गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
दोनों नागकुमार कहते हैं- पिताजी! इस प्रकार मदालसाके बिना वे स्त्रीसम्बन्धी समस्त भोगोंका परित्याग करके अब अपने समवयस्क मित्रोंके साथ मन बहलाते हैं। यही उनका सबसे बड़ा कार्य है। परन्तु यह तो ईश्वरकोटिमें पहुँचे हुए व्यक्तियों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर है, फिर अन्य लोगोंकी तो बात ही क्या है।
नागराज अश्वतर बोले- पुत्रो! यदि किसी कार्यको असम्भव मानकर मनुष्य उसके लिये उद्योग नहीं करेंगे तो उद्योग छोड़नेसे उनकी भारी हानि होगी; इसलिये मनुष्यको अपने पौरुषका त्याग न करते हुए कर्मका आरम्भ करना चाहिये; क्योंकि कर्मकी सिद्धि दैव और पुरुषार्थ दोनोंपर अवलम्बित है। इसलिये मैं तपस्याका आश्रय लेकर ऐसा यत्न करूँगा, जिससे इस कार्यकी शीघ्र ही सिद्धि हो।
यों कहकर नागराज अश्वतर हिमालय पर्वतके प्लक्षावतरण-तीर्थमें, जो सरस्वतीका उद्गमस्थान है, जाकर दुष्कर तपस्या करने लगे। वे तीनों समय स्नान करते और नियमित आहारपर रहते हुए सरस्वतीदेवीमें मन लगाकर उत्तम वाणीमें उनकी स्तुति करते थे।
अश्वतर उवाच
जगद्धात्रीमहं देवीमारिराधयिषुः शुभाम्।
स्तोष्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम्॥
सदसद् देवि यत्किंचिन्मोक्षबन्धार्थवत्पदम्।
तत्सर्वं त्वय्यसंयोगं योगवद् देवि संस्थितम्॥
त्वमक्षरं परं देवि यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम्।
अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत्॥
अक्षरं परमं ब्रह्म जगच्चैतत्क्षरात्मकम्।
दारुण्यवस्थितो वह्निीमाश्च परमाणवः॥
तथा त्वयि स्थितं ब्रह्म जगच्चेदमशेषतः।
अश्वतरने कहा- जो सम्पूर्ण जगत् को धारण करनेवाली और वेदोंकी जननी हैं, उन कल्याणमयी सरस्वती देवीको प्रसन्न करनेकी इच्छासे मैं उनके चरणोंमें शीश झुकाता और उनकी स्तुति करता हूँ। देवि! मोक्ष और बन्धनरूप अर्थसे युक्त जो सत् और असत् पद है, वह सब तुममें असंयुक्त होकर भी संयुक्तकी भाँति स्थित है। देवि! जिसमें सब कुछ प्रतिष्ठित है, वह परम अक्षर तुम्हीं हो। परम अक्षर परमाणु की भाँति स्थित है। अक्षररूप परब्रह्म और क्षररूप यह जगत् तुममें ही स्थित है। जैसे काष्ठमें अग्नि तथा पार्थिव सूक्ष्म परमाणु भी रहते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म और यह सम्पूर्ण जगत् तुममें स्थित है।
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