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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग

जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :58
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1063
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है जीवनपयोगी कल्याण मार्ग....

Jeevnopayogi Kalyan Marg A hindi book by Swami Ramsukhadas - जीवनपयोगी कल्याण-मार्ग - स्वामी रामसुखदास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरि:।।
श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज गीता के मर्मज्ञ व्याख्याता हैं, साथ ही गीता के उपदेशों को अपने जीवन में उतारकर लोगों के सामने सहज ही गीता का मूर्तिमान आदर्श उपस्थित करते रहते हैं। इनके प्रवचन सभी स्तर के लोगों में होते हैं और ये बोलते भी हैं- प्रसंगानुसार विविध विषयों पर। पर ये समझाते बड़ी ही सहज सरल साधु भाषा में केवल यह एक ही बात की- ‘मानव-जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति है और उसके साधन रूप में प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने विहित कर्त्तव्य कर्म का भगवत्प्रीत्यर्थ लोकहित की उदार भावना से सम्पादन करके इस उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।’ कर्म सबके एक-से नहीं हो सकते, लक्ष्य सबका एक होना चाहिये। अत: भगवत्प्राप्ति के लक्ष्य से किये जानेवाले प्रत्येक विहित कर्म को ही ‘कर्मयोग’ कह सकते हैं, प्रत्येक कर्म को ही ‘यज्ञ’ कह सकते हैं और प्रत्येक कर्म को ही भगवान् की ‘पूजा’ कह सकते हैं। सोना-जागना, खाना-पीना, देना-लेना, व्यवहार बर्ताव, अग्निहोत्री, सेवा, दान, तप, योग, स्वाध्याय आदि सभी कर्म इसमें आ सकते हैं। यही भजन भी है। मन से भगवान् का स्मरण होता रहे तन-वचन से विविध यथायोग्य कर्म।

इस ‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ नामक पुस्तिका के ‘सभी’ कर्मों का नाम यज्ञ है’ शीर्षक पहले लेख में इसी तत्त्व का बड़ी सरल भाषा में वर्णन किया गया है। ध्यान देकर पढ़ने से गीतोक्त निष्काम कर्मका मर्म, यज्ञका रहस्य तथा भगवत्पूजा का विधान सहज ही समझ में आ सकता है और तदनुसार आचरण करने पर वह भगवत्प्राप्ति का अमोघ साधन बनकर भगवत्प्राप्ति के पवित्र पथ में तो आगे बढ़ायेगा ही।

इसमें दूसरा लेख ‘कर्मचारियों के तथा उद्योग-संचालकों के कर्तव्य’ शीर्षक है। यह समयोपयोगी बहुत सुन्दर लेख है। इसमें कर्मचारियों एवं संचालकों के लिये जो कर्तव्य बतलाये गये हैं, उन पर यदि दोनों ओर से ध्यान देकर तदनुसार आचरण किया जाये तो केवल सारे झगड़े-बखेड़े ही नहीं मिट जायँ, परस्पर प्रेम तथा सौहार्द की विशेष वृद्धि हो, उद्योग-धंधे विशेष लाभदायक हो जायँ और कर्मचारी तथा मालिक- दोनों को ही भौतिक लाभ के साथ-साथ पारमार्थिक लाभ की प्राप्ति हो।

तदनन्तर ‘विषयासक्ति और भगवत्प्रीति में भेद’, ‘मनकी हलचल के नाश के सरल उपाय ?’, ‘दैवी सम्पदा एवं आसुरी सम्पदा’- ये तीन बड़े की उपयोगी छोटे लेख और हैं। मेरा यह नम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के अत्यन्त उपयोगी तथा परम पवित्र भावों पर ध्यान देकर पाठकगण तदनुसार आचरण करें।

अक्षय तृतीया सं. 2027

निवेदक
हनुमानप्रसाद पोद्दार

चतुर्थ संस्करण का नम्र निवेदन


कई वर्षों से यह पुस्तक अनुपलब्ध थी। अब इसे पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। इस संस्करण में ‘भगवत्प्राप्ति के लिये भविष्य की अपेक्षा नहीं’ नामक एक नया लेख भी अन्त में दिया गया है।
आशा है, पाठक इससे लाभ उठायेंगे।

प्रकाशक

जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग

सभी कर्तव्य कर्मों का नाम यज्ञ है


गीताजी के श्लोकों से तो यही तो बात सिद्ध होती है कि सब कर्मों का नाम यज्ञ है। कैसे सिद्ध होती है, इस पर विचार किया जाता है। यज्ञों का विशेष वर्णन आता है, गीता के चौथे अध्याय में 24 वें श्लोक से 32 वें श्लोकतक। इनका प्रकरण आरम्भ होता है चौथे अध्याय के 23 वें श्लोक से। उसमें भगवान् कहते हैं-

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।।

इसमें बतलाया गया है कि यज्ञ के लिए आचारित सम्पूर्ण कर्म सर्वथा विलीन हो जाते हैं अर्थात् शुभाशुभ फलका उत्पादन नहीं करते, फलदायक-बन्धनकारक नहीं होते, जन्म देनेवाले नहीं होते। कर्मों की प्रविलीनता का यही अर्थ है।
इसी बात को दूसरे ढंग से भगवान् कहते हैं तीसरे अध्याय के 9 वें श्लोक में-


यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।


यज्ञार्थ कर्म से भिन्न कर्म में लगने पर यह लोकसमुदाय कर्मों के बन्धन में बँधता है।
अर्थात् यज्ञ के अतिरिक्त जो भी कर्म होते हैं, वे सभी बन्धनकारक होते हैं। केवल यज्ञार्थ कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उपर्युक्त दोनों ही स्थलों में ‘यज्ञ’ शब्द आया है। चौथे अध्याय के 24 वें श्लोक से भगवान् यज्ञों का वर्णन आरम्भ करते हैं-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।

इस प्रकरण में चौदह यज्ञों का उल्लेख किया गया है, जिनमें ‘प्राणायाम’ का नाम भी आया है-

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।।

(4/29)

अपरे नियताहारा: प्राणान् प्राणेषु जुह्वति।

(4/30)

ऊपर ‘जुह्वति’ क्रिया दी गयी है। आगे और भी क्रियाएँ बतायी गयी हैं। जैसे उसी अध्याय के 28 वें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:।।

दान-पुण्य आदि जितने भी कर्म पैसों से या पदार्थों से सिद्ध होते हैं; उन्हीं को ‘द्रव्ययज्ञ’ कहा गया है। इसी प्रकार जिसमें इन्द्रियों का, मनका, शरीरका संयम किया जाय उस तपस्या को भी ‘यज्ञ’ कहा गया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि- पातजंलयोग के ये आठ अंग तथा हठयोग, लययोग, मन्त्रयोग आदि जो अन्य योग हैं, उन्हें भगवान् के ‘योगयज्ञ’ कहा है। स्वाध्याय अर्थात् वेदों का अध्ययन, स्मृतियों का पाठ तथा इन सबका मनन- इन्हीं को भगवान् ने ‘स्वाध्याययज्ञ’ नाम दिया है तथा इनके द्वारा उत्पन्न हुई समझ को, इतना ही नहीं, किसी भी बात को गहराई से समझने को ‘ज्ञानयज्ञ’ कहा है। भगवान् ने ‘यज्ञ’ नाम से इन सबको अभिहित किया है। वे इस यज्ञ के प्रकरण का उपसंहार करते हैं चौथे अध्याय के 32 वें श्लोक में-

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।

इस श्लोक में यज्ञों को कर्मजन्य बताया गया है। इसके पूर्ववर्ती श्लोक में श्रीभगवान् कहते हैं-

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

-जो बात भगवान् ने चौथे अध्याय के 23 वें श्लोक में कही थी-

यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।

 

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