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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

एक दिन दक्षिण देशका दुराचारी राजकुमार वपुष्मान्, जो संक्रन्दनका पुत्र था, थोड़ी-सी सेना साथ ले वनमें शिकार खेलनेके लिये गया। उसने तपस्वी नरिष्यन्त तथा उनकी पत्नी इन्द्रसेनाको तपस्यासे अत्यन्त दुर्बल देखकर पूछा-'आप वानप्रस्थ-आश्रममें स्थित ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य हैं? मुझे बताइये।' राजा नरिष्यन्तने मौन- व्रत धारण कर लिया था, इसलिये उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया; किन्तु उनकी पत्नी इन्द्रसेनाने सब बातें सच-सच बता दी। परिचय पाकर वपुष्मान्ने सोचा, अब तो मैं अपने शत्रुके पिताको पा गया हूँ। यह विचारकर उसने कुपित हो नरिष्यन्तकी जटा पकड़ ली। इन्द्रसेना आँसू बहाती हुई गद्गदकण्ठसे रोने और हाहाकार करने लगी। वपुष्मान्ने म्यानसे तलवार निकाल ली और यह बात कही, 'जिसने युद्ध में मुझे परास्त किया और मेरी सुमनाको हर लिया, उस दमके पिताको आज मैं मार डालूँगा। अब वह आकर इनकी रक्षा करे।'

यों कहकर उस दुराचारीने इन्द्रसेनाको रोती- बिलखती छोड़ नरिष्यन्तका मस्तक काट डाला, तब समस्त मुनि तथा अन्य वनवासी भी उसे धिक्कारने लगे। वपुष्मान् अपने नगरको लौट गया। उसके चले जानेपर इन्द्रसेनाने एक शूद्र तपस्वीको अपने पुत्रके पास भेजा और कहा- 'तुम शीघ्र जाकर मेरे पुत्रसे यह सब हाल कहो। मेरा सन्देश इस प्रकार कहना-'महाराजकी इस प्रकार तिरस्कारपूर्ण हिंसा देखकर मैं बहुत दुःखी हूँ। राजा होनेका अधिकार उसीको है, जो चारों वर्णों और आश्रमोंकी रक्षा करे। तुम जो तपस्वियोंकी रक्षा नहीं करते, क्या यही तुम्हारे लिये उचित है? तुम्हारे महाराज नरिष्यन्तके विषयमें यह बात प्रसिद्ध हो गयी कि बिना किसी अपराधके उनके केश पकड़कर वपुष्मान्ने उनकी हत्या की; ऐसी स्थितिमें तुम वही कार्य करो, जिससे तुम्हारे धर्मका लोप न हो। इससे आगे मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि मैं तपस्विनी हूँ। तुम्हारे मन्त्री वीर तथा सब शास्त्रोंके ज्ञाता हैं; उन सबके साथ विचार करके इस समय जो करना उचित हो, वह करो। अपने पिता शक्तिको राक्षसके हाथसे मारा गया सुनकर महर्षि पराशरने समस्त राक्षस- कुलको अग्निकुण्डमें होमकर भस्म कर दिया था। मैं तो ऐसा मानती हूँ कि तुम्हारे पिता नहीं, तुम मारे गये; उनके ऊपर नहीं, तुम्हारे ऊपर वह तलवार गिरी है। यह तुम्हारी ही मर्यादाका उल्लङ्घन किया गया है। अब तुम्हें भृत्य, कुटुम्ब और बन्धु-बान्धवोंसहित वपुष्मान्के प्रति जो बर्ताव करना उचित हो, वह करो।'

इस प्रकार संदेश दे इन्द्रसेनाने शूद्र तपस्वीको विदा किया और स्वयं पतिके शरीरको गोदमें ले वे अग्निमें प्रवेश कर गयीं। इन्द्रसेनाकी आज्ञाके अनुसार शूद्र तापसने वहाँ जाकर दमसे उनके पिताके मारे जानेका सब समाचार कहा। यह सुनकर दम क्रोधसे जल उठा। जैसे घी डालनेपर आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार दम क्रोधाग्निसे जलते हुए हाथ-से-हाथ मलने लगे और इस प्रकार बोले-'ओह! मुझ पुत्रके जीते- जी उस नृशंस वपुष्मान्ने मेरे पिताको अनाथकी भाँति मार डाला और इस प्रकार मेरे कुलका अपमान किया। यदि मैं बैठकर शोक मनाऊँ या क्षमा कर दूं तो यह मेरी नपुंसकता है। दुष्टोंका दमन और साधु पुरुषोंका पालन-यही मेरा कर्तव्य है। मेरे पिताको मारा गया देखकर भी यदि शत्रु जीवित है तो अब 'हा तात! हा तात!' कहकर बहुत अधिक विलाप करनेसे क्या होगा। इस समय जो करना आवश्यक है, वही मैं करूँगा। उस कायर, पापी एवं दुष्ट दक्षिण- देशनिवासी शत्रुको युद्धमें मारकर सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य भोगूंगा। यदि उसे न मार सका तो स्वयं ही अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा। यदि देवराज इन्द्र हाथमें वज्र लिये स्वयं ही इस युद्ध में पधारें, भयङ्कर दण्ड लिये साक्षात् यमराज भी कुपित होकर आ जायँ, कुबेर, वरुण और सूर्य भी वपुष्मान्की रक्षाका यत्न करें तो भी मैं अपने तीखे बाणोंसे उसका वध कर डालूँगा। जो नियतात्मा, निर्दोष, वनवासी, अपने-आप गिरे हुए फलका आहार करनेवाले तथा सब प्राणियोंके मित्र थे-ऐसे मेरे पिताकी जिसने मुझ-जैसे शक्तिशाली पुत्रके रहते हुए हिंसा की है, उसके मांस और रक्तसे आज गृध्र तृप्त हों।'

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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