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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

ब्रह्मा और विश्वेदेवोंके उद्देश्यसे घरके मध्यभागमें बलि (पूजोपहार) अर्पण करे। पूर्व और उत्तरके कोणमें मन्वन्तरके लिये बलि प्रस्तुत करे। पूर्व दिशामें इन्द्रको, दक्षिण दिशामें यमको, पश्चिममें वरुणको तथा उत्तरमें सोमको बलि दे। घरके दरवाजेपर धाता और विधाताके लिये बलि अर्पण करे। घरके बाहर चारों ओर अर्यमा देवताके निमित्त बलि प्रस्तुत करे। निशाचरों और भूतोंको आकाशमें बलि दे। गृहस्थ पुरुष एकाग्रचित्त हो दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके तत्परतापूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे पिण्ड दे। तदनन्तर विद्वान् पुरुष जल लेकर उन्हीं-उन्हीं स्थानोंपर उन्हीं- उन्हीं देवताओंके उद्देश्यसे आचमनके लिये जल छोड़े। इस प्रकार गृहस्थ पुरुष घरमें पवित्रतापूर्वक गृह-देवताओंके उद्देश्यसे बलि देकर अन्य भूतोंकी तृप्तिके लिये आदरपूर्वक अन्नका त्याग करे। कुत्तों, चाण्डालों तथा पक्षियोंके लिये पृथ्वीपर अन्न रख दे। यह वैश्वदेव नामक कर्म है। इसे प्रातःकाल और सायंकाल आवश्यक बताया गया है।

इसके बाद बुद्धिमान् पुरुष आचमन करके कुछ कालतक अतिथिकी प्रतीक्षा करते हुए घरके दरवाजेकी ओर दृष्टि रखे। यदि कोई अतिथि वहाँ आ जाय तो यथाशक्ति अन्न, जल, गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा उसका सत्कार करे। अपने ग्रामवासी पुरुषको या मित्रको अतिथि न बनाये। जिसके कुल और नाम आदिका ज्ञान न हो, जो उसी समय वहाँ उपस्थित हुआ हो, भोजनकी इच्छा रखता हो, थका-माँदा आया हो, अन्न माँगता हो, ऐसे अकिञ्चन ब्राह्मणको अतिथि कहते हैं। विद्वान् पुरुषोंको उचित है कि वे अपनी शक्तिके अनुसार उस अतिथिका पूजन करें। उसका गोत्र और शाखा न पूछे। उसने कहाँतक अध्ययन किया है, इसकी जिज्ञासा भी न करें। उसकी आकृति सुन्दर हो या असुन्दर, उसे साक्षात् प्रजापति समझें। वह नित्य स्थित नहीं रहता, इसीलिये उसे अतिथि कहते हैं। उसकी तृप्ति होनेपर गृहस्थ पुरुष मनुष्य-यज्ञके ऋणसे मुक्त हो जाता है। जो उस अतिथिको
अन्न दिये बिना ही स्वयं भोजन करता है, वह मनुष्य पापभोजी है; वह केवल पाप भोजन करता है और दूसरे जन्ममें उसे विष्ठा खानी पड़ती है। अतिथि जिसके घरसे निराश होकर लौटता है, उसको अपना पाप दे स्वयं उसका पुण्य लेकर चल देता है।*
*अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥
(२९। ३१)

अतः मनुष्यको उचित है कि वह जल और साग देकर अथवा स्वयं जो कुछ खाता है, उसीसे अपनी शक्तिके अनुसार आदरपूर्वक अतिथिका पूजन करे।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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