमें ही लगनौं चहिए।
भजन ही करैं। भजन ही बिचारैं। भजनकी ही अनेकन युक्तियाँ सोचैं। भजनमें अतृप्ति ही रहै। जीवन कौ एक-एक क्षण भजनमें ही व्यतीत करैं।
अधिक बोलनौं, अधिक निद्रा, अधिक आहार, नशीली वस्तुन कौ सेवन, जन-समाजमें बैठनौं, ब्रह्मचर्य कौ अभाव, क्रोध आदिक दोषन कौ आवेश, रजोगुणकी वृद्धि, महत्-अवज्ञा, सदाचार-पालनमें कमी, दम्भ, भोगासक्ति, कार्य-बाहुल्य, शरीरकी अस्वस्थता, चिन्ता, मन की अशान्ति, श्रीसद्गुरु-भक्ति में कमी-ये सब भजन में बाधक है।
सबमें उच्च भाव राखै। सबकौ सम्मान करै। सबकी सेवा करै। सबकी वाणीन कौ अध्ययन करै। सबके उपदेश सुनै। किंतु साधन अपने श्रीसद्गुरुदेव की आज्ञाके अनुसार ही करै।
काहूके धर्ममें तर्क न करै।
सबरे मत, समस्त विधि-विधान ठीक हैं, इनमें शंका न उपरस्थित करै।
साधु के ताँईं उचित है कि प्राणपण सौं अपनी विधि कौं पालन करै, किंतु काहूकी विधिकी आलोचना न करै।
अपनी ही विधि कूँ बड़ौं मानिकै सबकी विधिन कौं खण्डन करनौं यह महा अपराध है। साधु या सौं बहुत ही बचतौ रहै।
वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन के चक्र सौं बचिकैं निरन्तर अपने साधनमें लग्यौं रहै, याहीमें परम कल्याण है।
गृहत्यागि कैं जब साधु बने हौ तौ, सब प्रपंचन सौं बचिकैं निरन्तर भजनमें ही लगनौं चहिए।
भजन ही करैं। भजन ही बिचारैं। भजनकी ही अनेकन युक्तियाँ सोचैं। भजनमें अतृप्ति ही रहै। जीवन कौ एक-एक क्षण भजनमें ही व्यतीत करैं।
अधिक बोलनौं, अधिक निद्रा, अधिक आहार, नशीली वस्तुन कौ सेवन, जन-समाजमें बैठनौं, ब्रह्मचर्य कौ अभाव, क्रोध आदिक दोषन कौ आवेश, रजोगुणकी वृद्धि, महत्-अवज्ञा, सदाचार-पालनमें कमी, दम्भ, भोगासक्ति, कार्य-बाहुल्य, शरीरकी अस्वस्थता, चिन्ता, मन की अशान्ति, श्रीसद्गुरु-भक्ति में कमी-ये सब भजन में बाधक है।
|
लोगों की राय
No reviews for this book