वास्तु एवं ज्योतिष >> लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरीकेदारदत्त जोशी
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अध्याय -3 : योग फल
पिछले अध्याय की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए यहाँ, अगले 10 श्लोकों में ग्रहों के परस्पर सम्बन्ध से बने योगों पर विचार किया गया है। प्रायः इन योगों को शुभ फल सम्बन्धित ग्रह की दशा या अन्तर्दशा में प्राप्त होता है।
3.1 शुभ फल देने वाले योग
(1) केन्द्र त्रिकोण पतयः सम्बन्धेन परस्परम्
इतरैर प्रसक्ताश्चेद् विशेष फलदायकाः ।।14।।
केन्द्र व त्रिकोण के स्वामियों का परस्पर दृष्टि-युति या स्थान सम्बन्ध ही शुभ योग है। यदि इन ग्रहों का सम्बन्ध अन्य भावेश से न हो तो निश्चय ही शुभ फल की गुणवत्ता और मात्रा बढ़ जाती है।
(2) चार प्रकार के सम्बन्ध मुख्य हैं :-
(i) सह अवस्थान-एक ही राशि में दो ग्रहों की स्थिति।
(ii) परस्पर दृष्टि विनिमय-दो ग्रहों का एक-दूसरे को देखना।
(iii) स्थान सम्बन्ध-ग्रहों का परस्पर राशि परिवर्तन करना।
(iv) स्थान दृष्टि सम्बन्ध-जब कोई ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी से दृष्टि सम्बन्ध करे तो इसे स्थान दृष्टि सम्बन्ध माना जाता है। उदाहरण के लिए, मेष राशिस्थ सूर्य यदि मकर राशिस्थ मंगल की दृष्टि पाए तो ऐसी सूर्य, मंगल की राशि में बैठकर मंगल से दृष्ट होगा। यहाँ सूर्य व मंगल का स्थान दृष्टि सम्बन्ध माना जाएगा।
इन चारों में परस्पर स्थान परिवर्तन या स्थान सम्बन्ध सर्वश्रेष्ठ है। परस्पर दृष्टि सम्बन्ध इससे कम श्रेष्ठ या क्रमांक दो पर होगा। स्थान दृष्टि सम्बन्ध अर्थात किसी ग्रह का अपने नियन्त्रक से दृष्टि सम्बन्ध तीसरे क्रम पर शुभता पाएगा। एक ही राशि में दो ग्रहों की युति सवसे कम श्रेष्ठ मानी जाती है।
(3) विद्वानों की मान्यता है कि :-
1. (केन्द्रेश + त्रिकोणेश) का लग्नेश या चन्द्रराशीश से सम्बन्ध, उत्कृष्ट राजयोग, धन, मान, सत्ता-सुख व पद-प्रतिष्ठा देता है।
2. अपनी उच्चराशि, स्वराशि या मित्रराशि या इनके नवांश में स्थित ग्रह शुभ फल दिया करते हैं।
3. परस्पर केन्द्र या त्रिकोण में बैठे ग्रह. भी, केन्द्र सम्बन्ध तथा त्रिकोण सम्बन्ध होने से, शुभ फल देते हैं।
4. जिस प्रकार द्वितीय और द्वादश भाव के स्वामी सम होने से अपनी अन्य राशि का फल देते हैं, कुछ इसी प्रकार केन्द्रेश भी सम होते हैं तथा अपनी अन्य राशि का फल देते हैं। यदि केन्द्रेश की अन्य राशि त्रिकोण में हो तो निश्चय ही ये ग्रह बहुत शुभ व योगकारक हो जाते हैं।
5. त्रिक व त्रिषाय के स्वामी यूँ तो अशुभ फल देते हैं किन्तु यदि उनकी अन्य राशि त्रिकोण में पड़े या त्रिकोणेश से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध करें तो उनकी अशुभता नष्ट हो जाती है।
3.2 पंडित जवाहर लाल नेहरू
विश्लेषण-
(i) लग्नेश चन्द्रमा का लग्नस्थ होकर भाग्येश गुरु की पार्श्व दृष्टि पाना जातक के आत्मबल व भाग्य की वृद्धि करता है।
(ii) भाग्येश गुरु की दशम भाव पर दृष्टि है तो केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी, मंगल भी नवम व दशम भाव को देख रही है। इस योग ने इन्हें भारत का लोकप्रिय नेता में प्रथम प्रधानमन्त्री बनाया।
(iii) सुख स्थान में राहु नियन्त्रक बुध तृतीयेश होकर एकादशेश शुक्र के साथ है। इस योग ने परिवार के सुख में कमी दी।
अर्थात किसी ग्रह का अपने नियन्त्रक से दृष्टि सम्बन्ध तीसरे क्रम पर शुभता पाएगा। एक ही राशि में दो ग्रहों की युति सवसे कम श्रेष्ठ मानी जाती है।
(3) विद्वानों की मान्यता है कि :-
1. (केन्द्रेश + त्रिकोणेश) का लग्नेश या चन्द्रराशीश से सम्बन्ध, उत्कृष्ट राजयोग, धन, मान, सत्ता-सुख व पद-प्रतिष्ठा देता है।
2. अपनी उच्चराशि, स्वराशि या मित्रराशि या इनके नवांश में स्थित ग्रह शुभ फल दिया करते हैं।
3. परस्पर केन्द्र या त्रिकोण में बैठे ग्रह. भी, केन्द्र सम्बन्ध तथा त्रिकोण सम्बन्ध होने से, शुभ फल देते हैं।
4. जिस प्रकार द्वितीय और द्वादश भाव के स्वामी सम होने से अपनी अन्य राशि का फल देते हैं, कुछ इसी प्रकार केन्द्रेश भी सम होते हैं तथा अपनी अन्य राशि का फल देते हैं। यदि केन्द्रेश की अन्य राशि त्रिकोण में हो तो निश्चय ही ये ग्रह बहुत शुभ व योगकारक हो जाते हैं।
5. त्रिक व त्रिषाय के स्वामी यूँ तो अशुभ फल देते हैं किन्तु यदि उनकी अन्य राशि त्रिकोण में पड़े या त्रिकोणेश से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध करें तो उनकी अशुभता नष्ट हो जाती है।
3.2 पंडित जवाहर लाल नेहरू
विश्लेषण-
(i) लग्नेश चन्द्रमा का लग्नस्थ होकर भाग्येश गुरु की पार्श्व दृष्टि पाना जातक के आत्मबल व भाग्य की वृद्धि करता है।
(ii) भाग्येश गुरु की दशम भाव पर दृष्टि है तो केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी, मंगल भी नवम व दशम भाव को देख रही है। इस योग ने इन्हें भारत का लोकप्रिय नेता में प्रथम प्रधानमन्त्री बनाया।
(iii) सुख स्थान में राहु नियन्त्रक बुध तृतीयेश होकर एकादशेश शुक्र के साथ है। इस योग ने परिवार के सुख में कमी दी।
3.5 राजीव गाँधी
जन्म : 20 अगस्त, 1944; प्रातः 8 : 12, मुम्बई,
विश्लेषण-
(i) लग्नेश की पंचमेश व दशमेश से लग्न में युति उत्कृष्ट राजयोग दे रही है।
(ii) भाग्येश मंगल का योगकारक होकर पंचम व नवम भाव से दृष्टि सम्बन्ध बुद्धि व भाग्य बल बढ़ाता है।
(iii) षष्ठेश-सप्तमेश शनि का अष्टम भाव और अष्टमेश से दृष्टि सम्बन्ध, पुनः मंगल का योगकारक होकर अष्टम भाव को देखना दुष्मरण या विस्फोट से मृत्यु देने वाला बना।
3.6. मोती लाल नेहरू
विश्लेषण-
(i) लग्नेश और भाग्येश का स्थान परिवर्तन तथा भाग्येश गुरु का उच्चस्थ होकर लग्न में बैठना जातक को भाग्यशाली और यशस्वी बनाता है।
(ii) उच्चस्थ धनेश सूर्य की लाभेश शुक्र शुक्र के साथ दशम भाव में युति, कार्य क्षेत्र में धन व यश देने वाली चन्द्र बनी।
(iii) पंचम भाव पर पंचमेश, दशमेश मंगल तथा उच्चस्थ भाग्येश गुरु की दृष्टि ने दैव कृपा से जवाहर सरीखा पुत्ररत्न प्रदान किया। ध्यान रहे, अनेक विद्वानों ने नवम भाव को दैव कृपा का भाव माना है। फिर यहाँ तो पंचम भाव और नवम भाव, दोनों ही अपने स्वामी से दृष्ट हैं। अतः ऐसा जातक दैव कृपा प्राप्त सिद्ध जातक होता है।
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