गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
इसके बाद बहुत समय बीतनेके पश्चात् महाराज शत्रुजित् पृथ्वीका भलीभाँति पालन करके परलोकवासी हो गये। तब पुरवासियोंने उनके महात्मा पुत्र ऋतध्वजको, जिनके आचरण तथा व्यवहार बड़े ही उदार थे, राजपदपर अभिषिक्त किया। वे भी अपनी प्रजाका औरस पुत्रोंकी भाँति पालन करने लगे। तदनन्तर मदालसाके गर्भसे प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। राजाने उसका नाम विक्रान्त रखा। इससे कुटुम्बके सब लोग बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु मदालसा वह नाम सुनकर हँसने लगी। उसने उत्तान सोकर जोर-जोरसे रोते हुए शिशुको बहलानेके व्याजसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया-
शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।
पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। यह शरीर भी पाँच भूतोंका बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोऽयमासाद्य महीशसूनुम्।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
ऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमारके पास पहुँचकर अपने-आप ही प्रकट होता है। तेरी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें जो भाँति-भाँतिके गुण-अवगुणोंकी कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही हैं?
भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः॥
जैसे इस जगत् में अत्यन्त दुर्बल भूत अन्य भूतोंके सहयोगसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देनेसे पुरुषके पाञ्चभौतिक शरीरकी ही पुष्टि होती है। इससे तुझ शुद्ध आत्माकी न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिं-
स्तस्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः॥
शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेत-
न्मदादिमूढः कञ्चकस्ते पिनद्धः॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरूपी चोलेके जीर्ण-शीर्ण होनेपर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदिसे बँधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है)।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेति किंचिद्दयितेति किंचित्।
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसङ्ख बहु मानयेथाः॥
कोई जीव पिताके रूपमें प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसीको प्यारी स्त्री कहते हैं; कोई 'यह मेरा है' कहकर अपनाया जाता है और कोई 'मेरा नहीं है' इस भावसे पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदायके ही नाना रूप हैं, ऐसा तुझे मानना चाहिये।
दुःखानि दुःखापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः।
तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि
जानाति विद्वानविमूढचेताः॥
यद्यपि समस्त भोग दुःखरूप हैं तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हें दुःख दूर करनेवाला तथा सुखकी प्राप्ति करनेवाला समझता है; किन्तु जो विद्वान् हैं, जिनका चित्त मोहसे आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखोंको भी दुःख ही मानते हैं।
हासोऽस्थिसंदर्शनमक्षियुग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषं वसायाः।
कुचादि पीनं पिशितं घनं तत्
स्थानं रतेः किं नरकं न योषित्॥
स्त्रियोंकी हँसी क्या है, हड्डियोंका प्रदर्शन। जिसे हम अत्यन्त सुन्दर नेत्र कहते हैं, वह मज्जाकी कलुषता है और मोटे-मोटे कुच आदि घने मांसकी ग्रन्थियाँ हैं; अतः पुरुष जिसपर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरककी जीती-जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेऽपि चान्यः पुरुषो निविष्टः।
ममत्वमुर्त्यां न तथा यथा स्वे
देहेऽतिमात्रं विमूढतैषा॥
पृथ्वीपर सवारी चलती है, सवारीपर यह शरीर रहता है और इस शरीरमें भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है; किन्तु पृथ्वी और सवारीमें वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देहमें दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है।
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- वपु को दुर्वासा का श्राप
- सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
- धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
- राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
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- दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
- दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
- अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
- पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
- तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
- ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
- श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
- त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
- सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
- योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
- योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
- अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
- एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
- प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
- स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
- दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
- जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
- श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
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- पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
- राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
- तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
- रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
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- वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
- सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
- मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
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- सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
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- धूम्रलोचन-वध
- चण्ड और मुण्ड का वध
- रक्तबीज-वध
- निशुम्भ-वध
- शुम्भ-वध
- देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
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- भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
- अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
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- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
- राजा खनित्रकी कथा
- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य