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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

केदारदत्त जोशी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11248
आईएसबीएन :8120823540

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4. त्रिषडाय भाव

(1) तृतीय भाव
(i) तृतीय भाव शक्ति, पराक्रम, दास, कार्य कुशलता, गला व छाती के रोग दर्शाता है।
(ii) धन का मारक भाव होने से यह कटुम्ब सुख की हानि दर्शाता है।
(ii) चतुर्थ या सुख का संनिं स्थान होने के कारण तृतीय भाव मानसिक कष्ट, क्लेश व सन्तोष का प्रतिनिधि है।
(iv) दशम या कर्म का षष्ठ भाव होने से ततीय भाव; कार्य क्षेत्र में विघ्नबाधा या कठिनाइयों को दर्शाता है।
(v) अष्टम भाव दैन्य व दुर्भाग्य या मृत्यु का भाव है तो तृतीय भाव अष्टम से अष्टम होने के कारण महान अशुभ व अनिष्टप्रद माना गया है।
(vi) पंचम भाव विद्या, बुद्धि या मित्र सम्बन्धी सुख का भाव है। तृतीय भाव पंचम से एकादश होने से कमी, सन्तान व मित्रों से वैर-विरोध कराता है, या दुश्चिन्ता से पीड़ा देता है।

(2) षष्ठ भाव
जैसा कि पहले बताया है, षष्ठ भाव विघ्नबाधा, चिन्ता, रुकावट, रोग व शत्रु भय का भाव है। एकादश भाव, 'षष्ठात् षष्ठम्' होने से अशुभ व सुख विघातक हो जाता है। इसी प्रकार, तृतीय भाव भी अष्टम से अष्टम होने के कारण अपयश, कलंक व कष्ट देने वाला भाव बन जाता है।
(i) षष्ठ भाव, सुख स्थान का तृतीय भाव होने से सुख की कमी करता है।
(ii) लौकिक सुख भोग या द्वादश भाव, का मारक (सप्तम) भाव होने से सुख वैभव में कमी करता है।
(iii) एकादश या लाभ स्थान से अष्टमस्थ होने के कारण, षष्ठ भाव धन, मान व यश की कमी देता है।
(iv) सप्तम या पत्नी का व्यय भाव होने से, षष्ठ भाव पत्नी के देह सुख की कमी दर्शाता है।

(3) एकादश भाव
(i) धन लाभ, पुत्रवधू या पुत्री का पति, देव पूजन, बड़ा भाई, विद्या प्राप्ति, माता की मृत्यु या सन्तानहीनता का विचार एकादश भाव से होता है।
(ii) पंचम या सन्तान भाव से सप्तम अर्थात मारक भाव होने से एकादश भाव सन्तान की मृत्यु या पुत्रशोक दर्शाता है।
(iii) चतुर्थ का अष्टम भाव होने से एकादश भाव घर-परिवार तथा मानसिक सुख में कमी करता है।
(iv) नवम से तृतीय होने के कारण एकादश भाव कभी, भाग्य सम्बन्धी बाधा या पिता के सुख में कमी देता है।

4. त्रिषडाय भाव


(i) त्रिषाय के स्वामी पापी माने जाते हैं। ये जिस किसी भाब या भावेश से सम्बन्ध करें, उसे भाव को नाश करते हैं।
(ii) जिस किसी भाव से 3,6,11वें भाव में क्रूर ग्रह हों उस भाव की वृद्धि होती है।
(iii) त्रिषडाय में स्थित शुभ ग्रह बचपन में सुख देते हैं किन्तु इन भावों मैं बैठे क्रूर ग्रह वृद्धावस्था में सुख देते हैं।
(1) द्वितीय भाव २१२ में ग्रह,

लग्नेश-जातक विद्वान, गुणी व धनी होता है। कभी शत्रुओं से बाधा होती है।
द्वितीयेश-जातक धनी-मानी व प्रतिष्ठित होता है। द्वितीय भाव पर पाप प्रभाव दाम्पत्य जीवन में, वैर-विरोध या अनबन देता है।
तृतीयेश-जातक परदारा व पराए धन का लोभी, पराक्रम रहित, निरुत्साही तथा सुख में कमी वाला होता है।
चतुर्थेश-जातक धन-सम्पत्ति से युक्त, धनी-मानी, योगी और बन्धु-बान्धवों का सुख पाने वाला होता है।
पंचमेश-जातक धनी-मानी, पुत्रवान तथा स्त्रियों का प्रेमभाजन होता है। वह परिजन पालक होता है।
षष्ठेश-जातक कुल में प्रतिष्ठित, साहसी, कुशल वक्ता, कर्तव्य परायण, प्रवासी और सुखी होता है।
सप्तमेश-जातक अनेक स्त्रियों से सम्बन्ध कर उनसे लाभ पाने वाला तथा देर तक' सोने कला आलसी होता है।
अष्टमेश-जातक दुर्बल अर्थ संकट से पीड़ित या अल्पधनी तो कभी नष्ट धन को प्राप्त करने वाला होता है।
नवमेश-जातक पत्नी व पुत्र का श्रेष्ठ सुख पाने बाला, धनी, विद्वान, भोगी व लोकप्रिय होता है।


सप्तम भाव (7H) में ग्रह

क्रूर लग्नेश-सप्तम होने पर जातक सुख से दंचित होता है। ऐसा विरक्त, पर्यटन प्रेमी, दरिद्र या राजा सरीखा धनी-मानी व्यक्ति होता है।
द्वितीयेश-सप्तमस्थ होने पर वैद्य होता है। सप्तम भाव पर पाप प्रभाव कभी पति व पत्नी कोऔर व्यभिचारी बनाता है।
तृतीयेश-सप्तमस्थ होने से बाल्यावस्था में दीननुःखी किन्तु बाद राजा का आश्रय पाने से सुखी होता है।
चतुर्थेश-सप्तम भाव में होने से अनेक शास्त्रों का जाता किन्तु पैतृक सम्पदा से वंचित और सभामूक मंचभीरू होता है।
पंचमेश-सप्तम भाव में होने से धार्मिक, परोपकारी तथा सन्तान श्रेष्ठ सुख पाने वाला होता है। कभी उसे मनचाही पत्नी मिलती है।
षेष्ठश-सप्तम भाव में होने से धनी-मानी, पराक्रमी, सद्गुण सम्पन्न किन्तु स्त्री सुख से वंचित होता है।
सप्तमेश-सप्तमस्थ होने से जातक स्थिर बुद्धि, विद्वान किन्तु वातरोगी होता है उसे पत्नी का श्रेष्ठ सुख मिलता है।
अष्टमेश-सप्तम भाव में होने से दूसरे विवाह की सम्भावना बढ़ती है। यदि वहाँ पाप ग्रह भी ही तो व्यापार में धन हानि हुआ करती है।
नवमेश-सप्तम भाव में होने से जातक गुणी, यशस्वी तथा स्त्री के कारण भाग्य व यश पाने वाला होता है।
दशमेश-जातक धनी-मानी, उदार, गुणी व राज सम्मान पाने वाला होता है।
लामेश-जातक धनी-मानी, उदार, धार्मिक तथा सभी कार्यों में सफलता पाने वाला सुखी व्यक्ति होता है।
व्ययेश-जातक धार्मिक, मधुरभाषी, अच्छे काम या दान-परोपकार में धन खर्च करने वाला, गुणी व सुखी व्यक्ति होता होता है।

2. द्वितीयेश

लग्न में जातक धनी, निष्ठुर, दूसरों की सेवा-सहायता को तत्पर किन्तु कुटुम्ब का वैर-विरोध करने वाला होता है।
द्वितीय भाव-जातक धनी-मानी, दो या तीन स्त्रियों से सम्बन्ध रखने वाला तथा सन्तान सुख में कमी पाने वाला होता है।
तृतीय भाव गुणी, पराक्रमी, विद्वान तो कभी लोभी या कामी होता है। द्वितीयेश की पाप ग्रह से युति देव निन्दक बनाती है।
कभी प्रयत्न करने पर एक पुत्र भी
चतुर्थ भाव- में नाना प्रकार की धन सम्पत्ति पाने वाला सुखी व्यक्ति होता है। धनेश उच्चस्थ हो या गुरु अथवा शुक्र से युति करे तो जातक राजा सरीखा प्रतापी व प्रतिष्ठित होता है।
पंचम भाव-जातक बुद्धिमान व धन कमाने में कुशल होता है। उसके पुत्र भी धन कमाने में कुशल होते हैं। षष्ठ भाव में धनेश की शुभ ग्रह युति शत्रु से धन लाभ देती है।
दशमेश-सप्तम भाव में होने से जातक धार्मिक, विद्वान, गुणी तथा श्रेष्ठ स्त्री सुख पाने वाला-होता है।
लाभेश-सप्तम भाव में होने से जातक भोगी, गुणी, उदार, स्त्री के अधीन तथा ससुराल से धन पाने वाला होता है।
व्ययेश-सप्तम भाव में होने से जातक निर्बल श्रेष्ठ विद्या तथा स्त्री सुख से वंचित होता है। कभी स्त्री के लिए धन व्यय करता है।

सप्तमेश

लग्न में जातक परदारासक्त, लम्पट, दुष्ट, धैर्यवान चतुर तो कभी वात रोग से पीड़ित होता है।
द्वितीय भाव में सप्तमेश होने से जातक स्त्री द्वारा. धन पाने वाला, युवतियों का प्रेम पात्र तो कभी आलसी या दीर्घसूत्री होता है।
तृतीयभाव में सप्तमेश होने से गर्भपात या मृत सन्तान प्राप्ति का योग होता है। कन्या सन्तान दीर्घजीवी होती है। कभी प्रयत्न करने पर एक पुत्र भी जीवित रहता है।
चतुर्थ भाव में सप्तमेश होने पर स्त्री स्वच्छन्द व स्वतन्त्र प्रकृति की होती है। जातक स्वयं सत्य व समानता का पक्षधर बुद्धिमान, धार्मिक तो कभी दंत रोगी होता है।
पंचम भाव में सप्तमेश होने से जातक धन वैभव सम्पन्न, गुणी, विद्वान व प्रसन्नाने या सन्तुष्ट होता है।
षष्ठ भाव में सप्तमेश होने से पत्नी युक्त या पति से शत्रुता रखने युक्त, धनेश रोग, शत्रुभाव, धन हानि देता है।
सप्तम भाव में धनेश की पाप ग्रह से युति जातक को चिकित्सक या वैद्य बनाती है। यदि सप्तम भाव, सप्तमेश और शुक्र—तीनों पापी हों तो पति-पत्नी व्यभिचारी होते हैं।
अष्टम भाव में. धनेश धन व भूमि का पूर्ण सुख, पत्नी का अल्प सुख तो बड़े भाई का अभाव देता है।
सप्तम भाव में स्वक्षेत्री सप्तमेश होने पर जातक की पत्नी सुख उत्तम होता है। पत्नी सुन्दर, सुशील व गुणवती होती है। जातक स्थिर बुद्धि, बुद्धिमान तो कभी वात रोगी होता है।
अष्टम भाव में सप्तमेश होने से जातक स्त्री सुख में कमी पाता है। उसकी पत्नी  मनमानी करने वाली या दुराचारिणी होती
है।
नवम भाव में धनेश जातक को धनी व उद्यमी बनाता है। वह बचपन में रोग पीड़ित किन्तु बाद में स्वस्थ व सुखी रहता है।
दशम भाव में धनेश जातक को धनी-मानी, विद्वान, भोगी, किन्तु पुत्र सुख से हीन बनाता है।
एकादश भाव में धनेश होने पर जातक उद्योगशील, धनी-मानी और यशस्वी होता है। उसे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
द्वादश भाव में धनेश होने से जातक परिश्रमी, साहसी तो कभी पराश्रित होता है। उसे बड़े पुत्र का सुख कम मिलता है।

वाली होती है। जातक स्वयं क्रोधी व सुख रहित होती है।

सप्तम भाव में स्वक्षेत्री सप्तमेश होने पर जातक का पत्नी सुख उत्तम होता है। पत्नी सुंदर, सुशील व गुणवती होती है। जातक स्थिर बुद्धि, बुद्धिमान तो कभी वात रोगी होता है।
अष्ठम भाव में सप्तमेश होने से जातक स्त्री सुख में कमी पाता है। उसकी पत्नी मनमानी करने वाली या दुराचारिणी होती है।
नवम भाव में सप्तमेश होने से जातक भोगी, परदारासक्त व रतिसुख लोभी होता है। वह अनेक कार्य योजनाओं का
आरम्भकर्ता होता है किन्तु उसका मन स्त्रियों में ही लगा रहता है।
दशम भाव में सप्तमेश होने से जातक धर्मात्मा तथा धन व सन्तान का सुख पाने वाला होता है किन्तु उसकी पत्नी स्वतन्त्र स्वभाव और पति की अवहेलना करने वाली होती है।
एकादश भाव में सप्तमेश होने से पत्नी से धन लाभ होता है। पुत्र सुख में कमी है। उसे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती किन्तु कन्या सुख श्रेष्ठ होता है।
द्वादश भाव में सप्तमेश होने से पत्नी के कारण धन खर्च होता है। कोई जातक है। उसे दीन, दरिद्र, कृपण तथा वस्त्रों पर आश्रित जीविका पाने वाला होता है।
विद्वानों ने तृतीय भाव को बल, पराक्रम, साहस, उत्साह व शौर्य का भाव माना है। उसका हानि या व्यय स्थान होने से द्वितीय भाव को मारक स्थान कहा जाता है। द्वितीय भाव से धन, कुटुम्ब, वाणी तथा व्यक्तित्व का विचार होता है। यदि इसका स्थूलकारक संचित धन है तो सूक्ष्मकारक कुटुम्ब या वंश है।
सप्तम भाव-आयुष्य या जीवन अवधि का व्यय भाव होने से मारक कहलाता है सप्तमेश को मारकेश भी कहते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी
  2. अपनी बात

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