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आयुर्वेद के रहस्य

वैद्य वैद्य सुरेश चतुर्वेदी

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1108
आईएसबीएन :81-7457-255-4

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जीवन को स्वस्थ रूप से रखने की जानकारी जिस शास्त्र के अन्तर्गत समाहित है, उसे आयुर्वेद शास्त्र कहते हैं।

Aayurved ke Rahasya a hindi book by Vaidya Suresh Chaturvedi - आयुर्वेद के रहस्य - वैद्य सुरेश चतुर्वेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जीवन को स्वस्थ रूप से रखने की जानकारी जिस शास्त्र के अन्तर्गत समाहित है, उसे आयुर्वेद शास्त्र कहते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-इन पाँचों तत्त्वों का यथायोग्य मात्रा में रहना आवश्यक है। इसीलिए उक्त पुस्तक में आयुर्वेद में स्वास्थ्य रक्षा हेतु इन तत्त्वों में साम्य रखने के सरल उपाय बताये गये हैं

 

भूमिका

आयुर्वेद आयु का विज्ञान है जो कि व्यक्ति को जन्म लेकर मृत्युपर्यन्त स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य संरक्षण के उपाय बताता है तथा रोगियों को रोगमुक्त करता है।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति में आयुर्वेद का विशेष योगदान है इसीलिए इसे चिकित्सा-पद्धति मात्र कहना उपयुक्त नहीं है, यह तो जीवन का दर्शन भी है।
आयुर्वेद की शास्त्रीय एवं स्वास्थ्य-प्राप्ति की जानकारी सम्बन्धी पुस्तकें अनेक उपलब्ध हैं और निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं, लेकिन कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर लोग ध्यान नहीं देते और जिनके रहस्यों को नहीं जानते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पुस्तक में कुछ ऐसे विषयों को समाविष्ट किया गया है जोकि सर्वसाधारण जनता के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

भगवती पाकेट बुक्स के श्री राजीव अग्रवालजी ने इस पुस्तक को प्रकाशित कर लोकोपयोगी साहित्य की श्रृंखला में इसे भी समाहित किया है। एतदर्थ इस विज्ञान के प्रचार-प्रसार का यह प्रयास प्रशंसनीय है।
48, महन्त रोड
विले-पारले (पूर्व)
मुम्बई-400057

 

वैद्य सुरेश चतुर्वेदी

 

1
आयुर्वेद की वैदिक पृष्ठभूमि

 

 

वेद शब्द ज्ञान का द्योतक है। समस्त सृष्टि का ज्ञान जिसमें प्रभासित किया गया हो, उसे वेद कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। आयुर्वेद विज्ञान ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में समाहित है। जीवन की उत्पत्ति, स्थिति और नाश का सर्वज्ञान भी इसमें में निहित है। जन्म से लेकर मृत्यपर्यन्त की आयु का ज्ञान इसमें वर्णित है। अतः इसे आयुर्वेद कहा गया है और इसे उपवेद की संज्ञा दी गई है।

 

वेदों के उपांग

 

 

धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, स्थापत्य वेद एवं आयुर्वेद।
1.    ऋग्वेद—वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ। यह पद्यात्मक है। यजुर्वेद गद्यमय है और सामवेद गीतात्मक है।
ऋग्वेद में मण्डल 10 हैं, 1028 सूक्त हैं और 11 हजार मन्त्र हैं। इसमें 5 शाखायें हैं-शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। ऋग्वेद के दशम मण्डल में औषधि सूक्त हैं। इसके प्रणेता अर्थशास्त्र ऋषि है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग निर्दिष्ट की गई है जो कि 107 स्थानों पर पायी जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है।
ऋग्वेग में च्यवन ऋषि को पुनः युवा करने का कथानक भी उद्धृत है और औषधियों से रोगों का नाश करना भी समाविष्ट है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा एवं हवन द्वारा चिकित्सा का समावेश है।
2.    यजुर्वेद—यजुर्वेद के दो भाग हैं-कृष्ण एवं शुक्ल। वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है और याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है।
कृष्ण की चार शाखायें है जबकि शुक्ल की दो शाखायें हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में ‘ब्रीहिधान्यों’ का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा औषधि सूक्त, दिव्य वैद्य एवं कृषि विज्ञान का भी विषय समाहित है।
3.    सामवेद—इसमें मुख्य 3 शाखायें हैं, 75 ऋचायें हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।
4.    अथर्ववेद—इसमें 20 काण्ड हैं। अथर्ववेद में आठ खण्ड आते हैं जिनमें भेषज वेद एवं धातु वेद ये दो नाम स्पष्ट प्राप्त हैं।

 

अथर्ववेद की शाखायें

 

 

1.    पैप्लाद, 2. तौदा, 3. मौदा, 4. शौनकीया, 5. जाजला, 6. जलदा, 7. ब्रह्मवदा, 8. देवदशी, 9. चारण वैद्या।
2.    इन नौ शाखाओं में से पैप्लाद एवं शौनक ये दो उपलब्ध हैं।
अथर्ववेद में निर्दिष्ट विषयों का वर्गीकरण किया जाए तो 14 वर्ग बनते हैं जिनमें सभी विषय समाहित हैं।

 

अथर्ववेद में वर्णित 14 वर्ग

 

 

1.    भैषज्यानि—रोगों एवं दानवों से मुक्ति की प्रार्थना।
2.    आयुष्याणि—दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना।
3.    अभिचारिकाणि—कृत्याप्रतिहारणानि, राक्षसों, अभिचारकों एवं शत्रु के प्रतिकूल मार्ग।
4.    स्त्री कर्माणि—स्त्री विषयक अभिचार कर्म।
5. सामनस्यानि—सामंजस्य प्राप्त करें एवं सभा में प्रभाव डालने में अभिचार कर्म।
6. राजकर्माणि—राज विषय अभिचार कर्म।
7. पौष्टिकानि—ब्राह्मणों के हितार्थ प्रार्थनाएँ एवं अभिशाप।
8. संपन्नता—प्राप्ति के भय से मुक्ति के अभिचार कर्म।
9. प्रायश्चित्तानिक—पाप एवं दुष्टकर्म के लिए प्रायश्चित विषयक अभिचार कर्म।
10. सृष्टि विषयक एवं आध्यात्मिक सूक्त।
11. याज्ञिक सूक्त।
12. व्यक्तिगत विषय के विवेचक काण्ड।
13. बीसवाँ काण्ड।
14. कृताय सूक्त।
वेदों में शल्य प्रकरण, गर्भाधान प्रकरण, वाजीकर, विष आदि प्रकरण समाहित किये गये हैं।
दीर्घायु— प्रार्थना प्रयत्न से आयु को दीर्घायु करने का वर्णन वेदों में अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है।
वेद में शरीर के अंगों में नेत्र, नासा, कर्ण, चिम्बुक, सिर, मस्तिष्क, जिह्वा, ग्रीवा, तरुणास्थ, पृष्ठवंश, अंस, भुजा आँत, गुदा, अण्डूक, हृदय, मूत्रप्रणाली, यकृत, प्लीहा, उरु, जानु, पार्श्व, प्रपेद, श्रोणि, योनि, कर्मलोम, नख, पर्व, क्लोम, पित्ताशय, फुफ्फुस, उदर, नाभि, अस्थि, मज्जा, स्नायु, धमनी शिरायें, हस्त, अँगुलियाँ, त्वचा, कंकूख, मूर्धा, कपाल, इनका वर्णन प्राप्त है।

 

रोग के कारण

 

 

1. शरीर का आन्तरिक विष।
2.     कृमि जीवाणु।
3.     वायु, पित्त, कफ ये तीन दोष हैं।
विष—स्थावर कन्द रूप में पृथ्वी से प्राप्त होता है।
जंगम—सर्प, वृश्चिक, मसक, कीट, पवन कृमि आदि का वर्णन प्राप्त होता है एवं उनकी चिकित्सा भी समाहित है।

इसमें प्राण विद्या का भी वर्णन है जो कि वर्तमान योग विद्या का उद्गम माना गया है।
अथर्ववेद में पदार्थ विज्ञान, मनोविज्ञान, कर्मज व्याधि विज्ञान, आयु विज्ञान, एवं चिकित्सा विज्ञान के भी विषय समाहित हैं। इसमें आयुर्वेद विषयक 9 सूक्त, भैषज विषयक 25 सूक्त, रोग निवारण विषयक 32 सूक्त, विषनाशक विद्या के 7 सूक्त हैं। कृमि नाशक 3 सूक्त तथा अरिष्टनाशक 92 सूक्त निर्दिष्ट हैं।
अथर्ववेद में कर्मज व्याधियों का भी वर्णन प्राप्त होता है। ग्रहों की शान्ति के विविध प्रयोग तथा मंत्रों द्वारा रोगों का निवारण भी निर्दिष्ट है।
रोग में गण्डमाला, जलोदार का वर्णन है।

अथर्ववेद के प्राण सूक्त में प्राण की महिमा का वर्णन मिलता है। प्राण एवं अपान को देवताओं का वैद्य अश्विनी कुमार कहा गया है और प्राण अपान की शरीर में स्थिति के लिए प्रार्थना की गयी है। इसीलिए वेदों में शरीर को ब्रह्मपुरी कहा गया है।
वेदों में गर्भाधान एवं वाजीकरण विषय भी समाहित है।
रोग निवारण में सूर्य, अग्नि, जल विद्युत, वायु, मूल नक्षत्र।
वेदों में एक रोग के लिए एक औषधि का वर्णन है। शरीर पर प्राणियों को धारण करना स्वास्थ्य की दृष्टि से निर्दिष्ट किया गया है।

चिकित्सा प्रकार—1. दैवी चिकित्सा, 2. भानुवी चिकित्सा, 3. आसुरी चिकित्सा, 4. जप, दान, यज्ञ, मंत्र आदि।
रक्षोधन वनस्तियाँ—अपामार्ग, काश्पर्य, अजश्रृंगी, शतावर, सहस्त्र चक्षु, कुण्ठ, मुख, गूगल, पुष्पपर्णी, रोहिणी, लाक्षा, सहस्र पर्णी, सोमलता, अंजन, शेख आदि औषधियों के संग्रह करने के मंत्र भी निर्दिष्ट किये गये हैं।
ज्वर, कास, रजयक्ष्मा, कामला, मूत्ररोध, किलास विसूचिका एवं उन्माद आदि रोग वर्णित हैं तथा सद्वृत्त (आचार-विचार) पर विशेष महत्त्व दिया गया है।
विष का स्वरूप—दैत्य, मानुष।
कृमि प्रकरण- अग्नि (कृमिनाशक है)।
शरीर अवयव—शरीर में रक्तसंचार तथा शिरा धमनियों का वर्णन भी समाहित है।
शरीर, इन्द्रिय, मन, आत्मा के संयोग का नाम आयु है। नित्यप्रति चलते रहने से भी इसे आयु कहते हैं। आयुर्वेद शाश्वत है, इसलिए इसे उपवेद की संज्ञा दी गयी है। इस विज्ञान में आयु का वर्णन, शरीर का वर्णन, जीव का स्वरूप, मन का स्वरूप, दीर्घायु तथा रोग उत्पत्ति के कारणों का वर्णन किया गया है। नात्मार्थम् नापिकामार्थम् अपिभूत दयाम् प्रति अर्थात् मानव देह की उत्पत्ति केवल अपनी स्वार्थपूर्ति और कामनाओं की पूर्ति के लिए ही नहीं हुई है अपितु प्राणी मात्र का कल्याण करना मानव जीवन का उद्देश्य है।

 

आर्द्र संतानता त्यागकाय वाक् चेदसादम्।
स्वार्थबुद्धि परार्थेषु पर्याप्त इति सद्वृत्तं।।

 

अर्थात् दुखी आदमियों पर संतान के समान व्यवहार करना, हमेशा त्याग भावना से जीवन व्यतीत करना, काया वाचा और मनसा संयम रखना, दूसरों के हित में ही अपना हित समझना सत्पुरुष के लक्षण समझे गये हैं। इन कर्मों के प्रभाव से ही व्यक्ति परम तत्व की प्राप्ति में समर्थ होता है।
शरीर मध्यम खलु धर्म साधनम् शरीर की रक्षा करना ही प्रथम धर्म निर्दिष्ट किया गया है। इसके द्वारा ही अपने जीवन में, धर्म में, इन्द्रियों के विषयों में और क्रियाओं को सम्यक समपन्न करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
‘‘धर्मार्थ काम मोक्षणाम् आरोग्य मूल मूत्तमम्’’
इन चारों की प्राप्ति हमें आरोग्य द्वारा ही हो सकती है।

जब व्यक्ति जन्म से मृत्युपर्यन्त सभी रहस्यों को भलीभाँति समझ लेता है तो युक्तियुक्त आहार-विहार द्वारा, सदाचार एवं धर्माचार द्वारा जरा एवं व्याधि रूपी शत्रुओं पर भी अपना अधिकार कर लेता है। वह शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ जीवनयापन करता है, जिससे उसकी आत्मा भी प्रसन्न रहती है। इस प्रकार शरीर, मन एवं आत्मा से प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति दूसरों को भी स्वस्थ, सुखी एवं प्रसन्न देखना चाहता है।
जब व्यक्ति इस स्थिति में पहुँच जाता है तो वह दूसरों के हित में ही अपना हित समझता है और उसके जीवन की कामना भी यही रहती है।

 

सर्वेभवन्तु सुखीनः
सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित दुखः भाग्भवेत्

 

सब सुखी रहें। सब निरोगी रहें। सब दूसरों का कल्याण ही देखें। कोई दुःखी न हो।

 

2
आयुर्वेद की दार्शनिक पृष्ठभूमि

 

 

संसार की उत्पत्ति और संहार का विचार अनेक रूपों में किया जा सकता है। प्राणियों की अनेक योनियों में मानव देह एक विशेष अस्तित्व रखती है। अपितु मानव देह सृष्टि की वह अद्भुत देन है जिसमें सृष्टि स्वयं भी समाहित है।

 

यावन्तो मूर्तमन्त भाव विशेषा लोके,
तावन्तो देहे, यावन्तो देहे तावन्तो लोके।

 

इस वचन के अनुसार प्राणिमात्र की देह में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से पाँच तत्त्व विद्यमान रहते हैं, जो सृष्टि में समाहित हैं।
ये पंच भौतिक मानव शरीर, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि चौबीस तत्त्वों से युक्त होते हुए भी जीवात्मा के कारण अपना अस्तित्व रखता है। इसीलिए हमारे संसार में समाहित प्रभु का वह अंश विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं मन, बुद्धि, अहंकार आदि के संयोग से संसार की विभिन्न लीलाओं में प्रवृत्त होता है। इन्द्रियों का विषय ग्रहण करना, मन का विषयों की ओर आकृष्ट होना, बुद्धि का विकास करना आदि समस्त कार्य किसी विशिष्ट प्रेरणा के परिणामस्वरूप ही होते हैं।

इस समस्त सृष्टि का ज्ञान जिसमें प्रकाशित किया गया है, उसे वेद कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। समस्त सृष्टि की आयु का ज्ञान जिस शास्त्र के अन्दर समाहित किया गया है और जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन की उत्पत्ति अथवा स्थिति और नाश का सर्वज्ञान जिसमें समाहित है, उसे आयुर्वेद कहा गया है।
इसे पंचम वेद का रूप दिया गया है। संसार में अनेक ज्ञान-विज्ञान होते हुए भी वेद को आयुर्वेद की ही संज्ञा दी गयी है। आयुर्वेद के अनुसार यह शरीर पंचतत्त्वों के प्रभाव से वायु, पित्त और कफ तीनों प्रकृतियों में विभाजित है और मन सत्व, रज एवं तम इन तीन प्रकृतियों में विभाजित है। मन इस प्रकृति के अनुसार ही इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त रहता है।

शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को आयुर्वेद में जिस रूप में प्रतिपादित किया गया है, उसी का सामंजस्य गीता की निम्न पंक्तियों से स्पष्ट होता है

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

 

अर्थात् आत्मा को किसी शस्त्र से काटा नहीं जा सकता। अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती, ऐसी परमात्मा की शक्ति इस आकाश में सर्वदा सर्वत्र विद्यमान है।
इसीलिए आयुर्वेद में कहा गया है कि जो मूर्तमान पाँच तत्त्व इस संसार में हैं, वही हमारे शरीर में हैं और जो हमारे शरीर में हैं, वही संसार में हैं। शरीर में इन पाँच तत्त्वों से ही शारीरिक प्रकृति का निर्माण होता है। जो वायु एवं आकाश की प्रधानता से ‘वातज’ अग्नि की अधिकता से ‘पित्तज’ और पृथ्वी एवं जल की अधिकता से ‘कफज’ बनती है। इस शरीर में पंच ज्ञानेन्द्रिय एवं पंच कर्मेन्द्रियों को कार्यरत करने वाला मन और मन की भी तीन प्रकृतियाँ होती हैं—सात्विक, राजस और तामस। इनमें सात्विक श्रेष्ठ है और राजस एवं तामस विकारयुक्त मानी गयी हैं। इसीलिए अष्टांग हृदय में कहा गया है।

 

रजसः तमस्यः दौच दोषो उदादद्दो

 

हमारी समस्त क्रियाएँ इन शारीरिक एवं मानसिक प्रकृति के अनरुप ही रहती हैं और जब इन्द्रियों का हीन योग, मिथ्या योग और अतियोग मन में संचारित होता है तो विकारों की उत्पत्ति होती है जो रोग रूप में प्रस्फुटित होता है। प्राणियों की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने हेतु स्वयं कालरूप भगवान ऋतुचक्र में भी परिवर्तन पैदा कर देते हैं। इस ऋतुचक्र के हीन, मिथ्या और अतियोग से भी संसार के समस्त प्राणिमात्र में जनोपध्वंस के रूप में विकार पैदा होते हैं। इसीलिए चरक में प्राकृतिक विकारों का वर्णन करते हुए अनेक प्रकार के पाप कर्मों का अतियोग मूल कारण निर्दिष्ट किया गया है। आयुर्वेद में मुख्य 10 पाप माने गये हैं।

 

हिंसास्त्रेय अन्यथा काम,
पैशून्य पुरुषामृते समभिन्नलापद
अविद्यायं दृग विपर्यम्
पाप कर्मेति दशदः
काम वाक् मनसे—व्यजते।

 

अर्थात् हत्या, चोरी अन्यथा काम ये शरीर से; झूठ बोलना, चुगली करना, कठोर वचन बोलना ये वाणी से और हत्या का संकल्प करना, गुणों के अन्दर भी अवगुणों का देखना और कुदृष्टि से मन से होने वाले पाप हैं।
जब हम सत्कर्मों पर विचार करते हैं। तो आयुर्वेद में कहा गया है

 

आर्द्र संतानता त्यागः, काय वाक्यात संयमः
स्वार्थ बुद्धि परार्थेषु, पर्याप्तं इति सद्वृत्तं

 

अर्तात् दुखी आदमियों पर संतान के समान व्यवहार करना हमेशा त्याग भावना से जीवन व्यतीत करना, काया, वाचा और मनसा संयम रखना, दूसरों के हित में ही अपना हित समझना ये सत्पुरुष के लक्षण समझे गये हैं।
इन सत्कर्मों के प्रभाव से ही व्यक्ति परम तत्व की प्राप्ति में समर्थ होता है इसके लिए ‘‘शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्’’ शरीर की रक्षा करना ही प्रथम धर्म निर्दिष्ट किया गया है। इसके द्वारा ही अपने जीवन में धर्म में इन्द्रियों के विषयों में और क्रियाओं को सम्यक् सम्पन्न करके मोक्ष की भी प्राप्ति कर सकते हैं। धर्मार्थ काम मोक्षाणाम आरोग्य मूलमुत्तनम् इन चारों की प्राप्ति हमें आरोग्य द्वारा हो सकती है। प्राणियों में प्राण अन्न है। आरोग्य की प्राप्ति के लिए युक्तियुक्त आहार की आवश्यकता होती है। अन्न की उत्पत्ति के विषय में गीता में कहा गया है

 

अन्नाद भवन्ति भूतानि पर्जन्याद अन्न सम्भवः
यज्ञद भवन्ति पर्जन्य यज्ञ कर्म समुद्भवाः।

 

इस प्रकार अन्न विभिन्न पदार्थों के माध्यम से जब हम ग्रहण करते हैं। तब अहं वैश्वानीर भत्वा प्राणिनाम् देहमाश्रितः। प्राण पान समायुक्त। पापान्यम् चतुर्विधम्।

 भक्ष्य, भोज्य, चोस्य और लैह्य इन चार प्रकार के आहार-पदार्थों को वैश्वानर अग्नि के रूप में प्राणियों के शरीर में रहकर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पचाने का काम करते हैं। आयुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की अग्नियों में पाचक अग्नि से आहार का पाचन होता है जो वैश्वानर अग्नि के रूप में कहा गया है। वह आहार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक प्राण रक्षा करता है।
व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार आहार भी सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। जो व्यक्ति जिस प्रकार का होता है वह तदनुरूप आहार ग्रहण करता है। इस सन्दर्भ में गीता में कहा गया है।

 

युक्ताहारविहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु,
युक्त स्वपनावबोधस्य योगो भवति दुःख हाः।।

 

इसी विषय को आयुर्वेद में निम्न पंक्तियों में कहा गया है।
प्राणः प्राण भूतानाम् अन्नः। अर्थात् प्राणियों में प्राण आहार ही होता है।
जो व्यक्ति नित्य हितकारी आहार का सेवन करते हैं, वे ही अपने शरीर की रक्षा ठीक प्रकार से करते हैं। शरीर की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य भी है,
क्योंकि, शरीर माध्यम् खलु धर्म साधनम्।

और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थ का मूल आरोग्य ही होता है। इसीलिए कहा भी गया है।

 

धर्मार्थ काम मोक्षाणाम्,
आरोग्य मूलमुत्तमम्।

 

लेकिन आरोग्य की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को प्रतिदिन हितकारी आहार का सेवन करना नितान्त आवाश्यक है। साथ ही दिनचर्या भी नियमित होनी चाहिए जो व्यक्ति समस्त क्रियाओं को विचारपूर्वक करता है, इन्द्रियों के विषयों में लिप्त नहीं होता, हमेशा दूसरों को ही देने की भावना रखता है, दानशील होता है, सभी में समान भाव रखता है, सत्यवादी और क्षमावान तथा अपने पूज्य व्यक्तियों के वचनों का पालन करता है, वह प्रायः रोगों से दूर रह सकता है। इसी सन्दर्भ में कहा गया है

 

नित्यम् हिताहार विहार सेवी,
समीक्ष्यकारी विषयेष्वशक्त
दाता समःसत्यपराक्षमावान्
आप्तोप सेवी च भवन्त रोगः

 

जो व्यक्ति इस प्रकार स्वास्थ्य के नियमों का पालन करता है, वह हमेशा स्वस्थ रहता है। स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पंच महाभूत, आयु, बल एवं प्रकृति के अनुसार योग्य मात्रा में रहते हैं। इससे पाचन क्रिया ठीक प्रकार से कार्य करती है। आहार का पाचन होता है और रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सातों धातुओं का निर्माण ठीक प्रकार से होता है। इससे मल, मूत्र और स्वेद का निर्हरण भी ठीक प्रकार से होता है। 
            
  

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. आयुर्वेद की वैदिक पृष्ठभूमि
  2. आयुर्वेद की दार्शनिक पृष्ठभूमि
  3. हमारे स्वास्थ्य की चिन्ता किन्होंने की?
  4. चिकित्साशास्त्र में धन्वन्तरि
  5. रसायन महत्त्व
  6. आयुर्वेद में दिव्य औषधियाँ
  7. चमत्कारी संजीवनी
  8. रुद्राक्ष का प्रयोग
  9. सोमरस पान
  10. सूर्य रश्मियों का प्रभाव
  11. विचारों का प्रभाव
  12. वस्त्रों का प्रभाव
  13. भोजन के पात्र का प्रभाव
  14. आभूषणों का प्रभाव
  15. सोना एवं चाँदी के वर्क का प्रभाव
  16. पानी का महत्त्व
  17. रंग और स्वास्थ्य
  18. योग का प्रभाव
  19. उपवास का हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव
  20. संगीत और हमारा स्वास्थ्य
  21. स्वास्थ्य के लिए हँसिये
  22. हँसना-रोना
  23. गाय के पदार्थों का प्रभाव
  24. जीव-जन्तुओं से इलाज
  25. मूत्राष्टक
  26. विषबाधा का घरेलू इलाज
  27. प्राकृतिक विकार
  28. पतंग उड़ाना एवं स्वास्थ्य

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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