भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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विदूषक : यदि ऐसी बात है तो आप इसको चटपट हथिया लीजिए, जिससे कि यह हिंगोट
के तेल से चिकनी खोपड़ी वाले किसी तपस्वी के हाथ न लग जाय।
राजा : लेकिन वह बेचारी तो परवश है, इसमें उसके वश की कोई बात नहीं है। और
इस समय उसके पितातुल्य मुनि यहां नहीं हैं।
विदूषक : अच्छा! तो फिर यह तो बताइए कि जब वह आपको देखती थी तो वह किस
भाव से देखती थी?
राजा : मित्र! तपस्वी कन्यायें तो स्वभाव से ही बड़ी भोली-भोली होती हैं।
फिर भी-
जब मैं उसकी और मुख करता था तो वह अपनी आंखें चुरा लेती थी और किसी-न-किसी
बहाने हंस भी देती थी। वह शील के कारण इतनी दबी हुई-सी लगती थी कि न तो वह
अपने प्रेम को छिपा ही पा रही थी और न खुलकर प्रकट ही कर पा रही थी।
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