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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


बकाया लगान
ऐसा कोई प्रख्यात शहर नहीं है कि स्टेशन पर उतरते ही यात्रियों की अपेक्षा में खड़ी टैक्सी की कतार नज़र आये। इतनी आशा नहीं थी सोमेन और सीता को।
मगर यह भी आशंका नहीं थी कि सवारी करने को कुछ भी नहीं होगा। एक पहिये की निशानी तक नहीं होगी। स्टेशन मास्टर की छोटी-सी कोठरी के बाहर दो गज के टीन के 'शेड' के नीचे  खड़े होकर बेचारे असहाय दृष्टि से दूर-दूर तक देखकर भी सामने मैदान और जंगल के सिवा  और कुछ भी नहीं देख पाये। ट्रेन से जो कुछ लोग उनके साथ उतरे थे, स्पष्ट था कि उनके  जैसे सम्भ्रान्त परिवार से नहीं थे वे लोग, काँटा-तार के घेरे के बीच से निकलकर जंगल के  भीतर से कब अदृश्य हो गये, पता ही नहीं चला। एक अकेला कुली, जो साथ था, वह भी अब  दिखाई नहीं पड़ा। रहने को कोई जगह मिलेगी यहाँ? मिलना सम्भव है क्या?

टाइम-टेबल से एक अज्ञात, अपरिचित स्टेशन का नाम खोजकर टिकट ले लिया और ट्रेन पर सवार हो गये। पर इस बचपने का परिणाम सोमेन को अब पता चलने लगा। जब घर से भाग निकला था, तब भाग निकलना ही उसका मुख्य उद्देश्य था, हालत क्या होगी, यह चिन्ता गौण थी। जिस तरह ट्रेन में भागकर आया, अधिक चिन्ता करने का समय नहीं था।
थोड़ी असुविधा ही होगी, थोड़ी तकलीफ़ ही, यही न! मगर असुविधा और तकलीफ़ के भय से घबरा जाए, ऐसी मनःस्थिति कहाँ है उनकी?

स्टेशन का चेहरा देखकर धारणा भी बदलती जा रही है। भारी जेब भरोसा कम, चिन्ता अधिक बढ़ा रही है।
आ तो गये, ठहरने के लिए जगह ढूँढ़ना मुश्किल ही लग रहा है।
ऐसे में सीता ने ही हिम्मत बँधायी। सहज भाव से बोली, ''स्टेशन मास्टर से पूछकर देखो न, एक गाड़ी का प्रबन्ध नहीं कर देगा? गाँव तक पहुँच जाने से कोई रास्ता निकल ही आएगा। कुछ भी न हो तो पेड़ की छाँव तो कोई छीन नहीं सकता!''
हँसने की कोशिश की सीता ने।
''वह भी छिन सकती है! देश में और कुछ हो न हो, थाना-पुलिस नामक कुछ तो है ही।''

''वाह! थाना-पुलिस की बात क्यों उठ रही है?''
''हम कोई चोर हैं क्या?''

सोमेन धीरे से हँसकर बोला, ''नहीं है, इसका सबूत क्या है? तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो यह प्रमाणित करने के लिए भी तो कोलकाता में रिश्तेदारों के पास लौटना पड़ेगा।''
''यह क्या बात करने का तरीका हुआ? इसका अर्थ क्या है?'' सीता भौंहें सिकोड़कर बोली।

''इसका अर्थ है दुनिया का हर आदमी अविश्वास का पात्र बनने योग्य है। 'कामिनी और कंचन' इन दो वस्तुओं के साथ 'वृक्ष-तले डेरा डालना' ठीक जँचता नहीं है। पुलिस पीछे पड़ सकती है। देख रहा हूँ, काम बच्चों जैसा ही हो गया है।''
तीखे स्वर में सीता बोली, ''तो तुम क्या चाहते हो, लौटती ट्रेन से कोलकाता लौट चलें?''
''अभी इतना नहीं कह रहा हूँ, पर लग रहा है किसी विपत्ति में न फँस जाएँ!''
''विपत्ति!'' शान्त स्थिर दृष्टि से सीता ने सोमेन की ओर देखा, ''अभी भी विपत्ति से डरते हो  तुम?''

पल में चुप हो गया सोमेन। क्षण-भर पहले की असतर्क चपलता इस अचानक आघात से जैसे मूक हो गयी। इतनी देर बाद याद आया, क्यों दोनों भागकर आये हैं यहाँ। सोमेन शर्म से गड़ गया। कितने शर्म की बात है! सोमेन की चपल वार्तालाप करने की आदत अभी तक छूटी क्यों नहीं!
दोनों सूटकेस के ऊपर बैठे रहे चुपचाप। ऐसा लगा कि इसी प्रकार बैठे रह जाएँगे युगों तक। सीने पर पड़ा है अनन्त भार पत्थर-सा, दृष्टि में अनन्तकाल का असहाय प्रश्न-कहाँ गयी, क्यों गयी?

नहीं, अब उन्हें हँसने का अधिकार नहीं है, अधिकार नहीं चपल वार्तालाप का। आनन्द की दुनिया से निर्वासित हो गये हैं दोनों। बराबर से ही प्राण चंचल, हँसमुख स्वभाव स्वत: जागरित हो उठा था। फिर कोड़े खाकर चुप हो गया।
श्यामली नहीं रही, वे रह गये, इस अपराध का कोई अन्त है?
अकेली सन्तान श्यामली!
सत्रह वर्ष के शरद-वसन्त में पला एक खिला हुआ फूल। वह फूल कैसे झुलसकर सूख गया!

पेन्सिल छीलने की छुरी से हाथ कटने पर कोई मर जाता है क्या? किसी ने इस तरह मरते  देखा है किसी को? कहाँ था इतना जहर जो सारी नसों में फैलकर ताजे खून को नीला कर  गया? रोक दिया उसकी गति को?
मगर क्या सीता को सचमुच यह अनुभव है कि श्यामली मर चुकी है?

ये सारी चीज़े पड़ी रहेंगी श्यामली की, उसकी किताब-कॉपी, पैन्सिल, कलम, पड़ी रहेगी वह छुरी भी सही-सलामत। केवल श्यामली का कहीं कोई चिह्न भी नहीं रहेगा? इस विशाल धरा के किसी कोने में भी नहीं?...आकाश, धरती, जल कहीं भी पल-भर के लिए भी उसकी छाया तक नहीं  पड़ेगी?
अनगिनत साड़ी-ब्लाउज़ और प्रसाधन के उपकरणों से भरी विशाल अलमारी के दोनों पल्लों को सपाट खोलकर जब सीता असहाय दृष्टि से देखती रहती है, क्या वह समझ पाती है कि ये सब कभी श्यामली नहीं पहनेगी! कभी नहीं खोलेगी क्रीम और 'परफ्यूम' की शीशी?

शायद नहीं समझ पाती है, तभी सारे रिश्तेदारों को हैरान कर इतनी चुपचाप रही अब तक? या फिर उन्हीं लोगों ने समझने ही नहीं दिया? आच्छादित कर दिया सीता की सोच-समझ, अनुभूति को?
श्यामली के जाने के छत्तीस दिन बाद अनजाने अपरिचित इस अजीब माहौल में ढलती शान को आकाश में फैली चिता की लाती को देखकर क्या आज सीता को अनुभव हुआ कि श्यामली सचमुच मर गयी है? उसे रोना चाहिए? नीरव आँसू गिराकर नहीं, तीव्र आर्तनाद कर?

चौंक उठा सोमेन। सीता रो रही है? चीखकर रो रही है सीता? वह चीख ऐसी तीखी, ऐसी तीव्र है?
कहाँ छिपा था सीता के कण्ठ में यह तीव्र आर्तनाद? क्या पागल हो गयी अचानक?
इतने दिनों तक तो ऐसा उसने कभी नहीं किया। उसके नहीं रोने पर ही क्या कम दु:खी हुए थे उसके हितैषी सगे-सम्बन्धी? अकेली सन्तान के विछोह के बाद जो औरत चुपचाप बैठ सकती है, अतिथियों का स्वागत भी करती है, कुशल समाचार पूछती है, उनसे श्यामली को छोड़कर दुनिया की और सारी बातें कर लेती है, चाहे कितनी भी बेकार क्यों न हो। पीछे उसकी समालोचना करने से बाज आएँगे, ऐसे कठोर हृदयहीन तो नहीं हैं उसके रिश्तेदार। थोड़ा बहुत संकुचित सोमेन ही नहीं हुआ था क्या? सीता के लिए रोना ही तो उचित था, वही स्वाभाविक था। पाँच तरह की बातें तो होंगी ही।

दुर्घटना की रात को खबर पाकर जब सगे-सम्बन्धियों का दल अपनी निश्चित निद्रा का सुख त्यागकर धड़धड़ा कर उसके घर पहुँचा, और सीता को जकड़कर चेहरे पर पानी के छींटे और सर पर पंखा झलने के लिए लोगों ने आपस में होड़ लगा दी, तब बड़ी ही कुशलता के साथ अपने-आप को छुड़ाकर श्यामली के बालों को सँवारने बैठ जाना सीता के लिए बड़ा बेतुका आचरण था कि नहीं? माँ के सिवा और किसी से अपने बाल सँवारना श्यामली नहीं जानती थी, मगर जो श्यामली को सजाकर भेजने के लिए हाथ में स्नो सेण्ट लेकर बैठी रहीं उन्हें क्या पता था! ''बड़ी तगड़ी औरत है,'' यह टिप्पणी अगर नीरव से सरव ही हो गयी थी तो किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है।
खैर जो भी हो, सीता अपना कर्तव्य पालन करे या न करे, बाक़ी लोग अपने कर्तव्य से क्यों चूक जाएँ?
अतः सीता मूर्च्छित नहीं हुई, फिर भी उसके चेहरे पर पानी के छींटे दे-देकर होश में लाकर लोग बेसब्र न होने पर भी उसे सीने से लगाकर-'बेसब्र नहीं होना बेटी, सोमेन की तरफ देखो, यही दुनिया का नियम है, धीरज खोने से कैसे चलेगा...क्या करोगी, यह सब कर्मफल है'-आदि अच्छे-अच्छे उपदेश बरसाते गये।
तब से यही चलता रहा छत्तीस दिनों तक।
कर्मफल का लीलाकीर्तन।
श्यामली की यह आकस्मिक मृत्यु विधाता की हृदयहीन निष्ठुरता नहीं है! भगवान का अन्याय अविचार नहीं है। शैतान का प्रकोप नहीं है, केवल सीता का कर्मफल है। इसी बात को समझा देने के लिए अपने काम का नुक़सान करके भी लोग आते जा रहे हैं, अपनी जेब के पैसे खर्च कर भी आते चले जा रहे हैं। लौटते समय सोमेन की गाड़ी ही पहुँचा देती है उन्हें। दे भी क्यों नहीं? ये लोग जब इतना ख्याल रखते हैं उसका, वह इतना भी न करे!
समाज में उनके इतने सम्बन्धी, इतने हितैषी, इतने हमदर्द थे, यह पहले कभी मालूम पड़ा था उन्हें? सोमेन और सीता को? जिन्होंने जिन्दगी में कभी छाया भी नहीं देखी उनकी, क़दम नहीं रखे उनके घर पर, बड़े लोग कहकर जिनके नाम पर नाक सिकोड़ा, आज वे भी आ रहे हैं मन की कालिमा हटाकर। इनके सोना-चाँदी, चमकदार साड़ी और कोठी की तड़क-भड़क उन्हें मलिन नहीं करती है आज। अब तो पीठ पर हाथ फेरने के निर्मल सुख से वंचित होना कोई भी नहीं चाहता। 

'अहा', 'अहा' की संवेदना से गूँज उठा है माहौल। अबतक जो सुख, सौभाग्य और गर्वित स्वभाव से मटकती फिरती थी, अब वह मुट्ठी में आ गयी है।
'इनसान' का सुख कमल के पत्ते पर ठहरा पानी है। नहीं तो और क्या है! यही तो देखो, सब कुछ लुट गया, रहा क्या! बोलो?
''अकेली सन्तान चली गयी। अनेक जन्मों तक महापाप न करने से ऐसा नहीं होता।''
''क्या करोगी बेटी, जो करके आयी हो उसका फल तो भुगतना ही पड़ेगा न?'' 
''यही नियम है दुनिया का...अहा।''
सबको इसी ढंग से बात करना कहीं से आ गया, यही आश्चर्य की बात है।
कोई छूटता नहीं, छोटा-बड़ा हर कोई ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता है।


केवल रिश्तेदार? सब्जीवाली, ग्वालिन, पड़ोस में काम करनेवाली बाई, सभी आ रहे हैं सीता की  पीठ पर हाथ फेरने। आ रहे हैं-''अहा, अहा'' करने। मानों श्यामली उतारकर ले गयी है उनकी भव्यता का आवरण।
हालाँकि भले इरादे से ही आ रहे हैं ये लोग। इकलौती सन्तान की मृत्यु पर उसकी माँ को सान्त्वना देने नहीं आएँगे? समाज, गोष्ठी, मानवता-ये सब शब्द आखिर किसलिए हैं? सीता अगर उनकी सहानुभूति से द्रवित न हो, काठ की गुड़िया की तरह बैठी रहे या फिर अतिथियों के लिए चाय-जलपान का प्रबन्ध करने में लग जाय, यह उनका दोष तो नहीं? सीता की सूखी हुई आँखों को देखकर उनके आँसू भी सूख जाते इसमें कोई शक नहीं, परन्तु बांग्ला भाषा में इतने अच्छे-अच्छे वाक्य है, अनेक उपदेश-वाणी हैं, उन्हीं से निभाना पड़ता है।

अगर रुलाया न भी जा सके, तब भी पिछले जन्म की दुष्कृति से सीता को अवगत तो कराया जा सकता है। तत्त्व-ज्ञान की बातें तो कही जा सकती हैं। वैसे सीता भोजन-शयन त्याग करती या नहीं ईश्वर जाने, परन्तु किये बिना चारा ही क्या? सुबह से रात तक कोई न कोई तो उपस्थित है ही सीता को थोड़ा-सा कुछ मुँह में डालने की मिन्नत करने के लिये।
एक बूँद शरबत पीने के लिए अगर कोई मिन्नत करता रहे, इतना-सा गले में नहीं डालने से जरूर मर जाएगी सीता, कहकर अफसोस करने लगे, किस मुँह से उनके सामने बैठकर सीता दाल-भात खाये? किस मुँह से कहे थोड़ी-सी चाय के बिना उसका सर दर्द से फटा जा रहा है।

सोने के समय है चचेरी सास। दुस्संवाद पाते ही गाँव से जो दौड़ी आयी, साथ में एक सनकी लड़का, दो क्वाँरी लड़कियाँ, विधवा बहू और तीन-चार पोते-पोतियाँ भी हैं। इतना निकट सम्बन्ध है कि छोड़कर नहीं जा पाती हैं।

सीता को पास में लेकर सोने की ज़िम्मेदारी अपने आप ले ली हैं उन्होंने।
अद्भुत अध्यवसायी हैं, मानना ही पड़ेगा। नींद को इस प्रकार वश में रखना कम ही लोगों को  आता होगा। प्राय: सारी-सारी रात सीता को समझाती रहतीं, परलोक, जन्म-जन्मान्तर, लीलामय की लीला, इच्छामयी की इच्छा का गूढ़ तत्त्व। आवाज़ न मिलने पर बदन पर हाथ फेरकर  करुण स्वर में कहतीं, ''बहू सो गयी क्या? हाँ तो, मेरी उस ममेरी भतीजी की बात कह रही थी...तीन महीने के भीतर पति गया, बाप गया, दो जवान बेटे गये सुघड़ गृहिणी रातों-रात  क्या से क्या हो गयी। अब तो एक तरह से भीख माँगकर ही गुजारा कर रही है। मगर क्या  सुख, क्या ऐश्वर्य था...''

इस प्रकार के अनेक अच्छे-अच्छे उदाहरण उनकी झोली में है, मौका मिलते ही खोलकर बैठती हैं। बदन पर हाथ रखने से भी अगर नींद नहीं खुलती, धक्का देने से भी नहीं, तब निरुपाय होकर जम्हाई लेतीं...अहा, नींद ही उसकी दवा है,  सर्वसन्तापहारिणी निद्रा। बहू का मन हल्का है तभी, नहीं तो मेरे 'किसना' के जाने पर छ: महीने तक आँखें बन्द नहीं कर सकी। बैठे-बैठे रात काट देती थी-कहकर आखिर आँखें बन्द कर लेतीं।

इस स्नेहमय निरीक्षण के घेरे से निकलकर किस मुँह से सीता कहेगी कि सोमेन के पास नहीं सोने से उसे नींद नहीं आती है। श्यामली को खोकर भी नहीं। उन्नीस वर्ष का अभ्यास है। इतनी बड़ी चोट खाकर भी बदला नहीं।
सीता ने हिसाब लगाकर देखा-श्यामली के जाने के बाद सोमेन के साथ उसकी पहली मुलाक़ात हावड़ा स्टेशन पर हुई।
सचमुच की मुलाक़ात।

भाग निकलने की परिकल्पना कब, किस तरह की थी, जैसे-तैसे सूटकेस सजा लिया था, स्वयं को भी ठीक से याद नहीं है। अबतक केवल एक आवाज़ लगातार उठती रही-भागना पड़ेगा, भागना पड़ेगा, जहाँ भी जिस तरह भी हो। जहाँ जाकर एक बार सहजता से साँस ले सकेगी। जहाँ पास-पास बैठ सकेंगे सोमेन और सीता। एकान्त की निकटता के साथ सोमेन की गोद में अपना सर रख सकेगी वह। इसी के लिए आधी रात को ट्रेन में चढ़कर भाग जाने की परिकल्पना। पता चल जाने पर दया के वशीभूत होकर कौन साथ पकड़ ले, क्या जाने।

स्टेशन पहुँचकर अचानक खिलखिलाकर हँस पड़ी थी सीता। स्वाभाविक नहीं थी वह हँसी। बोली थी, ''खूब बेवकूफ बनाया सबको, क्यों?''
''बेवकूफ?'' आश्चर्य हुआ था सोमेन को।
''नहीं तो क्या?'' सुबह होते ही सब देखेंगे पंछी उड़ गये। बड़ा मज़ा आएगा।''
''चाची को भी नहीं बताकर आना ठीक हुआ क्या?'' सोमेन ने कहा।
इतना 'ऐडवेंचर' उससे हज़म नहीं हो रहा था।
''जो हुआ, सो हुआ। उफ् जान में जान आयी।''

'कर्मफल' के हाथ से छुटकारा तो मिला। ट्रेन में चढ़कर भी बहुत बचपना किया सीता ने, किसी स्टेशन पर चनाचूर खरीदकर खाया, मिट्टी के कप में चाय भी पी उसने।
क्या सोमने को बुरा लगा था?
नहीं।
नुकसान कितना भी गहरा हो, वेदना कितनी भी तीव्र हो, पुरुष उसे दबाकर रखना चाहता है, उसे भूलना चाहता है। उसे नुक़सान फिर भी सहन हो जाता है पर शोक सहन नहीं होता है। और शोकग्रस्त नारीहृदय से भयंकर पुरुष के लिए और है क्या?

इसीलिए सोच रहा था, शायद सँभल गयी सीता। सोच भी नहीं सका था कि अचानक इस प्रकार आर्तनाद कर चूर-चूर हो जाएगी वह। खो बैठेगी अपने-आप को। रोकने की चेष्टा व्यर्थ रही। तरंग और भी उत्ताल हो उठी। हलचल मच गया समुद्र में। छत्तीस दिनों के बाद सोमेन को इस सत्य का अनुभव हुआ कि श्यामली मर चुकी है।

मगर, यह क्या?...कहाँ थे इतने लोग?
इस निर्जन मैदान में कहाँ से लग गया जनता का जमघट! धरती भेदकर आ गये क्या?

कुली-कामिन, झाड़ूदार, स्टेशन मास्टर, फायरमैन, सिगनलमैन-कौन नहीं? आश्चर्य की बात है!

मगर इतनी सारी कुतूहली दृष्टि के सामने कैसे वह सीता के मस्तक को गोद में रहने दे! इस निष्ठुर की तरह उठाकर बैठा न दे तो क्या करे?
स्टेशन मास्टर थोड़े बुजुर्ग थे। इसलिए सोमेन को बुलाकर पूछताछ करने लगे। प्रश्न के उत्तर में सोमेन ने निराश होकर प्रश्न किया, ''कारण सुने बिना नहीं मानेंगे?''

''देखिए मेरी एक ड्यूटी तो है। अएगर बुरा न मानें...आपकी पत्नी शायद? मतलब दिमागी तौर पर...है न...?''
सोमेन की इच्छा तो हुई हाँ कह दे।
मगर उससे मुश्किल और बढ़ सकती है। अत: खुलकर ही कारण बता दिया उसने सुनते ही वे सहानुभूति से काँप गये।
''क्या कह रहे हैं? ओह हो! और बिटिया को इस तरह-उफ्!...यहाँ ठहरेंगे कहाँ?''

''कुछ सोचकर आये नहीं हम, यूँ ही ख्याल आया...''
''हाँ, हाँ वह तो होगा ही! इकलौती सन्तान थी, आहा!''
''हाँ! इससे तो लोग पागल हो जाते हैं। ठीक है, चलिये इस गरीब की कुटिया में, फिर कोई इन्तजाम कर दूँगा मैं। चलिए, चलिए...''
सोमेन कुछ सकुचाकर बोला, ''फिर आपके घर जाकर परेशान करना। कृपा करके कोई दूसरा इन्तजाम अगर...''

''मेरे कहन का मतलब, पैसे के मामले में कोई दिक्कत नहीं है।''
''वह मैं समझ गया जनाब, देखने से ही पता चल जाता है। मगर, इस तरह विदेशी धरती पर, ऐसे दुस्समय में बंगाली होकर आपको कैसे छोड़ दूँ। मैं भी बीवी बच्चोंवाला हूँ आखिर। अच्छा, मैं ही जाकर बिटिया को मनाता हूँ।''
स्टेशन मास्टर सीता की ओर बढ़े जा उस समय रोना भूलकर हैरानी के साथ एक हरिजन झाड़ूदारनी की अभूतपूर्व बांग्ला भाषा सुन रही थी।
''संसार में हरदम ओहि तो एक घटना होच्छे दीदी, आसछे-फिन् जाच्छे। भागमान को कुच्छू  दोष ना आछे, ए तुमको करमफल। ओहि जनम में तुम...
स्टेशन मास्टर के आगमन से उसके वाक्य-स्रोत में बाधा पड़ गयी।
करुण स्वर में स्टेशन मास्टर बोले, ''बुड्ढे की बात रखनी होगी बिटिया''-सीता और भी हैरान  होकर बोली, ''मुझसे कह रहे हैं?''
''हाँ बिटिया, तुमसे ही कह रहा हूँ। सब सुन चुका हूँ। क्या कर सकती हो बेटी, ये सब...''

''जानती हूँ सब मेरा ही कर्मफल है।'' शान्त स्वर में सीता बोली, ''इससे बचने का कोई उपाय  नहीं है, वह भी समझ रही हूँ अब। अब कृपा करके केवल इतना बताएँगे कि कोलकाता जाने  की अगली गाड़ी कितने बजे हैं?''

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