गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
जो सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्तिके स्थान, अजन्मा, अविनाशी, आश्रयस्वरूप, चराचर जगत् को धारण करनेवाले तथा परमपदस्वरूप हैं, जिन्हें आदिपुरुष ब्रह्मा कहा जाता है, जो उत्पत्ति, पालन और संहारके कारण हैं, किसीके औरस पुत्र न होकर स्वयंभू हैं, जिनमें सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है, जो हिरण्यगर्भ, लोकसृष्टिमें लगे रहनेवाले और परम बुद्धिमान् हैं, उन भगवान् ब्रह्माजीको नमस्कार करके मैं परम उत्तम भूतवर्गका वर्णन आरम्भ करता हूँ। वह भूतसमुदाय* पाँचकी संख्यामें जाननेके योग्य तथा विविधस्रोतों**से युक्त है। महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त उसकी स्थिति है। उसमें किसका कैसा लक्षण है और किसके रूपमें कितनी विभिन्नता है, इन सब बातोंका ज्ञान कराते हुए भूतसमुदायका वर्णन करता हूँ। इस भौतिक जगत् का जो कारण है, उसे 'प्रधान' कहते हैं। उसीको महर्षियोंने अव्यक्त कहा है और वही सूक्ष्म, नित्य एवं सदसत्स्वरूपा प्रकृति है। सृष्टिके आदिकालमें केवल ब्रह्म था, जो नित्य, अविनाशी, अजर और अप्रमेय है। उसका दूसरा कोई आधार नहीं है। वह गन्ध, रूप, रस, शब्द और स्पर्शसे रहित है। उसका आदि और अन्त नहीं है। वह सम्पूर्ण जगत् की योनि, तीनों गुणोंका कारण एवं अविनाशी है। उसे आधुनिक नहीं, पुरातन एवं सनातन कहा गया है। वह ज्ञान-विज्ञानका विषय नहीं है। प्रलयके पश्चात् उस ब्रह्मसे ही यह सब कुछ व्याप्त था।
* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पाँच भूत हैं।
**पशु-पक्षी आदिकी सृष्टिको 'तिर्यस्रोत', मानवसर्गको 'अर्वाक्स्रोत' और देवसर्गको 'ऊर्ध्वस्रोत' कहते हैं।
मुने! फिर सृष्टिकाल आनेपर गुणोंकी साम्यावस्थारूप प्रकृति जब ब्रह्म के क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुई, तब उससे महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ। उत्पन्न हुए उस महत्तत्त्व को प्रधान (प्रकृति) ने आवृत कर रखा है। जैसे बीज त्वचा से घिरा हुआ होता है, उसी प्रकार अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्व आच्छादित है। वह सात्त्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का बताया गया है। तत्पश्चात् उस महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादिरूप तामस - इन तीन भेदोंवाला अहङ्कार उत्पन्न हुआ। जैसे अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्व आवृत है, उसी प्रकार अहङ्कार भी महत्तत्त्वसे आवृत है। भूतादि नामक तामस अहङ्कारने शब्द-तन्मात्राकी सृष्टि की। उस शब्द-तन्मात्रासे शब्द-गुणवाला आकाश उत्पन्न हुआ; फिर भूतादि तामस अहङ्कारने शब्द-तन्मात्रारूप आकाशको आच्छादित किया। इससे स्पर्श-तन्मात्राकी सृष्टि हुई, जिससे बलवान् वायुका प्राकट्य हुआ। वायुका गुण स्पर्श माना गया है। शब्द-तन्मात्रारूप आकाशने जब स्पर्श- तन्मात्रावाले वायुको आच्छादित किया, तब वायुने भी विकृत होकर रूप-तन्मात्राकी रचना की। इस प्रकार वायुसे अग्नितत्त्व प्रकट हुआ, जिसका गुण रूप बतलाया जाता है। तदनन्तर स्पर्श-तन्मात्रावाले वायुने रूप-तन्मात्रावाले तेजको आवृत किया, जिससे विकृत होकर उस तेजने रस-तन्मात्रा की सृष्टि की। उस रस-तन्मात्रा से जल प्रकट हुआ, जो रस नामक गुणसे युक्त है। फिर रूप-तन्मात्रावाले अग्नितत्त्वने रस-तन्मात्रायुक्त जलको आवृत किया। इससे जलमें भी विकार आया और उससे गन्ध-तन्मात्रा की सृष्टि हुई। उसीसे यह सङ्घातरूपा पृथ्वी उत्पन्न हुई, जिसका गुण गन्ध है। उन-उन भूतों में कारणरूपसे तन्मात्राएँ हैं, इसलिये वे भूततन्मात्रारूप माने गये हैं। तन्मात्राएँ किसी विशेष भावका बोध नहीं करातीं। इसलिये वे अविशेष हैं। इस प्रकार तामस अहङ्कारसे यह भूततन्मात्रारूप सर्ग प्रकट हुआ।
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- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
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- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
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- सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
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- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
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- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य