गीता प्रेस, गोरखपुर >> वासुदेवः सर्वम् वासुदेवः सर्वम्स्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है वासुदेवः सर्वम्....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरिः।।
नम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक में परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजद्वारा समय-समय पर
लिखवाये गये नौ लेखों का संग्रह है। ये लेख सभी भाई-बहनों के लिये बड़े
कामके हैं। इनमे ऐसी अनेक गहरी बातें आयी हैं जो तत्त्व का सहज अनुभव
करानेमें बहुत सहायक हैं। साधकों से विनम्र प्रार्थना है कि वे
तत्त्वप्राप्ति के उद्देश्य से इस पुस्तक का अध्ययन करें और लाभ उठायें।
प्रकाशक
।।श्रीहरिः।।
1. वासुदेवः सर्वम्
गीता में भगवान् ने एक बड़ी विलक्षण बात बतायी है-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
(7 । 19)
‘बहुत जन्मोंके अन्त में अर्थात् मनुष्यजन्ममें* ‘सब
कुछ
वासुदेव ही है’-ऐसे जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा
अत्यन्त दुर्लभ है।’
ज्ञान किसी अभ्याससे पैदा नहीं होता, प्रयुक्त जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान ज्ञान’ है। ‘वासुदेवः सर्वम्’’ (सब कुछ परमात्मा ही हैं।– यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा। यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युक्त स्वतः सिद्ध है। अतः भगवान् की वाणी से हमें इस बातका पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्दकी बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है। इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं। कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तव में बात है ही यही !
संसार में प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है। परन्तु भगवानने ऊंचे-से-ऊंचे महात्माके हृदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है। इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !
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* यह मनुष्य-शरीर जन्मोंका अन्तिम जन्म है। इसके बाद नये जन्म की तैयारी कर ले तो नया जन्म हो जायगा, नहीं तो इसके बाद जन्म नहीं है। जन्म होता है संसार की आसक्तिसे –‘कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता 13 । 21)। आसक्ति न हो जन्म होने का कोई कारण नहीं है।
जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदिके रूपमें हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। परमात्माकी जगह ही यह संसार दीख रहा है। बाहर से संसार जो रूप दीख रहा है, वह तो चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है। परन्तु इसके भीतर सत्तारूपसे एक परमात्मतत्त्व है, जो अपरिवर्तन शील है, अविनाशी है। भूल यह होती है कि ऊपर के चोले की तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है- इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिये भगवान कहते हैं- ‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता 18 । 55) ‘मनुष्य मेरे को तत्त्व से जानकर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।’ तत्त्व से जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ों में रुई की सत्ता है, मि़ट्टी के वर्तनों में मिट्टी की सत्ता है, लोहे के अस्त्र-शस्त्रों में लोहे की सत्ता है, सोने के गहनों में सोने की सत्ता है ऐसे ही संसार में परमात्मा की सत्ता है- यह जानना ही तत्त्व से जानना अर्थात् अनुभव करना है*।
सोनेसे बने गहनों के अनेक प्रकार हैं; कोई गले में पहनने का है, कोई हाथों में पहनने का है, कोई कानों में पहनने का है, कोई नाक में पहनने का है, आदि-आदि। उन गहनों की अनेक प्रकार की आकृतियाँ हैं, अनेक प्रकार नाम हैं, अनेक प्रकार उपयोग है, अनेक प्रकार का तौल हैं, अनेक प्रकार का मूल्य है। वे सब तो अनेक प्रकार के हैं, पर सोना अनेक प्रकार का नहीं है। जिसमें कोई प्रकार नहीं है, जो एक ही है, उसको जानना ही तत्त्व से जानना है। ऐसे ही संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष,
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• गहनों में सत्ता सोने की है, गहनों की नहीं, इसलिये बनावटी गहनों की अपेक्षा (स्थूलदृष्टि से) सोने को सत्य कह देते हैं। वास्तव में सोने की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि में एक परमात्मतत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता है। उस सत्य परमात्मतत्त्व की तरफ दृष्टि कराने के लिये ही रूई, मिट्टी, लोहा सोना आदि को सत्य कहा गया है।
पहाड़, पत्थर, ईंट, रेत, चूना, मिट्टी आदि तो अनेक तो अनेक प्रकार के हैं, पर जो उनके भीतर रहने वाला है, उसका कोई प्रकार नहीं है। वह प्रकार रहित तत्त्व ही परमात्मा है।
जैसे गहनो में परिवर्तन होता है, पर सोनेमें परिवर्तन नहीं होता। गहने बदल जाते हैं। पर सोना वहीं रहता है। ऐसे ही संसार में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, पर इसमें जो अपरिवर्तन शील परमात्मतत्त्व है, वह ज्यों –का-त्यों रहता है। भगवान ने कहा है- ‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’ (गीता 13 । 27) अर्थात् नष्ट होनेवालों में जो एक नष्ट न होनेवाला तत्त्व है, उसको देखने वाला ही वास्तव में सही देखता है। जैसे स्थूल-दृष्टिसे देखा जाय तो कपड़े सब नष्ट हो जाते है, पर रूई रहती है। बर्तन सब नष्ट हो जाते हैं, पर मिट्टी रहती है। अस्त्र-सस्त्र सब नष्ट हो जाते हैं, पर लोहा रहता है। गहने सब नष्ट हो जाते है, पर सोना रहता ‘है, पर लोहा रहता है। ऐसे ही सब-का सब संसार नष्ट होनेवाला है पर परमात्मतत्त्व नष्ट होनेवाला नहीं है। उस कभी न बदलेवाले और कभी नष्ट न होनेवाले तत्त्व की तरफ ही देखना है, उसको ही मानना है, उसको ही जानना है, उसको ही महत्त्व देना हैं।
जैसे हम कहते हैं कि ‘यह पदार्थ है’ तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तन शील संसार है और ‘है’ अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है। संसार में देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक हैं, पर उन सबमें ‘है’ (सत्ता) रूपसे विद्यमान परमात्मत्तत्व एक ही है। साधक की दृष्टि निरन्तर उस ‘है’ (परमात्मतत्त्व) पर ही रहनी चाहिये* वह ‘है’ एक ठोस चीज है और
ज्ञान किसी अभ्याससे पैदा नहीं होता, प्रयुक्त जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान ज्ञान’ है। ‘वासुदेवः सर्वम्’’ (सब कुछ परमात्मा ही हैं।– यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा। यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युक्त स्वतः सिद्ध है। अतः भगवान् की वाणी से हमें इस बातका पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्दकी बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है। इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं। कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तव में बात है ही यही !
संसार में प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है। परन्तु भगवानने ऊंचे-से-ऊंचे महात्माके हृदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है। इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !
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* यह मनुष्य-शरीर जन्मोंका अन्तिम जन्म है। इसके बाद नये जन्म की तैयारी कर ले तो नया जन्म हो जायगा, नहीं तो इसके बाद जन्म नहीं है। जन्म होता है संसार की आसक्तिसे –‘कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता 13 । 21)। आसक्ति न हो जन्म होने का कोई कारण नहीं है।
जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदिके रूपमें हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। परमात्माकी जगह ही यह संसार दीख रहा है। बाहर से संसार जो रूप दीख रहा है, वह तो चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है। परन्तु इसके भीतर सत्तारूपसे एक परमात्मतत्त्व है, जो अपरिवर्तन शील है, अविनाशी है। भूल यह होती है कि ऊपर के चोले की तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है- इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिये भगवान कहते हैं- ‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता 18 । 55) ‘मनुष्य मेरे को तत्त्व से जानकर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।’ तत्त्व से जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ों में रुई की सत्ता है, मि़ट्टी के वर्तनों में मिट्टी की सत्ता है, लोहे के अस्त्र-शस्त्रों में लोहे की सत्ता है, सोने के गहनों में सोने की सत्ता है ऐसे ही संसार में परमात्मा की सत्ता है- यह जानना ही तत्त्व से जानना अर्थात् अनुभव करना है*।
सोनेसे बने गहनों के अनेक प्रकार हैं; कोई गले में पहनने का है, कोई हाथों में पहनने का है, कोई कानों में पहनने का है, कोई नाक में पहनने का है, आदि-आदि। उन गहनों की अनेक प्रकार की आकृतियाँ हैं, अनेक प्रकार नाम हैं, अनेक प्रकार उपयोग है, अनेक प्रकार का तौल हैं, अनेक प्रकार का मूल्य है। वे सब तो अनेक प्रकार के हैं, पर सोना अनेक प्रकार का नहीं है। जिसमें कोई प्रकार नहीं है, जो एक ही है, उसको जानना ही तत्त्व से जानना है। ऐसे ही संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष,
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• गहनों में सत्ता सोने की है, गहनों की नहीं, इसलिये बनावटी गहनों की अपेक्षा (स्थूलदृष्टि से) सोने को सत्य कह देते हैं। वास्तव में सोने की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि में एक परमात्मतत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता है। उस सत्य परमात्मतत्त्व की तरफ दृष्टि कराने के लिये ही रूई, मिट्टी, लोहा सोना आदि को सत्य कहा गया है।
पहाड़, पत्थर, ईंट, रेत, चूना, मिट्टी आदि तो अनेक तो अनेक प्रकार के हैं, पर जो उनके भीतर रहने वाला है, उसका कोई प्रकार नहीं है। वह प्रकार रहित तत्त्व ही परमात्मा है।
जैसे गहनो में परिवर्तन होता है, पर सोनेमें परिवर्तन नहीं होता। गहने बदल जाते हैं। पर सोना वहीं रहता है। ऐसे ही संसार में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, पर इसमें जो अपरिवर्तन शील परमात्मतत्त्व है, वह ज्यों –का-त्यों रहता है। भगवान ने कहा है- ‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’ (गीता 13 । 27) अर्थात् नष्ट होनेवालों में जो एक नष्ट न होनेवाला तत्त्व है, उसको देखने वाला ही वास्तव में सही देखता है। जैसे स्थूल-दृष्टिसे देखा जाय तो कपड़े सब नष्ट हो जाते है, पर रूई रहती है। बर्तन सब नष्ट हो जाते हैं, पर मिट्टी रहती है। अस्त्र-सस्त्र सब नष्ट हो जाते हैं, पर लोहा रहता है। गहने सब नष्ट हो जाते है, पर सोना रहता ‘है, पर लोहा रहता है। ऐसे ही सब-का सब संसार नष्ट होनेवाला है पर परमात्मतत्त्व नष्ट होनेवाला नहीं है। उस कभी न बदलेवाले और कभी नष्ट न होनेवाले तत्त्व की तरफ ही देखना है, उसको ही मानना है, उसको ही जानना है, उसको ही महत्त्व देना हैं।
जैसे हम कहते हैं कि ‘यह पदार्थ है’ तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तन शील संसार है और ‘है’ अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है। संसार में देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक हैं, पर उन सबमें ‘है’ (सत्ता) रूपसे विद्यमान परमात्मत्तत्व एक ही है। साधक की दृष्टि निरन्तर उस ‘है’ (परमात्मतत्त्व) पर ही रहनी चाहिये* वह ‘है’ एक ठोस चीज है और
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• समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्विनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।
• समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्विनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।
(गीता 13 । 27 )
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित
और
समरूप से स्थिति देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।’
सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है। संसार कभी किसी को प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं और प्राप्त हो सकता नहीं। हमसे भूल यह होती है कि हम उस शरीर-संसार को ‘है’ (प्राप्त) मान लेते हैं, जो वास्तव में है नहीं। शरीर पहले नहीं था- यह सबका अनुभव है, आगे शरीर नहीं रहेगा- यह भी सबका अनुभव है और शरीर प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है- यह भी सबका अनुभव है। इस अनुभवको ही महत्त्व देना है।
अगर भक्ति की दृष्टि से देखें तो सब रूपों में एक परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं। हमें भूख लगती है तो अन्नरूपसे वे ही आते हैं, हमें प्यास लगती है तो जलरूप वे ही आते है, हम रोगी होते हैं तो ओषधिरूप से ही आते हैं, हम भोगी होते हैं, तो भोग्यरूप से वे ही आते हैं, हमें गरमी लगती है तो छायारूपसे वे ही आते हैं, हमें सरदी लगती है तो वस्त्ररूप से वे ही आते हैं। तात्पर्य है कि सब रूपों से परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं। परन्तु हम उन रूपों में आये परमात्माका भोग करने लग जाते हैं तो परमात्मा दुःखरूप से नरकरूप से आते हैं !
प्रश्न- परमात्मा अन्न, जल आदि नाशवान् वस्तुओं के रूप में क्यों आते हैं ?
सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है। संसार कभी किसी को प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं और प्राप्त हो सकता नहीं। हमसे भूल यह होती है कि हम उस शरीर-संसार को ‘है’ (प्राप्त) मान लेते हैं, जो वास्तव में है नहीं। शरीर पहले नहीं था- यह सबका अनुभव है, आगे शरीर नहीं रहेगा- यह भी सबका अनुभव है और शरीर प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है- यह भी सबका अनुभव है। इस अनुभवको ही महत्त्व देना है।
अगर भक्ति की दृष्टि से देखें तो सब रूपों में एक परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं। हमें भूख लगती है तो अन्नरूपसे वे ही आते हैं, हमें प्यास लगती है तो जलरूप वे ही आते है, हम रोगी होते हैं तो ओषधिरूप से ही आते हैं, हम भोगी होते हैं, तो भोग्यरूप से वे ही आते हैं, हमें गरमी लगती है तो छायारूपसे वे ही आते हैं, हमें सरदी लगती है तो वस्त्ररूप से वे ही आते हैं। तात्पर्य है कि सब रूपों से परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं। परन्तु हम उन रूपों में आये परमात्माका भोग करने लग जाते हैं तो परमात्मा दुःखरूप से नरकरूप से आते हैं !
प्रश्न- परमात्मा अन्न, जल आदि नाशवान् वस्तुओं के रूप में क्यों आते हैं ?
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