गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।
दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्ने शुर्देवारिसैनिकाः॥३९॥
पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।
योद्धमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥४०॥
रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः॥४१॥
युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्तया महासुरः।
ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥४२॥
कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४३॥
यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४४॥
ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥४५॥
पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥४६॥
वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम्॥४७॥
वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्त्रावसम्भवैः।
सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४८॥
शक्तया जघान कौमारी वाराही च तथासिना।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥४९॥
स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।
मातृः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥५०॥
तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥५१॥
तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥५२॥
तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु॥५३॥
मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना॥५४॥
भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥५५॥
भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥५६॥
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥
न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्त्राव शोणितम्॥५८॥
यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः।
तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्॥५९॥
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिरृष्टिभिः।
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्॥६०॥
स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः।
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः॥६१॥
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः॥ॐ॥६३॥
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