उपन्यास >> कुमारिकाएं कुमारिकाएंकृष्णा अग्निहोत्री
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क्या सारी जिंदगी को एक घटना के लिए त्यागा जा सकता है ? कैसी होती हैं वे स्थितियां जब जिजीविषा ही खत्म होने को तत्पर हो जाती है ?
क्या धर्म, शील और नैतिकता की कोई सर्वमान्य व्यावहारिक परिभाषा गढ़ी जा सकती है ? यदि समाज की संस्थाएं इतनी समर्थ नहीं हैं कि वे बेटियों को सुरक्षित रख सकें तो फिर उन्हें यह अधिकार कहां से मिला कि वे परिस्थितियों से लड़ती इन विवश लड़कियों का परिहास करें ?
वरिष्ठ कथाकार कृष्णा अग्निहोत्री का यह उपन्यास अनेक ऐसे प्रश्नों के साथ वस्तुस्थिति से भी परिचित कराता है। वह अपनी पुरजोर आवाज में पूछता है कि जब नैतिकता की परंपरावादी मान्यताएं खोखली साबित होती जा रही हैं तो फिर बेबुनियाद चीजों के लिए व्यक्ति का गला क्यों घोंटा जा रहा है ?
कथा में उठी कुमारिकाओं की यह आवाज बता रही है कि अब वे संघर्ष का रास्ता पकड़ चुकी हैं और किसी सूरत में पीछे नहीं हटने वालीं।
वर्तमान परिस्थितियों में यह पठनीय उपन्यास और भी प्रासंगिक हो उठा है।
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