प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हयवदन स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासदी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटक तो समकालीन भारतीय रंग-परिदृश्य में और भी हैं। लेकिन जहाँ तक संपूर्णता की अंतहीन तलाश की असह्य यातनापूर्ण परिणति तथा बुद्धि (मन-आत्मा) और देह के सनातन महत्ता-संघर्ष के परिणाम का प्रश्न है। गिरीश कारनाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही एक अनूठा नाट्य-प्रयोग है। इसमें पारंपरिक अथवा लोक नाट्य-रूपों के कई जीवंत रंग-तत्त्वों का विरल रचनात्मक इस्तेमाल किया गया है। बेताल पच्चीसी की सिरों और धड़ों की अदला-बदली की असमंजसभरी प्राचीन कथा तथा टामस मान की ‘ट्रांसपोज्ड हैड्स’ की द्वंद्वपूर्ण आधुनिक कहानी पर आधारित यह नाटक जिस तरह देवदत्त, पद्मिनी और कपिल के प्रेम-त्रिकोण के समानान्तर हयवदन के उपाख्यान को गणेश-वंदना, भागवत, नट, अर्धपटी, अभिनटन, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत के माध्यम से एक लचीले रंग-शिल्प में पेश करता है, वह अपने-आपमें केवल कन्नड़ नाट्य-लेखन की ही नहीं, वरन् संपूर्ण आधुनिक भारतीय रंगकर्म की एक उल्लेखनीय उपलब्धि सिद्ध हुआ है। देवदत्त, कपिल, कपिलदेही देवदत्त तथा देवदत्तदेही कपिल चार-चार पुरुषों के होते हुए भी अतृप्त एवं अधूरी और सुहागिन होकर भी अभागिन रह जानेवाली पद्मिनी की इस नाट्य–कथा में विलक्षण प्रसंग, रोचक चरित्र, जटिल संबंध तथा रोमांचक नाट्य-मोड़ों के साथ-साथ दर्शन, मनोविज्ञान, हिंसा, हास्य, प्रेम और रहस्य के इतने और ऐसे आयाम मौजूद हैं, जो प्रत्येक प्रतिभावान रंगकर्मी को हमेशा नई चुनौतियों से चमत्कृत करते हैं। यह नाटक मानव-जीवन के बुनियादी अंतर्विरोधों, संकटों और दबावों-तनावों को अत्यंत नाटकीय एवं कल्पनाशील रूप में अभिव्यक्त करता है। प्रासंगिक-आकर्षक कथ्य और सम्मोहक शिल्प की प्रभावशाली संगति ही हयवदन की वह मूल विशेषता है जो प्रत्येक सृजनधर्मी रंगकर्मी और बुद्धिजीवी पाठक को दुर्निवार शक्ति से अपनी ओर खींचती है। पिछले एक दशक में अनेक भाषाओं में कई निर्देशकों द्वारा सफलतापूर्वक अभिमंचित और राष्ट्रीय स्तर पर बहुप्रशंसित नाटक।