संस्कृति >> प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलनमुरली मनोहर प्रसाद सिंह
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प्रस्तुत पुस्तक प्रगतिशील आंदोलन की इसी निरंतरता पर भी केंद्रित है। सांगठनिक धरातल पर आंदोलन के विकास की रूपरेखा बताने तथा संभावनाएँ तलाशनेवाले लेखों के साथ-साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समकालीन रचनाकारों व रंगकर्मियों के द्वारा अपने-अपने सांस्कृतिक कर्म में प्रगतिशील आंदोलन का प्रभाव बतानेवाले आत्मकथ्य भी हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन पिछली सदी के चौथे दशक में प्रगतिशील आंदोलन ने जिन मूल्यों और सरोकारों को लेकर साहित्य कला जगत में हस्तक्षेप किया, उनकी अद्यावधि निरंतरता को देखने के लिए किसी दिव्यदृष्टि की ज़रूरत नहीं। साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, वर्गीय शोषण तथा हर तरह की गैरबराबरी के ख़िलाफ एक सुसंगत जनपक्षधर विवेक और नए सौंदर्यबोध के साथ लिखी जानेवाली कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों और समालोचना की एक अटूट परंपरा सन् 36 के बाद देखने को मिलती है। साहित्य के साथ–साथ चित्रकला, शिल्प, रंगकर्म, संगीत और सिनेमा में भी प्रगतिशील कलाबोध की संगठित अभिव्यक्ति चौथे–पाँचवें दशक में सामने आने लगी थी। तब से कई उतार–चढ़ावों के बीच इस दृष्टि ने मुख़्तलिफ कलारूपों में, कहीं कम कहीं ज़्यादा, अपनी मानीख़ेज़ उपस्थिति बनाए रखी है। आज हम औपनिवेशिक गुलामी या संरक्षित पूँजीवादी विकास से नहीं, नवउदारवादी भूमंडलीकरण, निजीकरण और वित्तीय पूँजी के हमले से रूबरू हैं। बदले हुए वस्तुगत हालात बदली हुई साहित्यिक एवं कलात्मक अनुक्रियाओं–प्रतिक्रियाओं की माँग करते हैं। लिहाजा, इन आठ दशकों के दौरान अगर रचनात्मक अभिव्यक्ति की शक्ल और अंतर्वस्तु में बदलाव न आते तो स्वयं निरंतरता ही अवमूल्यित होती इसलिए परिवर्तन, नए वस्तुगत हालात के बीच जनपक्षधर विवेक का नई तीक्ष्णता और त्वरा के साथ इस्तेमाल, यथार्थ की पहचान पर बल देनेवाले प्रगतिशील आंदोलन की निरंतरता का ही एक साक्ष्य बनकर सामने आता है।
प्रस्तुत पुस्तक प्रगतिशील आंदोलन की इसी निरंतरता पर भी केंद्रित है। सांगठनिक धरातल पर आंदोलन के विकास की रूपरेखा बताने तथा संभावनाएँ तलाशनेवाले लेखों के साथ-साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समकालीन रचनाकारों व रंगकर्मियों के द्वारा अपने-अपने सांस्कृतिक कर्म में प्रगतिशील आंदोलन का प्रभाव बतानेवाले आत्मकथ्य भी हैं।
प्रस्तुत पुस्तक प्रगतिशील आंदोलन की इसी निरंतरता पर भी केंद्रित है। सांगठनिक धरातल पर आंदोलन के विकास की रूपरेखा बताने तथा संभावनाएँ तलाशनेवाले लेखों के साथ-साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समकालीन रचनाकारों व रंगकर्मियों के द्वारा अपने-अपने सांस्कृतिक कर्म में प्रगतिशील आंदोलन का प्रभाव बतानेवाले आत्मकथ्य भी हैं।
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