लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> बाल चित्रमय चैतन्यलीला

बाल चित्रमय चैतन्यलीला

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1109
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

170 पाठक हैं

प्रस्तुत है बाल-चित्रमय चैतन्यलीला...

Bal Chitramay Chaitanya Lila a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - बाल चित्रमय चैतन्यलीला - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरिः।।

पोथी की जानकारी

महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव एक महान युगपुरुष थे। उन्होंने और उनके साथी तथा शिष्य-प्रशिष्यों ने अपने पवित्र वैष्णव-आचरण और साहित्य के द्वारा जगत् को जो अमूल्य निधि दी है उसकी कहीं तुलना नहीं है। बंगाल में तो श्रीचैतन्य भगवान् के साक्षात् अवतार माने जाते हैं और इनके बंग-भाषा के पद्यों में लिखित चरित्र ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ की श्रीमद्भागवत तथा रामायण की भाँति कथा तथा पाठ होता है। इनके जीवन का प्रत्येक प्रसंग प्रभु-प्रेम तथा त्याग-वैराग्य से भरा है। हमारे छोटे-छोटे बालक इन महापुरुषों की जीवन लीलाओं को जान लें और बोल–चाल की भाषा में लीलाकी तुकबंदियाँ याद कर लें तो उनको बड़ा आनन्द प्राप्त हो सकता है और उनके जीवन-निर्माण में बड़ी शुभ प्रेरणा मिल सकती है। इसी उद्देश्य से यह चित्रों में श्रीचैतन्य का चरित्र प्रकाशित किया जा रहा है। प्रत्येक चित्र के नीचे उनका भाव गेय रूप में लिख दिया गया है। साथ ही विशेष जानकारी के लिये उनका संक्षिप्त जीवन-चरित्र भी चित्रों के सामने दे दिया गया है। इसमें 45 सादे और एक सुन्दर रंगीन चित्र हैं। आशा है हमारे बालक इससे लाभ उठावेंगे।

निवेदक
हनुमान प्रसाद पोद्दार

बालचित्रमय चैतन्यलीला


बंगाल के नवद्धीप नगर में पं. श्रीजगन्नाथ मिश्र की पत्नी श्रीशची देवी की गोद में उनके पुत्ररूप से गौड़ीय भक्तों के परमधन श्रीचैतन्नय सं.1542 वि. फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को होलिका के दिन प्रकट हुए।

बालक इतना सुन्दर और इतना गोरा था कि उसका नाम ही लोगों ने गौरांग रथ लिया। वैसे नामकरण के समय इनका नाम विश्वम्भर रखा गया था, किंतु माता ने प्यार का नाम निमाई रखा था और यह निमाई नाम ही लोक में अधिक प्रसिद्ध हुआ।

श्रीनिमाई के जन्म के दिन चन्द्रग्रहण था। ग्रहण-मोक्ष होने पर लोग गंगास्नान करके राम, कृष्ण, हरि आदि भगवान का पवित्र नाम ले रहे थे। उसी समय निमाई मानो यह सूचित करते प्रकट हुए कि उनका जन्म भगवन्नाम का प्रचार करने के लिए ही हुआ है।

शिशु-अवस्था में जब निमाई पलने में रोने लगते थे तो आस-पास की स्त्रियाँ उनके पलने के पास बैठकर ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर कीर्तन करने लगती थीं। इससे निमाई रोना भूल जाते थे और प्रसन्नता से किलकने लगते थे।
नामकरण-संस्करण के दिन यह जानने के लिये कि बालक की रुचि किस ओर होगी, अन्न, वस्त्र, हथियार, रुपये और पुस्तकें आदि सजाकर रख दी गयीं। निमाई सरककर उनमें से श्रीमद्भागवत की पुस्तक पर ही हाथ रखकर अपनी रुचि प्रकट कर दी।

तनिक बड़े होते ही निमाई चञ्चल हो गये। उन्हें सँभालना माता को कठिन होता था। एक दिन तो वे एक गुड़मुड़ी मारे सर्प के ऊपर ही जाकर बैठ गये। सर्प ने भी फण उठाकर आनन्द से झूमना प्रारम्भ किया। माता और उनके बड़े भाई यह देखकर डर गये कि निमाई सर्प के सिर पर हाथ रखकर हँस रहे हैं। पीछे निमाई के हटते ही सर्प वहाँ से चला गया।

युक्ति मिली, सब के मन भाई। जब रोते हों बाल निमाई।।
हरि हरि हरि हरि गाय सुनावें। रोना त्याग गौर सुख पावें।।
नामकरण का सुन्दर अवसर । धरे शस्त्र, धन, वस्त्र मनोहर।।
इनकी दृष्टि कहीं क्यों जाती। धरी भागवत मन को भाती।
सर्प भयंकर फण फैलाये। चढ़े गौर बैठे मन भाये।।
माता-भाई अति घबराये। पार कौन महिमा का पाये।।
कहते विश्वरूप सकुचाकर। ‘यह छोटा भाई है गुरुवर।।’
हैं अद्वैताचार्य विभोर। मंद मंद मुसकाते गौर।।
शुभ यज्ञोपवीत है आज। अद्भुत सजे निमाई साज।।
धरे ब्रह्माचारी का वेश। लेते गायत्री-उपदेश ।।
‘इतने से दुःख तुम्हें हो रहा।’ दिया गौर ने ग्रन्थ को बहा।।
अहो ! मित्र का यह अनुराग। धन्य धन्य यह अनुपम त्याग।।


निमाई के बड़े भाई विश्वरूपजी श्रीअद्वैताचार्य के यहाँ पढ़ते थे। माता की आज्ञा से निमाई अपने बड़े भाई को भोजन करने के लिये बुलाने गये। अद्वैताचार्य ने पहली बार निमाई को देखा और उनकी शोभा वे एकटक देखते ही रह गये।
श्रीजगन्नाथ मिश्रजी ने यथासमय अपने पुत्र निमाई का विधिपूर्वक यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। यज्ञोपवीत के दिन ही इनका नाम ‘गौरहरि’ पड़ गया।

निमाई पढ़ने में बहुत तेज थे। वे न्यायशास्त्र के प्रधान विद्वान वासुदेव सार्वभौम की पाठशाला में पढ़ते थे। रघुनाथ शिरोमणि अनेक सहपाठी थे। उन्होंने एक न्यायशास्त्र का ‘दीधिति’ नामक ग्रन्थ लिखा था, जो आज भी प्रसिद्ध है। न्याय का एक दूसरा ग्रन्थ निमाई ने भी लिखा था। एक दिन गंगापार होते समय रघुनाथ के आग्रह पर निमाई ने उन्हें अपना ग्रन्थ सुनाया। ग्रन्थ को सुनकर रघुनाथ के नेत्रों में यह सोचकर आँसू आ गये कि ऐसे उत्तम ग्रन्थ के रहते मेरे ग्रन्थ को कौन पूछेगा ? निमाई ने उनके रोने का कारण पूछा और उनकी बात सुनकर अपना ग्रन्थ यह कहते हुए गंगा में बहा दिया कि —‘इतनी सी बात के लिए आप दुःखी होते हैं।’


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book