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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्तराज ध्रुव

भक्तराज ध्रुव

शान्तनु बिहारी

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :44
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1155
आईएसबीएन :81-293-0527-5

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प्रस्तुत है भक्तराज ध्रुव का चरित.....

Bhaktraj Dhruv a hindi book by Shantanu Bihari - भक्तराज ध्रुव - शान्तनु बिहारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

भक्तराज ध्रुव के नाम और चरित्र से हम सभी परिचित हैं। एक छोटी-सी घटना से ध्रुव के जीवन में एक महान् क्रान्ति हो गयी और वही उनके भगवत्साक्षात्कारका कारण भी बन गयी। छः वर्ष का छोटा बालक भगवान् के पथ में किस निष्ठा के साथ जा रहा है, यह हम सभी के लिये सर्वथा अनुकरणीय है। साधनकाल में कैसे-कैसे प्रलोभन उसके सामने आये, पर एक भी उसे डिगा नहीं सका और अन्त में स्वयं भक्तवत्सल भगवान् को उसके सम्मुख प्रकट होना पड़ा। साधना भी उसकी कितनी सरल एवं सरस थी —द्वादशाक्षर-मन्त्र का जप और सब अवस्थाओं में भगवान् नारायण का ध्यान ! इसी साधना से ध्रुव के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये—केवल छः महीने के भीतर।

इन्हीं  भक्तराज ध्रुव का चरित्र इस छोटी-सी पुस्तक में बहुत ही सीधी-सादी परन्तु प्रभावशाली भाषा में हमारे परम सम्मान्य पं. श्रीशान्तनुविहारीजी द्विवेदी ने लिखा है। महाभारत, भागवत, विष्णु पुराण तथा अन्. पुराणों का आधार लेकर यह बहुत सुन्दर वस्तु पण्डित जी ने पाठकों के सम्मुख रखी है। आशा है, ध्रुव के चरित्र से पाठकों का अनतःकरण शुद्ध होगा तथा उनके चित्त में साधना की लहरें उठेंगी।

विनीत सम्पादक

भक्तराज ध्रुव
(1)


स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र थे—प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की दो स्त्रियाँ थीं— सुरुचि और सुनीति। सुरुचि का पुत्र था उत्तम और सुनीति का ध्रुव। राजा उत्तानपाद सुरुचि पर आसक्त थे, एक प्रकार से उसके अधीन थे। वे चाहने पर भी सुनीति के प्रति अपना प्रेम प्रकट नहीं कर सकते थे। ध्रुव और उत्तमकी उम्र अभी बहुत थोड़ी—केवल पाँच वर्षों की थी।

राजसभा लगी हुई थी। महाराज उत्तनापाद सुरुचि के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। इनकी गोद में उत्तम खेल रहा था और वे उसे बड़े स्नेह से दुलार रहे थे। सुनीति ने पुत्रका साज-श्रृंगार करके धाई के लड़कों के साथ उन्हें खेलने के लिये भेज दिया था। वे खेलते-खेलते राजसभा में आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि मेरा भाई उत्तम पिता की गोद में बैठा हुआ है, अतः उनकी भी इच्छा हुई कि मैं चलकर पिताकी गोद में बैठूँ। उन्होंने जाकर पिताके चरण छुए। राजा ने उनको आशीर्वाद दिया। वे अपने पिताजी की गोद में बैठना ही चाहते थे कि सुरुचि ने उन्हें डाँट दिया। उसने कहा—‘ध्रुव ! तुम बड़े नटखट हो। जहाँ तुम्हें बैठने का अधिकार नहीं है, वहाँ क्यों बैठना चाहते हो ? इस सिंहासन पर बैठने के लिये बहुत पुण्य करने पड़ते हैं। यदि तुम पुण्यात्मा होते तो मेरे गर्भ से जन्म लेते। भाग्यहीना सुनीति के गर्भ में क्यों आते ? उत्तम मेरे गर्भ से पैदा हुआ है। वह राज्य का उत्तराधिकारी है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। यदि तुम्हें अपने पिता की गोद में बैठना हो तो जाकर तपस्या करो, भगवान् की आराधना करो और मेरे गर्भ से जन्म लो। तब दूसरे जन्म में तुम्हें यह गोद, यह सिंहासन प्राप्त हो सकता है।’
ध्रुव रोने लगे। यद्यपि वे बालक ही थे, तथापि उनमें क्षत्रिय-तेजकी कमी न थी। उचित-अनुचित कुछ भी उनके मुँह से न निकला। उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। सुरुचि में आसक्ति होने के कारण उत्तानपाद भी चुप रह गये। उन्होंने न तो ध्रुव को गोद में ही लिया और न समझाया ही। ध्रुव बहुत ही उदास होकर अपनी माता सुनीति के पास आये। उस समय ध्रुव के आँसू सूख गये थे। उनका चेहरा कुछ तमतमा उठा था। उनके ओंठ फरक रहे थे। किसने तुम्हारा अपमान किया है ? तुम्हारा अपराध करना तो तुम्हारे पिता का अपराध करना है। बताओ, किससे तुम्हें दुःख पहुँचा है ? तुम्हारे दुःख का कारण क्या है ?’

ध्रुव ने सारी बातें कहीं।
सुनीति ने लम्बी साँस लेकर कहा—‘बेटा ! सुरुचि का कहना सत्य है। मैं अभागिनी हूँ और तुम मेरी ही कोख से पैदा हुए हो। यदि तुम पुण्यवान् होते के दूसरे लोग तुम्हें इस प्रकार अपमानित नहीं कर सकते, परंतु तुम सुरुचि का बुरा मत मानना। क्योंकि तुम एक ऐसी माता के गर्भ से पैदा हुए हो और उसके दूध से पुष्ट हुए हो, जिसे महाराज अपनी पत्नी कहने में भी संकोच करते हैं। सौतेली माँ होनेपर भी सुरुचि ने एक बात बड़े महत्त्व की कही है। सत्य ही भगवान् की आराधना किये बिना तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती।’ ध्रुव ने अपनी माता से बहुत-से बालसुलभ प्रश्न किये। उन्होंने पूछा—‘माँ ! तब तुम दोनों ही मेरी माँ हो, तब पिताजी सुरुचि से ही अधिक प्रेम क्यों करते हैं ? तुमसे क्यों नहीं करते ? हम दोनों ही राजकुमार हैं, फिर उत्तम उत्तम क्यों ? मैं अभागा क्यों ? वह क्यों राजाकी गोद में बैठ सकता है और मैं क्यों नहीं बैठ सकता ?’

सुनीति ने कहा—बेटा ! उन्होंने पूर्वजन्म में बड़े-बड़े पुण्य किये हैं, तपस्या की है, भगवान् की आराधना की है। इसलिए वे राजा के प्रेमास्पद हैं, वे उनकी गोद में बैठ सकते हैं। इसलिये वे नहीं की है, उनकी आराधना नहीं की है। इससे वह पद हमें नहीं प्राप्त होता। भगवान विष्णु की आराधना से ही सब कुछ प्राप्त होता है। उन्होंने उनकी आराधना की है, इसलिये उन्हें सब कुछ प्राप्त है। तुम उनकी बातों से दुःखी न होना। बेटा ! वे सच कहती हैं।’ अपनी माता की बात सुनकर ध्रुव के पुराने संस्कार जाग उठे। यद्यपि उन्हें मालूम नहीं था, तथापि उनके मन में पहले की जो भक्ति-भावना थी, उस पर परदा हट गया। वे भगवद्भजन के लिये उत्सुक हो गये।

उन्होंने सुनीति से कहा—माता ! मैं समझता था कि पिताजी से बढ़कर और कोई नहीं है और वे मुझपर प्रसन्न नहीं है तो जीवनभर मैं दुःखी ही रहूँगा। परंतु यदि उनसे भी बड़ा कोई और आज मालूम हो गया कि उनसे भी बड़ा है तो आज ही मैं उसे प्रसन्न करूँगा और वह पद प्राप्त करूँगा जो अबतक किसी को प्राप्त नहीं हुआ है। तुम केवल मेरी एक सहायता करो, मुझे भगवान् की आराधना करने के लिये यात्रा करने की अनुमति दे दो। मुझपर भगवान् को प्रसन्न ही समझो।’ पुत्र की बात सुनकर माता का हृदय स्नेह से भर गया। उसने कहा—‘बेटा ! अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है। अभी तुम तो बच्चों के साथ खेलने-खाने योग्य हो। मैं तुम्हें वनमें जाने की अनुमति कैसे दो सकती हूँ ? तुम्ही मेरे प्राणधार हो। भगवान् की न जाने कितनी मनौती करके मैंने तुम्हें प्राप्त किया है। तुम घर के बाहर खेलने जाते हो तब मेरे प्राण छटपटाने लगते हैं। मैं तुम्हें वन में जाने की आज्ञा नहीं दे सकती। तुम घर में रहकर दान करो, पुण्य करो, सबका हित करो, वैरियों का उपहार करो, तुम पर भगवान् प्रसन्न हो जायँगे।’

ध्रुव ने कहा—‘माता ! तुम्हारा कहना सत्य है तथापि मेरा हृदय अब बिलम्ब सहन करने को तैयार नहीं है। मेरा कोई अनिष्ट नहीं होगा, भगवान् मेरे रक्षक हैं। माता ! तुम अभागिनी नहीं, परम भाग्यवती हो। तुम्हारी कोख से पैदा होकर मैं भगवान् को प्रसन्न करूँगा। उत्तम को राजसिंहासन प्राप्त हो। उसके प्रति मेरे मन में तनिक भी द्वेष नहीं है। मैं अब किसी व्यक्ति का दिया हुआ राज्य नहीं ले सकता। मेरा सम्बन्ध तो सीधे भगवान् से होगा। आजतक मेरे माता-पिता तुमलोग थे, आज से मेरे माता-पिता भगवान् विष्णु हुए।

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