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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11408
आईएसबीएन :8172701004

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1.6 समीक्षा


भले ही इस अध्याय में मात्र 5 श्लोक हैं किन्तु महर्षि पाराशर ने अपनी रचना का उद्देश्य मंगाचरण में स्पष्ट कर दिया है। वे धर्म व अध्यात्म के मूल सिद्धान्त, चार महावाक्य का विस्तार ज्योतिष शास्त्र में देखते हैं-

1. ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या-सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तथा संसार का मूल कारण ब्रह्म, सत्य व सनातन है तथा यह संसार स्वप्न सरीखा, असत्य व मिथ्या है।
2. ‘सः एकमेव द्वितीयोनास्ति'-वह अकेला व अद्वितीय है, दूसरा नहीं है कोई, कहीं भी। हाँ, वह एक ही सजा है विभिन्न रूपों में, घेर कर बैठा है, समूचे ब्रह्मांड को।
3. “सर्वम् खल्वं इदम् ब्रह्म'-ये समूचा संसार, जो निरन्तर गतिशील है, रूप है ब्रह्म का। कण-कण में और प्रत्येक क्षण में उसी का तो वास है। Time and space is Occupied by Him alone. सभी देश-काल में बस वही एक रहता है। उसके अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं है कहीं भी।
4. 'एकम् सदविप्रः बहुधा वदन्ति'-विज्ञ सन्तर्जन चर्चा करते हैं निरन्तर बस उसी एक की। वे अनेक नाम और रूपों से चिन्तन करते हैं उसी का; जो रचयिता ही नहीं, नियामक और नियन्ता है, समूचे जगत का।
कदाचित महर्षि पाराशर को लगा कि उनकी अमर कृति 'बृहत्पाराशर होराशास्त्र' कहीं राजदरबार में मात्र मनोरंजन, राज्य विस्तार या लाभ प्राप्ति का उपकरण बनकर न रह जाए। इस कारण ‘लघु पाराशरी' की रचना कर बताया कि ज्योतिष शास्त्र तो 'भटकते जीवों को प्रभु की ओर मोड़कर मुक्ति देने वाली विद्या है।

अगले अध्याय में ग्रहों के भावाधिपत्य के अनुसार फल निर्णय पर चर्चा होगी।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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