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गीता प्रेस, गोरखपुर >> महाकुंभ पर्व

महाकुंभ पर्व

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :44
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1150
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है महाकुंभ पर्व...

Mahakumbh Parva a hindi book by Gitapress - महाकुंभ पर्व - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रयाग राज में अर्धकुम्भपर्व

तीर्थराज प्रयाग की महिमा तो वैसे भी वाणी की सीमा से परे है। माघमेला प्रयाग को विश्व का सबसे बड़ा मेला होने का सौभाग्य प्राप्त है, किन्तु कुम्भ का अवसर इसकी महत्ता में और भी वृद्धि कर देता है वह हजारों अश्वमेधयज्ञ करने से भी नहीं मिलता है, किन्तु इसके बीच में छः वर्ष के बाद अर्धकुम्भपर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर वेद-वेदान्तका ज्ञान, तीर्थ-यात्रा-पुण्य,सत्संग कथा-कीर्तन, ऋषि मुनिजन-समागम आदि का सुन्दर लाभ सहज  ही मिलता है।

वि० स० 2063, माघ कृष्ण अमावस्या, शुक्रवार को प्रयागराज में अर्धकुम्भका भव्य पर्व होगा। मौनी अमावस्या को वृश्चिक राशि के गुरु एवं सूर्य व चन्द्रमा दोनों मकर राशि के रहेंगे। इस पुनीत पुरातन पर्व के अवसर पर साधु-संन्यासी, मुनि-तपस्वी एवं अन्य श्रद्धालु लोग पहले से ही तीर्थ क्षेत्र में एकत्रित होना प्रारम्भ कर देते है।

अर्धकुम्भ के पावन पर्वपर गंगास्नान के उपरान्त भगवान् विष्णु, भगवान् शिव एवं सूर्यादि देवोंका ध्यान करते हुए तिल, पुष्पाक्षत-सहित तीर्थजलसे अर्घ्य देना चाहिये। यथासम्भव देवताओं के स्तोत्रों का पाठ-जप, पितरोंका तर्पण तथा दानादि करना  चाहिये। संत-महात्माओं के दर्शन तथा प्रवचन का भी लाभ उठाना चाहिये। मौनी अमावस्या को तिल-शक्कर, फलादि, गर्म, वस्त्रों (कम्बल)- के दान का शास्त्रों में विशेष फल बताया गया है।

अर्धकुम्भ-स्नानकी मुख्य तिथियाँ इस प्रकार हैं-
(1)    पौष शुक्ल पूर्णिमा- (दिनांक ०3-०1-2007  ई०, बुधवार)
(2)    मकर-संक्रान्ति- (दिनांक 14 -०1-2007 ई०, रविवार)
(3)    मौनी अमावस्या- (दिनांक 19-०1-2007 ई०, शुक्रवार)
(4)    वसन्त-पंचमी- (दिनांक 23 -०1-2007 ई०, मंगलवार)
(5)    रथसप्तमी-    (दिनांक 25-०1-2007 ई०, गुरुवार)
(6)    माघी पूर्णिमा – (दिनांक ०2 -०2-2007 ई०, शुक्रवार)

महाकुम्भ-पर्व


कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्थिताः।।
कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः  सामवेदो ह्यथर्वणः ।।
अङ्गैश्र्च सहिताः  सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।

‘कलशके मुख में विष्णु, कण्डमें रुद्र, मूल भाग में ब्रह्मा, मध्य भाग में मातृगण कुक्षिमें समस्त समुद्र, पहाड़ और पृथ्वी रहते हैं और अंगों के सहित ऋग्वेद, यदुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी रहते हैं।’

नम्र निवेदन


‘चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।’ (अथर्व० 4 । 34।7)  

मानव-जीवन का परम एवं चरम लक्ष्य है- अमृतत्वकी  प्राप्ति। अनादि-कालसे अमृतत्वसे विमुख मनुष्य उसी अमृतत्वकी खोज में सतत प्रयत्नशील  है। क्यों न हो ! उसे जो स्वतः प्राप्त है, किन्तु अपने ही द्वारा की गयी भूलके कारण वह उससे विमुख  हुआ है। वेद पुराण, इतिहास, ऋषि और महर्षि उसी परम लक्ष्य की प्राप्ति की दिशामें अग्रसर होने के लिये निरन्तर प्रथप्रदर्शककी भूमिकाका निर्वाह करते आये हैं।

मनुष्य के अचेतन मनमें दैवी एवं आसुरी दोनों प्रवृत्तियाँ विद्यामान रहती है, जो अवसर पाकर उद्दीप्त हो उठती हैं। फलस्वरूप दैव तथा इसके आसुरी  प्रकृतिवाले मनुष्यो में सतत संघर्ष होते रहते हैं। परन्तु आसुरी प्रवृत्तियाँ चाहे जितनी भी सबल क्यों न हो, अन्त में विजयश्री दैवी प्रकृतिवालोका ही हरण  करती है; क्योंकि हमारी संस्कृतिका ध्रुवसत्य सिद्धान्त है- ‘सत्यमेव जयते’।

पुराणवर्णित देवासुर-संग्राम-एवं समुद्र-मन्थनद्वारा  अमृत-प्राप्ति के आख्यानसे यह स्पष्ट होता है कि भगवान ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर दैवी प्रकृतिवाले देवताओं को अमृत-पान कराया था। अमृत-कुम्भकी उत्पत्ति-विषयक उक्त आख्यान के  परिप्रेच्छ में भारत वर्ष में प्रति द्वादश वर्ष में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में कुम्भ-पर्वका आयोजन होता रहता है।

कुम्भ-पर्व के माहात्म्यको प्रतिपादित कहते हुए कहा गया है कि ‘कुम्भ-पर्वमें जानेवाला मनुष्य स्वयं दान,-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को  वैसे ही नष्ट करता है, जैसे कुठार वनको काट देता है। जिस प्रकार गङ्गा नदी अपने तटों को काटती हुई प्रभावित होती है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व मनुष्य के पूर्वसज्जित कर्मों से प्राप्त हुए शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घोड़े की तरह बादलों को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।

कुम्भ-पर्वकी इसी महत्ता से अभिभूत होकर प्रायः समस्त धर्मावलम्बी अपनी आस्था को हृदय में संजोये हुए अमृतत्वकी लालसामें उन-उन स्थानों पर  पहुँचाते है। विश्व विपुल जनसमुदायको देखते हुए  ऐसा प्रतीत होता है कि मानो अव्यक्त (अमृत)-की ही अभिव्यक्ति हुई हो। उस अनन्त, अव्यक्त अमृत के  अभिलाषी इस वर्ष सिंहस्थ कुम्भ, नासिक (त्र्यम्बकेश्वर)- में पधार रहे हैं। धारण जन-मानस भी इस महापर्व के माहात्यके विषय में अनभिज्ञ न रहे, इसी अभावकी मूर्ति की दिशा में प्रस्तुत पुस्तक एक लघु प्रयास है। अल्प साधन एवं समयमें किसी बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता है, उसमें भी प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा उतरना और भी दुरूह है। किन्तु संसार के प्रायः समस्त शुभ कार्य भगवानकी अवहैतुकी कृपासे ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्य तो एक निमित्तामात्र है। प्रस्तुत ‘महाकुम्भ- पर्व’ भी उसी परम प्रभुकी अहैतुकी कृपाका ही सुफल है।

प्रस्तुत पुस्तक को यथासामार्थ्य प्रमाणिक बनानेका भरकस प्रयास किया गया है। इसकी कथाका आधारस्त्रोत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, स्कन्दपुराण, शिवपुराण, नारादपुराण, पद्मपुराण, महाभारत तथा पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़-प्रणीत ‘कुम्भपर्व-माहात्म्’, कल्याण-पत्रिका, हृषीकेश पञ्चांग तथा चिन्ताहरण पञ्चांग आदि है।
अत्यल्प समय में भगवत्कृपासे जो कुछ सम्भव हो सका है, वह आपकी सेवा में समर्पित है। सहृदय विद्वानों से हमारी प्रार्थना है कि वे इस पुस्तक की भूलों को क्षमा करेंगे।
आशा एवं पूर्ण विश्वास है कि श्रद्धालुजन इस पुस्तक अवश्य लाभ उठायेंगे।

प्रह्लाद ब्रह्मचारी

महाकुम्भ-पर्व- एक परिचय


प्राचीन कालसे ही हमारी महान भारतीय संस्कृति में तीर्थों के प्रति और उनमें होनेवाले पर्वविशेषके प्रति बहुत आदर तथा श्रद्धा-भक्ति का अस्तित्व विराजमान है। भारतीय संस्कृति में किसी, धार्मिक कृत्य, संस्कार, अनुष्ठान तथा पवित्र सामारोह और उत्सव आदि के आयोजन मात्र प्रदर्शन, आत्मतुष्टि या मनोरज्जन आदि की दृष्टि से नहीं किये जाते है, अपितु प्रायः ऐसे धार्मिक एवं सास्कृतिक आयोजनों का मुख्य उद्देश्य होता है- आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण। इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठान या पर्वों के आयोजनमें भी न केवल परमात्मा का अनुपालन, अपितु शास्त्रानुमोदित प्राचीन भारतीय (वैदिक) संस्कृति की गरिमा से मण्डित पद्धति के निर्वहण का सुप्रयास भी निहित रहता है।

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