गीता प्रेस, गोरखपुर >> क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं क्या गुरु बिना मुक्ति नहींस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
सत्संग-कार्यक्रमों में जहाँ-जहाँ जाता हूँ वहाँ-वहाँ अधिकतर लोग मेरे से
गुरू के विषय में तरह-तरह के प्रश्न किया करते हैं। उन प्रश्नों का उत्तर
पाकर उनको संतोष भी होता है, इसलिए अनेक सत्संगी भाई-बहनों का विशेष आग्रह
रहा कि एक ऐसी पुस्तक बन जाये जिसमें लोगों की गुरू-विषयक शंकाओं का
समाधान हो जाय। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत पुस्तक लिखी गयी है।
गुरु-विषयक मेरे विचारों को गहराई से न समझने के कारण कुछ लोग कह देते हैं कि मैं गुरू की निन्दा का खण्डन करता हूँ। यह बिल्कुल झूठी बात है। मैं गुरू की निन्दा नहीं करता हूँ गुरू का खण्डन तो कोई कर सकता ही नहीं। गुरुजनों की मेरे ऊपर बड़ी कृपा रही है और गुरुजनों के प्रति मेरे मन में बड़ा आदरभाव है। गुरुजनों से मेरे को लाभ भी हुआ है। परन्तु जो लोग गुरु बनकर लोगों को ठगते हैं, प्रशंसा कैसी होगी ? उनकी तो निन्दा ही होगी।
वर्तमान समय में सच्चा गुरू मिलना बड़ा दुर्लभ होता जा रहा है। दम्भ-पाखण्ड दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है। इसलिये शास्त्रों ने पहले से इस कलियुग में दम्भी-पाखण्डी गुरुओं के होने की बात कह दी है। जिससें लोग सावधान हो जायँ। अतः कल्याण चाहने वाले साधकों के सही मार्गदर्शन के लिए यह पुस्तक लिखी गयी है। इससे पहले भी ‘सच्चा गुरू कौन ?’ नामक एक छोटी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है।
इस पुस्तक में हमने ‘गुरूगीता’ के कुछ श्लोक भी प्रमाणस्वरूप लिये हैं। परन्तु बहुत खोज करने पर भी हमें यह पता नहीं चल सका कि ‘गुरुगीता’ का आधार क्या है ? इसकी रचना किसने की है? गुरुगीता के अन्त में इसको स्कन्दपुराण से लिया गया बताया गया है, पर स्कन्दपुराण की किसी प्रति में हमें गुरुगीता मिली नहीं। अनेक स्थानों से प्रकाशित गुरुगीता में भी परस्पर पाया जाता है। अगर कोई विद्वान् इस विषय में जानते हों तो हमें सूचित करने की कृपा करें।
पाठकों से प्रार्थना है कि वे इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ें और सच्ची लगन के साथ भगवान में लग जायँ। वे व्यक्ति के अनुयायी न बनकर तत्त्व के अनुयायी बनें।
गुरु-विषयक मेरे विचारों को गहराई से न समझने के कारण कुछ लोग कह देते हैं कि मैं गुरू की निन्दा का खण्डन करता हूँ। यह बिल्कुल झूठी बात है। मैं गुरू की निन्दा नहीं करता हूँ गुरू का खण्डन तो कोई कर सकता ही नहीं। गुरुजनों की मेरे ऊपर बड़ी कृपा रही है और गुरुजनों के प्रति मेरे मन में बड़ा आदरभाव है। गुरुजनों से मेरे को लाभ भी हुआ है। परन्तु जो लोग गुरु बनकर लोगों को ठगते हैं, प्रशंसा कैसी होगी ? उनकी तो निन्दा ही होगी।
वर्तमान समय में सच्चा गुरू मिलना बड़ा दुर्लभ होता जा रहा है। दम्भ-पाखण्ड दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है। इसलिये शास्त्रों ने पहले से इस कलियुग में दम्भी-पाखण्डी गुरुओं के होने की बात कह दी है। जिससें लोग सावधान हो जायँ। अतः कल्याण चाहने वाले साधकों के सही मार्गदर्शन के लिए यह पुस्तक लिखी गयी है। इससे पहले भी ‘सच्चा गुरू कौन ?’ नामक एक छोटी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है।
इस पुस्तक में हमने ‘गुरूगीता’ के कुछ श्लोक भी प्रमाणस्वरूप लिये हैं। परन्तु बहुत खोज करने पर भी हमें यह पता नहीं चल सका कि ‘गुरुगीता’ का आधार क्या है ? इसकी रचना किसने की है? गुरुगीता के अन्त में इसको स्कन्दपुराण से लिया गया बताया गया है, पर स्कन्दपुराण की किसी प्रति में हमें गुरुगीता मिली नहीं। अनेक स्थानों से प्रकाशित गुरुगीता में भी परस्पर पाया जाता है। अगर कोई विद्वान् इस विषय में जानते हों तो हमें सूचित करने की कृपा करें।
पाठकों से प्रार्थना है कि वे इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ें और सच्ची लगन के साथ भगवान में लग जायँ। वे व्यक्ति के अनुयायी न बनकर तत्त्व के अनुयायी बनें।
विनीत
स्वामी रामसुखदास
स्वामी रामसुखदास
गुरु कौन होता है
किसी विषय में हमें जिससे ज्ञानरूपी प्रकाश मिले, हमारा अज्ञानन्धकार दूर
हो, उस विषय में वह हमारा गुरू है। जैसे हम किसी से मार्ग पूछते हैं और व
हमें मार्ग बताता है तो मार्ग बताने वाला हमारा गुरु हो गया, हम चाहे गुरु
मानें या न मानें। उससे सम्बन्ध जोड़ने की जरूरत नहीं है। विवाह के समय
ब्राह्मण कन्या का सम्बन्ध करके साथ करा देता है। वही स्त्री
पतिव्रता हो जाती है। फिर उनको कभी उस ब्राह्मण की याद ही नहीं आती; और
उसको याद करने का विधान भी शास्त्रों में कहीं नहीं आता। ऐसे ही गुरु
हमारा सम्बन्ध भगवान के साथ जोड़ देता है तो गुरुका काम हो गया। तात्पर्य
है कि भगवान के साथ जोड़ देता है तो गुरु का काम हो गया।
तात्पर्य है कि गुरुका काम मनुष्य को भगवान के सम्मुख करना है। मनुष्य को अपने सम्मुख करना, अपने सम्बन्ध जोड़ता है, इसी तरह हमारा काम भी भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ना है गुरु के साथ नहीं। जैसे संसार में कोई मां है, कोई बाप है, कोई भतीजा है, कोई भौजाई है, कोई स्त्री है, कोई पुत्र है। ऐसे ही अगर एक गुरु के साथ और सम्बन्ध जुड़ गया तो इससे क्या लाभ ? पहले अनेक बन्धन थे ही, अब एक बन्धन और हो गया ! भगवान् के साथ तो हमारा सम्बन्ध सदा से और स्वतः स्वाभाविक है; क्योंकि हम भगवान के सनातन अंश हैं-‘ममैवांशों जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता 15 । 7), ‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ० 117 । 1) । गुरु उस भूले हुए सम्बन्ध की याद कराता है, कोई नया सम्बन्ध नहीं जोड़ता।
मैं प्रायः यह पूछा करता हूँ कि पहले बेटा होता है कि बाप ? इसका उत्तर प्रायः यही मिलता है कि बाप पहले होता है। परन्तु वास्तव में देखा जाय तो पहले बेटा होता है कारण बेटा पैदा हुए बिना उसका बाप नाम होगा ही नहीं। पहले वह मनुष्य (पति) है और जब बेटा जन्मता है, तब उसका नाम बाप हो जाता है। इसी तरह शिष्य को जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब उसके मार्गदर्शन का नाम ‘गुरु’ होता है। शिष्य को ज्ञान होने से पहले वह गुरु होता ही नहीं। इसलिये कहा जाता है-
तात्पर्य है कि गुरुका काम मनुष्य को भगवान के सम्मुख करना है। मनुष्य को अपने सम्मुख करना, अपने सम्बन्ध जोड़ता है, इसी तरह हमारा काम भी भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ना है गुरु के साथ नहीं। जैसे संसार में कोई मां है, कोई बाप है, कोई भतीजा है, कोई भौजाई है, कोई स्त्री है, कोई पुत्र है। ऐसे ही अगर एक गुरु के साथ और सम्बन्ध जुड़ गया तो इससे क्या लाभ ? पहले अनेक बन्धन थे ही, अब एक बन्धन और हो गया ! भगवान् के साथ तो हमारा सम्बन्ध सदा से और स्वतः स्वाभाविक है; क्योंकि हम भगवान के सनातन अंश हैं-‘ममैवांशों जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता 15 । 7), ‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ० 117 । 1) । गुरु उस भूले हुए सम्बन्ध की याद कराता है, कोई नया सम्बन्ध नहीं जोड़ता।
मैं प्रायः यह पूछा करता हूँ कि पहले बेटा होता है कि बाप ? इसका उत्तर प्रायः यही मिलता है कि बाप पहले होता है। परन्तु वास्तव में देखा जाय तो पहले बेटा होता है कारण बेटा पैदा हुए बिना उसका बाप नाम होगा ही नहीं। पहले वह मनुष्य (पति) है और जब बेटा जन्मता है, तब उसका नाम बाप हो जाता है। इसी तरह शिष्य को जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब उसके मार्गदर्शन का नाम ‘गुरु’ होता है। शिष्य को ज्ञान होने से पहले वह गुरु होता ही नहीं। इसलिये कहा जाता है-
गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्चते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः।।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः।।
(गुरुगीता)
अर्थात ‘गु’ नाम अन्धकार का है और
‘रू’ नाम पर
प्रकाश का है, इसलिये जो अज्ञानरूपी अन्धकार मिटा दे, उसका नाम
’गुरु’ है।
गुरु के विषय में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
गुरु के विषय में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
गुरु गोविन्द दोउ खडे़, किनके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय।।
बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय।।
गोविन्द को बता दिया, सामने लाकर खड़ा कर दिया, तब गुरुकी बलिहारी होती
है। गोविन्द को बताया नहीं और गुरु बन गये-यह कोरी ठगाई है ! केवल गुरु बन
जाने से गुरुपना सिद्ध नहीं होता। इसलिये अकेले खड़े गुरुकी महिमा नहीं
है। महिमा उस गुरूकी है, जिसके साथ गोविन्द भी खड़े हैं-‘गुरु
गोविन्द दोउ खड़े’ अर्थात् जिसने भगवा्न् की प्राप्ति करा दी
है।
असली गुरू वह होता है जिसके मन में चेले के कल्याण की इच्छा होती हो और
चेला वह होता है, जिसमें गुरुकी भक्ति हो-
को वा गुरुर्यों हि हितोपदेष्टा
शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव।
शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव।
(प्रश्नोत्तरी 7)
अगर गुरु पहुँचा हुआ हो और शिष्य सच्चे हृदय से आज्ञापालन करने वाला हो तो
शिष्य का उद्धार होने में सन्देह नहीं है।
पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा।
कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा।।
कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा।।
अगर पारस के स्पर्श से सोना नहीं बना तो वह पारस असली पारस नहीं है अथवा
लोहा असली लोहा नहीं है अथवा बीच में कोई आड़ है। इसी तरह अगर शिष्य को
तत्त्वज्ञान नहीं हुआ तो गुरु तत्त्वप्राप्त नहीं है अथवा शिष्य आज्ञापालन
करने वाला नहीं है अथवा बीच में कोई आड़ (कपटभाव) हैं।
वास्तविक गुरु
वास्तविक गुरु वह होता है, जिसमें केवल चेले के कल्याण की चिन्ता होती है।
जिसके हृदय में हमारे कल्याण की चिन्ता ही नहीं है, वह हमारा गुरु कैसे
हुआ ? जो हृदय से हमारा कल्याण चाहता है, वही हमारा वास्तविक गुरू है,
चाहे हम उसको गुरु मानें या न मानें और वह गुरू बने या न बने। उसमें यह
इच्छा नहीं होती कि मैं गुरु बन जाऊँ, दूसरे मेरे को गुरू मान लें, मेरे
चेले बन जायँ। जिसके मन में धन की इच्छा होती है, वह धनदास होता है। ऐसे
ही जिनके मन में चेले की इच्छा होती है। वह चेलादास होता है जिसके मन में
गुरु बनने की इच्छा होती है वह दूसरे का कल्याण नहीं कर सकता जो चेले से
रुपये चाहता है। वह गुरू नहीं होता प्रयुक्त पोता-चेला होता है।
कारण चेले के पास रुपये हैं तो उसका चेला हुआ रुपया और रुपये का चेला हुआ गुरु तो वास्तव में पोता-चेला ही हुआ विचार करें, जो आप से कुछ भी चाहता है, वह क्या आपका गुरू हो सकता है, नहीं हो सकता जो आपसे कुछ भी धन चाहता है मान-बड़ाई चाहता है आदर चाहता है वह आपका चेला होता है, गुरु नहीं होता सच्चे महात्माओं को दुनिया की गरज नहीं होती है, प्रयुक्त दुनिया को ही उसकी गरज होती है। जिसको किसी की भी गरज नहीं होती, वही वास्तविक गुरु होता है।
कारण चेले के पास रुपये हैं तो उसका चेला हुआ रुपया और रुपये का चेला हुआ गुरु तो वास्तव में पोता-चेला ही हुआ विचार करें, जो आप से कुछ भी चाहता है, वह क्या आपका गुरू हो सकता है, नहीं हो सकता जो आपसे कुछ भी धन चाहता है मान-बड़ाई चाहता है आदर चाहता है वह आपका चेला होता है, गुरु नहीं होता सच्चे महात्माओं को दुनिया की गरज नहीं होती है, प्रयुक्त दुनिया को ही उसकी गरज होती है। जिसको किसी की भी गरज नहीं होती, वही वास्तविक गुरु होता है।
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