नाटक-एकाँकी >> आधे अधूरे (पेपरबैक) आधे अधूरे (पेपरबैक)मोहन राकेश
|
0 |
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधे-अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव-खंड को मूर्त करता है। इसके लिए हिंदी के जीवंत मुहावरे को पकड़ने की सार्थक, प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, उनका संयोजन सबकुछ ऐसा है, जो बहुत संपूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यही शक्ति और उच्चारित ध्वनि-समूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य-रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाए रख सकी। यह नाट्यलेख, एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज है। दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य-रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् भूमिकाएँ निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में कहें तो आधे-अधूरे समकालीन जिंदगी का पहला सार्थक हिंदी नाटक है। इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book