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उपन्यास >> धूणी तपे तीर

धूणी तपे तीर

हरिराम मीणा

प्रकाशक : साहित्य उपक्रम प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11991
आईएसबीएन :9788182351448

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मैं सेंगाजी साध उस परमात्मा को अनेक धन्यवाद देता हूं जिसने पहाड़, नदी, नाले, समंदर आदि अनेक अचरजों से भरी इस पृथ्वी को बनाया और मनुष्य, पशु, पक्षी आदि एक से एक विचित्र जीव इस पर उत्पन्न किये। पर उसकी कारीगरी का भेद किसी को मालूम नहीं पड़ा। ऐसी विचित्र सृष्टि में दूसरी विचित्रता क्या देखी कि ऐसा जान रच रखा है कि उसमें जो शख्स फंसता है फिर उसका निकलना मुश्किल हो जाता है।...... अब सात समन्दर पार से आये फिरंगियों ने इस विद्या को अपने काबू में कर रखा है और इन्होंने धरती के राजा महाराजाओं और महाजनान को बहकाकर उनकी मति फिरा दी है। जैसे पहले शनीचर ने इस इन्दरजाल का पता लगाकर लोगों को आगाह किया था और सब प्रजा को इस जान से बचने की राय बतायी थी, उस तरह मैं सब मनुष्यों को कहता हूं कि फिरंगियों के जाल को मैं समझ गया हूं और आप सब से अर्ज करता हूं कि इनके जाल में न आओ। इनके जाल में फंस जाने से लोगों को बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और लोगों को यह भी पता नहीं लगता कि हमारा नुकसान क्यों हो रहा है और कैसे अच्छा होगा। आपको मालूम नहीं विधाता ने जो सृष्टि रची है उसमें भले इन्सान बनाये हैं लेकिन इन जादूगर इन्सानों ने अपनी माया फैलाकर भले इन्सान को दुःख देना शुरू कर दिया है। ये जादूगर बुरे लोग व अत्याचारी हैं, वे राजा-महाराजा हैं, सूदखोर महाजनान हैं और विलायती फिरंगी हैं।’  

- उपन्यास से

गोलियों को बौछारों के बावजूद संघर्ष जारी था। गोविन्द गुरु के ऐलान के बाद लड़ाकू भगतों, सम्प सभा के अन्य कार्यकर्ताओं और पूंजा धीरा द्वारा प्रशिक्षित रक्षा दल के सदस्यों में नया जोश फूटा। जैस उफनती नदी का तेज प्रवाह राह के रोड़ों चानों और अन्य बंधनों को तोड़ता आगे बढ़ता जाता है, मौत को हथेली पर रख कर आदिवासी योद्धा अपने परम्परागत हथियारों के सहारे साम्राज्यवादी और सामन्तवादी ताकतों की विकसित बन्दूकों से भिड़ रहे थे।

- उपन्यास से

इतिहास की सुरंगों में छिपा रहा है मानगढ़ पर्वत ! देश का पहला ‘जलियांवाला काण्ड’ (अमृतसर 1919) से छः वर्ष पूर्व दक्षिणी राजस्थान के बांसबाड़ा में घटित हो चुका था जिसमें जलियांवाला से चार गुणा अधिक शहादत हुई। अब छः सौ फीट की ऊंचाई के इस पहाड़ पर 54 फीट ऊंचा शहीद-स्मारक बना दिया गया हैं। गोविन्द गुरु की प्रतिमा भी वहां है। औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन एवं देसी सामंती प्रणाली के विरुद्ध आदिवासियों के संघर्ष की इस अप्रतिम गाथा को उपन्यासकार हरिराम मीणा ने वर्षों के अनुसंधान से लिखा है। बनते भारतीय राष्ट्र को इस आईने में कम ही देखा गया है।

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