भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : (मन-ही-मन) सचमुच ही मेरा प्रेम तो बहुत ही आगे बढ़ गया है। इस
पर भी इनसे सहसा कुछ कहते नहीं बन पा रहा है।
प्रियंवदा : सखी शकुन्तला! अनसूया ठीक कह रही है। तुम इस प्रकार अपना रोग
क्यों बढ़ाती जा रही हो। दिन-प्रतिदिन तुम सूखती ही चली जा रही हो।
तुम्हारे शरीर पर तो केवल एक सुन्दर लावण्यमयी काया-सी झलकती दिखाई
देने लगी है।
राजा : प्रियंवदा सच कहती है।
क्योंकि-
इसके कोमल कपोल मुरझा गए हैं, मुंह सूख गया है। स्तनों की कठोरता भी
समाप्त हो गई है। कटि प्रदेश और भी पतला हो गया है। कन्धे झुक गए हैं और
देह पीली पड़ गई है। मदन के क्लेश से यह ऐसी हो गई है जैसे वायु के परस से
मुरझाई हुई पत्तियों वाली माधवी लता हो, जो सुन्दर भी लगती है और जिस पर
दया भी आती है।
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