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गीता प्रेस, गोरखपुर >> कलेजे के अक्षर

कलेजे के अक्षर

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1057
आईएसबीएन :81-293-0509-7

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प्रस्तुत है कलेजे के अक्षर....

Kaleje Ke Akshar a hindi book by Gitapress - कलेजे के अक्षर - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

कल्याण में ‘पढ़ो, समझो और करों’ शीर्षक में जो जीवन में सात्त्विकता ला देनेवाली, जीवन को उच्चस्तर पर चढ़ा देनेवाली, मानवता का सच्चा स्वरूप बतलाकर उसका विकास करनेवाली एवं भगवान् की ओर लगाने वाली सच्ची घटनाएं छपती हैं, वे सभी पाठकों के लिए बड़े ही आकर्षण की वस्तु  हैं। उन्हीं घटनाओं का संग्रह ‘कलेजे के अक्षर’ नाम से प्रकाशित की जा रही है।

पाठकों से निवेदन है कि वे इस पु्स्तिका में प्रकाशित आदर्श घटनाओं का अध्ययन करके लाभ उठावें।

कलेजे के अक्षर


गणेशचतुर्थी का दिन था। सबेरे लगभग आठ बजे थे। हाथ-मुँह धोकर सब चाय-पानी की तैयारी में लगे थे कि बाहर से आवाज आयी। भाई साहब ने जाकर दरवाजा खोला, देखते हैं दो बैलों की रास हाथ में लिये एक चिथड़ेहाल में ग्रामीण बाहर खड़ा है। ‘कैसे  हो, भैया !’ दरवाजा खोलने वाले भाई साहब से बूढ़े ग्रामीण ने पूछा। ‘सब  ठीक है।’ संक्षेप में ही भाई साहब ने उत्तर दे दिया।

ब्याज- बट्टे का धंधा करनेवाले हमारे पिताजीके जीवन काल में ऐसे कितने ही ग्रामीण हमारे यहां आया करते। इस बूढे़ का आना कोई नयी बात नहीं थी; परंतु बैलों की जोड़ी को साथ देखकर कुछ नयी सी बात लगी।

बैलों को बाहर बाँधकर धीरे-धीरे बूढ़ा भीतर आया  और देहली के पास  बैठकर बोला - ‘भैया ! बड़े बाबू मरते समय हमारे विषय में कुछ कह गये थे क्या ?’
 
पिता जी की मृत्यु अचानक हृदय की गति रुक जाने से हुई थी; इस छोटी सी बात की तो चर्चा ही क्या, बड़ी-बड़ी महत्व की बातें बिना बताये रह गयी थीं। अतएव भाई साहब ने कहा- ‘बड़े बाबू ने तो तुम्हारे बाबत कुछ नहीं कहा।’
‘उनके बहीखातों में कोई लिखावट है ?’ फिर बूढ़े ने पूछा।
भाई साहब ने तुरंत पिताजी के सब बही खातों को देख डाला, कहीं बूढ़े के नाम का कोई लेन-देन लिखा नहीं मिला। अतः उन्होंने कहा- ‘इनमें तो कहीं कोई लिखावट नहीं है।’

बूढ़ा जरा स्वस्थ हो कर धीरे से बोला- ‘भले भैया ! बड़े बाबू खाते में लिखना भूल गये। पर मैंने अपने कलेजे पर लिख रखा है। ये कलेजे के अक्षर कैसे मिट सकते हैं ? तुम तो भैया ! तब शहर में पढ़ते थे, तुमको क्या पता। पर नहीं, परियार साल इसी गणेश-चौथ के दिन मां का कारज करने के लिए मैं बड़े बाबू से पाँच सौ रुपये ले गया था और इस साल गणेश-चौथ के दिन ब्याज समेत कुल पाँच सौ और पचास रुपये लौटाने का वादा किया था। बड़े बाबू तो भगवान के घर पहुंच गये पर मेरा वादा थोड़े ही भगवान के घर पहुँच गया मुँह के बैन क्या कभी पलट सकते हैं ?’
‘न दस्तावेज, न लिखा-पढ़ी और न बहीखातों में कहीं उल्लेख। कानून के अनुसार कोई भी प्रमाण नहीं, इतने पर भी यह ग्रामीण बूढ़ा केवल मुंह की बात पर पाँच सौ ही नहीं, ब्याज के पचास रुपये जोड़कर पाँच सौ पचास दे रहा है और वह भी जिनसे लिये थे, उन बाबू को नहीं, उनके उत्तराधिकारी को जिला-अदालत, हाईकार्ट, सुप्रीमकोर्ट और कायदे-कानून के इस जमाने में यह घटना कितनी आश्चर्य जनक है !’

‘खूनी निर्दोष ठहरे और निर्दोष फाँसी चढ़े। लाखों की लूट लोप हो जाय और पावरोटी चुरानेवाला जेल जाय। कागज का टुकड़ा जो कहे वह हो। मनुष्य तो मानो मनुष्य ही नहीं रहा। आँखों-देखी बात झूठी साबित हो और कभी कल्पना में भी न आनेवाली बात सच्ची सिद्ध हो ! कानून की दुनिया ही निराली है। झूठ, प्रपंच, अनीति और अनाचार का आश्रय लेकर कानून के पंजे से छिटक जानेवाला चालाक और प्रवीण माना जाय। जो वकील अधिक मात्रा में झूठ बोल-बुला सके, वह होशियार बतलाया जाय। सत्य तो मानो धरती के उस पार ही जा छिपा ! चार आने पैसों के कानून के अनुसार सही सिक्के बने-बस, मनुष्य का इतना भी मूल्य नहीं। यह है आजकी दुनिया और बस, यही है सुधार  !’ भाई साहब का मन विचार-सागर में डूब गया।
‘भैया ! इन बैलों को कहाँ बाँधूँ !’ बैलों की रास खींचते हुए बूढ़े ने पूछा।

विचार-सागर में डूबे भाई साहब कुछ कहें- इसके पहले ही बूढ़े ने फिर कहा - ‘यह मेरा मतवाली चाल चलनेवाला-अभी पिछले साल ही एक सिंधी से सौ सौ रुपये के तीन ढेर लगाकर इसे लिया था और इस ललमुँहे को बीस मन बिनौले और दस मन गेंहू देकर  धन्ना सेठ से लिया था।’ यों कहते कहते बूढ़े का गला भर आया, आँखें छलछला उठीं। मानो पैर टूट गये हों, वह वहीं ढुलक पड़ा। मालिक को संकट में समझकर बैल उसे चाटने लगे। बूढ़ा भी धीरे-धीरे बैलों को थपथपाने लगा। तुरंत ही सारी हिम्मत बटोरकर बूढ़ा खड़ा हो गया और चौखट के पास पड़ी हुई अपनी लाठी हाथ में लेकर भाई साहब से ‘जै रामजी की’ करके चलते-चलते कहता गया-
‘भैया ! घबराना मत, बड़े बाबू नहीं हैं, पर उनका यह पुराना चाकर अभी जी रहा है। बड़े बाबू ने मेरे बहुत ढाँकन ढके थे। उनका गुण कैसे भूला जा सकता है ! इन बैलों की कीमत साढ़े पाँच सौ से कम नहीं है। तो भी अगर पाँच सौ पचास से कम रुपये उठें तो मुझे संदेशा भिजवा देना, मैं अपने हल और खेत बेचकर भी पूरा कर्जा भर दूँगा !

इतना कहकर बूढ़े ने अपने सगे पूत-सरीखे बैलों की ओर एक बार नजर डाली और चल दिया। उसके डग-डग पर हृदयकी वेदना बोल रही थी।

श्रीजयन्ती शाह


वे कौन थे ?



कुछ महीने पहले की घटना है। मेरे पिताजी की उम्र लगभग 55 वर्ष की है। वे दोहाद (गुजरात) में थे। एक दिन अकस्मात् हृद्रोग तथा उष्णता की शिकायत बढ़ने से वे भयानक बीमारी के चुंगुल में फँस गये। मल-मूत्र के द्वार रुक गये। पेट फूल गया। नलिका के द्वारा ब़डी कठिनता से पेशाब करवाया जाता था। लगभग बीस दिन लगातार इसी अवस्था में बीत गये। अन्न-पानी सब बन्द था। बोलना-चालना बंद।  बिलकुल अवसन्न चारपाई पर लेटे रहते थे। बड़े-बड़े डाक्टर हकीमों का इलाज हुआ।

करीब बारह-तेरह सौ रुपये खर्च हो गये, पर कोई अन्तर नहीं पड़ा। डाक्टर-हकीमों ने आखिरी राय दे दी कि रोगी किसी हालत में बच नहीं सकता और उन्होंने अपने हाथ टेक दिये घर में सबकी राय हुई, अब व्यर्थ दवा  क्यों करायी जाय। दवा बन्द कर दी गयी। हमारी आँखें गंगा-यमुना-धार बनी हुई थीं। कोई उपाय हाथ में नहीं रहा। तब केवल दीनदयाल ईश्वर पर भरोसा करके हम पाँचों भाई श्रीमद्भागवद्गीता का पाठ करने लगे। प्रत्येक अध्याय के अन्त में कातर भाव से रामधुन करते। यो हमें 30- 32 घंटे बीत गये।  

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